Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [ 99 पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेव हव्यमागए / से पूर्ण मेहा ! अठे समठे ?' 'हंता अस्थि / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / ' 'हे मेघ' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा -'निश्चय हो हे मेघ ! रात्रि में, मध्य रात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हुए तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुया है कि इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि पूर्वोक्त यहाँ कह लेना चाहिए यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आये हो / हे मेध ! क्या यह अर्थ समर्थ है ? अर्थात् यह बात सत्य है ? मेघ मुनि बोले-'जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है।' तब भगवान् ने कहा—'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो / प्रतिबंध न करो। 207-- तए णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भुणुनाए समाणे हट जाव हियए उट्ठाए उठेइ, उढाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, आरुहिता गोयमाइ समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेइ, खामेत्ता य ताहारूवेहि कडाईहि थेरेहिं सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरस्थाभिमहे संपलियंकनिसन्न करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटट वयासी 'नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव' संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव' संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स / वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्ठ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर की प्राज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए / उनके हृदय में आनन्द हुआ। वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना. नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महावतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वियों को खमाया / खमा कर तथारूप (चारित्रवान्) और योगवहन आदि किये हुए स्थविर सन्तों के साथ धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ हुए। प्रारूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापटक की प्रतिलेखना की / प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ हो गये / पूर्व दिशा के सन्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके (अंजलि करके) इस प्रकार बोले 'अरिहन्त भगवन्तों को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थकरों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य 1-2. प्र. अ. सूत्र 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org