________________ 130] [ ज्ञाताधर्मकथा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ / तए णं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति / __तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को बहुत लोगों से यह अर्थ (वृत्तान्त) सुनकर और समझकर ऐसा अध्यवसाय, अभिलाष, चिन्तन एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ—'उत्तम जाति से सम्पन्न स्थविर भगवान् यहाँ आये हैं, यहाँ प्राप्त हुए हैं--प्रा पहुँचे हैं / तो मैं जाऊँ, स्थविर भगवान् को वन्दन करू, नमस्कार करू / ' इस प्रकार विचार करके धन्य ने स्नान किया, (बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया) यावत् शुद्ध-साफ तथा सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किये / फिर पैदल चल कर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ स्थविर भगवान् थे, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर उन्हें वन्दना की, नमस्कार किया। तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने धन्य सार्थवाह को विचित्र धर्म का उपदेश दिया, अर्थात् ऐसे धर्म का उपदेश दिया जो जिनशासन के सिवाय अन्यत्र सुलभ नहीं है / धन्य को प्रव्रज्या और स्वर्गप्राप्ति ५२–तए णं से धण्णे सत्यवाहे धम्म सोच्चा एवं क्यासी-सद्दहामि गं भंते ! निग्गथं पावयणं / (पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / रोएमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं / अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते / इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वयहत्ति कटु थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता) जाव पव्वइए। जाव बहूणि वासाणि सामण्ण-परियागं पाउणित्ता, भत्तं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं धण्णस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता / से गं धण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवखएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करिहिइ / तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने धर्मोपदेश सुनकर इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा [भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर प्रतीति करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर रुचि करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन का अनुसरण करने के लिए उद्यत होता हूं। भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है, भगवन् ! यह सत्य है, भगवन् ! यह अतथ्य नहीं है। भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, भगवन् ! यह मुझे पुनः पुन: इष्ट है, यह मुझे इष्ट और पुनः पुनः इष्ट है। भगवन् ! निम्रन्थप्रवचन ऐसा ही है जैसा आप कहते हैं / इस प्रकार कह कर धन्य सार्थवाह ने स्थविर भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके] यावत् वह प्रव्रजित हो गया। यावत् बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पाल कर, आहार का प्रत्याख्यान करके एक मास की संलेखना 1 प्र. अ. 217. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org