Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 138] [ ज्ञाताधर्मकथा कुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-उसंत-सुरसि-मघमघंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर-गंधियं गधवट्टिभूयं) करेह, करित्ता अम्हे पडिवालेमाणा चिट्ठह' जाव चिट्ठति / देवानुप्रियो ! तुम जानो और विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करो / तैयार करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम को तथा धूप, पुष्प आदि को लेकर जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान है और जहाँ नन्दा पुष्कारिणी है, वहाँ जायो / जाकर नन्दा पुष्करिणी के समीप स्थणामण्डप (वस्त्र से आच्छादित मंडप) तैयार करो। जल सींच कर, झाड़-बुहार कर, लीप कर यावत् [पाँच वर्गों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, काले अगर, कुदुरुक्क, तुरुष्क (लोभान) तथा धूप के जलाने से महकती हुई उत्तम गंध से व्याप्त होने के कारण मनोहर, श्रेष्ठ सुगंध के चूर्ण से सुगंधित तथा सुगंध की वट्टी के समान बनायो। यह सब करके हमारी बाट-राह देखना / ' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुष प्रादेशानुसार कार्य करके यावत् उनकी बाट देखने लगे। ९-तए णं सत्यवाहदारगा दोच्चपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सहावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं समखुर-वालिहाण-समलिहियतिक्खग्गसिंगरहि रययामय-सुत्तरज्जुयपवरकंचण-खचिय-णत्यपग्गहोवग्गहिएहि नीलुप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणि-रयणकंचण-घंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तमेव पवहणं उवणेह।' ते वि तहेव उवणेन्ति / तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्रों ने दूसरी बार (दूसरे) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक समान खुर और पूंछ वाले, एक-से चित्रित तीखे सींगों के अग्रभाग वाले, चाँदी की घंटियों वाले, स्वर्णजटित सूत की डोरी को नाथ से बंधे हुए तथा नीलकमल की कलंगी से युक्त श्रेष्ठ जवान बैल जिसमें जुते हों, नाना प्रकार की मणियों की, रत्नों की और स्वर्ण की घंटियों के समूह से युक्त तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ।' वे कौटुम्बिक पुरुष प्रादेशानुसार रथ उपस्थित करते हैं। १०–तए णं ते सत्थवाहदारगा व्हाया जाव (कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकिय-) सरोरा पवहणं दुरूहंति, दुरूहित्ता जेणेब देवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेन्ति / तए णं सा देवदत्ता गणिया सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हद्वतुट्ठा आसणाओ अन्भुट्टेइ, अन्भुद्वित्ता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छिता ते सत्यवाहदारए एवं क्यासी'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमिहागमणप्पओयणं ?' तत्पश्चात् उन सार्थवाहपुत्रों ने स्नान किया, यावत् [बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त किया, थोड़े और बहुमूल्य अलंकारों से शरीर को अलंकृत किया और] वे रथ पर आरूढ़ हुए / रथ पर आरूढ होकर जहाँ देवदत्ता गणिका का घर था, वहाँ आये / प्राकर वाहन (रथ) से नीचे उतरे और देवदत्ता गणिका के घर में प्रविष्ट हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org