Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [89 यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तो तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है / प्राप्त हुई पाँचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान (विशिष्ट शारीरिक चेष्टा), बल (शारीरिक शक्ति), वीर्य (आत्मबल) पुरुषकार (विशेष प्रकार का अभिमान) और पराक्रम (कार्य को सिद्ध करने वाले पुरुषार्थ) से युक्त हो और मेरे समीप मुडित होकर गृहवास का त्याग कर अगेही बने हो, फिर भी पहली और पिछली रात्रि के समय श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना के लिए यावत् धर्मानुयोग के चिन्तन के लिए तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए आते-जाते थे, उस समय तुम्हें उनके हाथ का स्पर्श हुआ, पैर का स्पर्श हुअा, यावत् रजकणों से तुम्हारा शरीर भर गया, उसे तुम सम्यक् प्रकार से सहन न कर सके ! बिना क्षुब्ध हुए सहन न कर सके ! अदीनभाव से तितिक्षा न कर सके ! और शरीर को निश्चल रख कर सहन न कर सके ! १८९-तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म सुभेहि परिणामेहि, पसत्थेहि अज्झवसाहिं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मम्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जाइसरणे समुप्पन्ने / एयमढें सम्मं अभिसमेइ। / तत्पश्चात् मेघकुमार अनगार को श्रमण भगवान् महावीर के पास से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर, शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसायों के कारण, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण और जातिस्मरण को प्रावृत करने वाले ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के कारण, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए, संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुया / उससे मेघ मुनि ने अपना पूर्वोक्त वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया। पुनः प्रव्रज्या १९०-तए णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदसुपुन्नमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबकं पिव समुस्ससियरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-'अज्जप्पभिई णं भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसठे' त्ति कट्ठ पुणरवि समणं भगवं महावीरं बंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी- 'इच्छामि णं भंते ! इयाणि सयमेव दोच्चं पि पवावियं, सयमेव मुंडावियं जाव' सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / ' तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा मेघकुमार को पूर्व वृत्तान्त स्मरण करा देने से दुगुना संवेग प्राप्त हुआ। उसका मुख अानन्द के अाँसुग्रों से परिपूर्ण हो गया। हर्ष के कारण मेघधारा से आहत कदंबपुष्प की भाँति उसके रोम विकसित हो गये। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भंते ! आज से मैंने अपने दोनों नेत्र छोड़ कर शेष समस्त शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित किया। इस प्रकार कह कर मेघकुमार ने पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन१. सूत्र प्र. अ. 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org