Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 68] [ ज्ञाताधर्मकथा रत्नावली, प्रालंब (कंठी) पादप्रलम्ब (पैरों तक लटकने वाला प्राभूषण), कड़े, तुटिक (भुजा का आभूषण), केयूर, अंगद, दसों उंगलियों में दस मुद्रिकाएँ, कंदोरा, कुडल, चूडामणि तथा रत्नजटित मुकुट पहनाये / यह सब अलंकार पहनाकर पुष्पमाला पहनाई। फिर दर्दर में पकाए हुए चन्दन के सुगन्धित तेल की गंध शरीर पर लगाई। विवेचन-दर्दर-मिट्टी के घड़े का मुह कपड़े से बाँध कर अग्नि की ग्रांच से तपाकर तैयार किया गया तेल अत्यन्त सुगंधयुक्त होता है और उसका गुणकारी तन्व प्रायः सुरक्षित रहता है। १४३–तए णं तं मेहं कुमारं गठिम-वेढिम-पूरिम-संधाइमेणं चउठिवहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेन्ति / तत्पश्चात् मेघकुमार को सूत से गूथी हुई, पुष्प आदि से बेढ़ी हुई, बांस की सलाई प्रादि से पूरित की गई तथा वस्तु के योग से परस्पर संघात रूप की हुई--इस तरह चार प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया। २४४–तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलठ्ठियसालभंजियागं ईहाभिग-उसभ-तुरय-नर-मगरवहग-बालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं घंटावलिमहर-मणहरसरं सुभकंत-दरिसणिज्जं निउणोचियमिसिमिसंतमणि-रयणघंटियाजालपरिक्खित्तं खंभुग्गयवइरबेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं उवठ्ठवेह / ' तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही एक शिविका तैयार करो जो अनेक सैकड़ों, स्तंभों से बनी हो, जिसमें क्रीड़ा करती हुई पुतलियाँ बनी हों, ईहामृग (भेड़िया), वृषभ, तुरग-घोड़ा, नर, मगर, विहम, सर्प, किन्नर, रुरु (काले मृग), सरभ (अष्टापद), चमरी गाय, कुञ्जर, वनलता और पद्मलता आदि के चित्रों की रचना से युक्त हो, जिससे घंटियों के समूह के मधुर और मनोहर शब्द हो रहे हों, जो शुभ, मनोहर और दर्शनीय हो, जो कुशल कारीगरों द्वारा निमित्त देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घघरुओं के समुह से व्याप्त हो, स्तंभ पर बनी हुई वेदिका से युक्त होने के कारण जो मनोहर दिखाई देती हो, जो चित्रित विद्याधर-युगलों से शोभित हो, चित्रित सूर्य की हजार किरणों से शोभित हो, इस प्रकार हजारों रूपों वाली, देदीप्यमान, अतिशय देदीप्यमान, जिसे देखते नेत्रों की तृप्ति न हो, जो सुखद स्पर्श वाली हो, सश्रीक स्वरूप वाली हो, शीघ्र त्वरित चपल और अतिशय चपल हो, अर्थात् जिसे शीघ्रतापूर्वक ले जाया जाये और जो एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाती हो। १४५-तए णं ते कोडुबियपुरिसा हट्ठतुट्ठा जाव उवट्ठवेन्ति / तए णं से मेहे कुमारे सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता सौहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने। वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट होकर यावत् शिविका (पालकी) उपस्थित करते हैं / तत्पश्चात् For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org