Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक] [ 169 उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद तथा षष्टितंत्र (सांख्यशास्त्र) में कुशल था। सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था। पाँच यमों (अहिंसा आदि पांच महाव्रतों) और पांच नियमों (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरध्यान) से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक परिव्राजक-धर्म का, दानधर्म का, शौचधर्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था। गेरू से रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था। त्रिदंड, कुण्डिका-कमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक (काष्ठ का एक उपकरण), अंकुश (वक्ष के पत्ते तोड़ने का एक उपकरण) पवित्री (ताम्र धातु की बनी अंगूठी) और केसरी (प्रमार्जन करने का वस्त्रखण्ड), यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे। एक हजार परिव्राजकों से परिवत वह शुक परिव्राजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का आवसथ (मठ) था, वहाँ आया / ग्राकर परिव्राजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी प्रात्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। ३२–तए णं सोगंधियाए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर (चउम्मुह-महापह-पहेसु) बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु सुए परिवायए इह हव्वमागए जाव विहरइ / परिसा निग्गया। सुदंसणो निग्गए। तब उस सौगंधिका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख, महापथ, पथों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे—'निश्चय ही शुक परिव्राजक यहाँ आये हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं।' तात्पर्य यह कि शुक परिव्राजक के आगमन की गली-गली और चौराहों में चर्चा होने लगी / उपदेश-श्रवण के लिए परिषद् निकली। सुदर्शन भी निकला / शुक को धर्म देशना ३३-तए णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसि च बहूणं संखाणं परिकहेइ--एवं खलु सुदंसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते / से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-- दव्वसोए य भावसोए य / दध्वसोए य उदएणं मट्टियाए य / भावसोए दभेहि य मंतेहि य / जंणं अम्हं देवाणप्पिया ! किचि असई भवड, तं सव्वं सज्जो पढवीए आलिप्पड, तओ पच्छा सर्तण वारिण लिज्जइ, तओ तं असुई सुई भवइ / एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति। तए णं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा हट्टे, सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्म गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेण असण-पाण-खाइम-साइम वस्थेणं पडिलाभेमाणे जाव विहरइ / तए णं से सुए परिवायए सोगंधियाओ नयरीओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को सांख्यमत का उपदेश दिया / यथा-हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है / यह शौच दो प्रकार का है-द्रव्यशौच और भावशौच / द्रव्यशौच जल से और मिट्टी से होता है / भावाशौच दर्भ से और मंत्र से होता है / हे देवानुप्रिय ! हमारे मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी (मिट्टी) से मांज दी जाती है और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है / तब अशुचि, शुचि हो जाती है / इसी प्रकार निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विध्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org