________________ 186] [ ज्ञाताधर्मकथा को एक किनारे रख देने वाले, कुशील अर्थात कालविनय आदि भेद वाले ज्ञान दर्शन और चारित्र के आचारों के विराधक, बहुत समय तक विराधक होने के कारण कुशीलविहारी तथा प्रमत्त (पाँच प्रकार के प्रमाद से युक्त), प्रमत्तविहारी, संसक्त (कदाचित् संविग्न के गुणों और कदाचित् पार्श्वस्थ के दोषों से युक्त तथा तीन गौरव वाले) तथा संसक्तविहारी हो गए / शेष (वर्षा-ऋतु के सिवाय) काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठ-फलक रखने वाले प्रमादी हो गए। वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए। साधुओं द्वारा परित्याग ६४--तए गं तेसि पंथयवज्जाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं जाव (समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सन्निविट्ठाणं) पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए (चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे) जाव समुप्पज्जित्था— 'एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पवइए, विपुलं णं असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए, नो संचाएइ जाव' विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं जाव (निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलग-सज्जा-संथारए) पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अब्भज्जएणं जाव (जणवयविहारेणं) विहरित्तए।' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता कल्लं जेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पोढ-फलग-सज्जा-संथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावेंति, ठावित्ता बहिया जाव (जणवविहारं) विहरंति / तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे / तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुग्रा कि-शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूछित हो गये हैं / वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं हैं। हे देवानुप्रियो ! श्रमणों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त, शेष काल में भी एक स्थानस्थायी तथा] प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है / अतएव देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल शैलक राजर्षि से अाज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का वैयावत्यकारी स्थापित करके अर्थात सेवा में नियुक्त करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत अर्थात् उद्यम सहित विचरण करें / ' उन मुनियों ने ऐसा विचार किया। विचार करके, कल अर्थात दूसरे दिन शैलक राषि के समीप जाकर, उनकी प्राज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिये / वापिस देकर पंथक अनगार को वैयाबृत्यकारी नियुक्त किया--उनकी सेवा में रखा / रखकर बाहर देश-देशान्तर में विचरने लगे। विवेचन राषि शैलक शिथिलाचार के केन्द्र बन गए. यह घटना न असंभव है. न विस्मयजनक / चिकित्सकों से साधुधर्म के अनुसार चिकित्सा करने के लिए कहा गया था, फिर भी उनका 1. पंचम प्र. 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org