Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुई और जहाँ स्नानगृह था, उसी पोर आई / प्राकर स्नानगृह में प्रवेश किया / प्रवेश करके अन्तःपुर के अन्दर स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। फिर क्या किया? सो कहते हैं-पैरों में उत्तम नपुर पहने, (कमर में मणिजटित करधनी, वक्षस्थल पर हार, हाथों में कड़े, उंगलियाँ में अंगूठियाँ धारण की, बाजूबंधों से उसकी भुजाएं स्तब्ध हो गईं,) यावत् आकाश तथा स्फटिक मणि के समान प्रभा वाले वस्त्रों को धारण किया / वस्त्र धारण करके सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, अमृतमंथन से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान श्वेत चामर के बालों रूपी बीजने से बिजाती हुई रवाना हुई। 81-- तए णं से सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे जाव (कयकोउय-मंगल-पायाच्छित्ते अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे) सस्सिरीए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वोइज्जमाणे धारिणि देवि पिट्ठओ अणुंगच्छइ। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया / सुसज्जित होकर, श्रेष्ठ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ़ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिजाते हुए धारिणी देवी का अनुगमन किया / 82 - तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हस्थिखंधवरगएणं पिद्रुतो पिट्ठतो समणुगम्ममाणमग्गा, हय-गय-रह-जोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिधुडा महया भड-चडगर-वंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वजुईए जाव' दुदुभिनिग्धोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर जाव (चउम्मुह) महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणा अभिनंदिज्जमाणा जेणामेव वेभागिरिपव्वए तेणामेब उवागच्छइ / उवाच्छित्ता वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उज्जाणेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, रुक्खेसु य, गुच्छेसु य, गुम्मेसु य, लयासु य, वल्लीसु य, कंदरासु य, दरीसु य, चुढीसु य, दहेसु य, कच्छेसु य, नदीसु य, संगमेसु य, विवरएसु य, अच्छमाणी य, पेच्छमाणी य, मज्जमाणीय, पत्ताणि य. पप्फाणि य, फलाणि य, पल्लवाणि गिण्हमाणी य, माणेमाणी य, अग्घायमाणी य, परिभुजमाणी य, परिभाएमाणी य, वेभारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सव्वओ समंता आहिंडति / तए णं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नदोहल्ला जाया यावि होत्था। . श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले / धारिणीदेवी अश्व, हाथी, रथ और योद्धानों की चतुरंगी सेना से परिवृत थी। उसके चारों ओर महान सुभटों का समूह घिरा हुआ था। इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुदुभि के निघोंष के साथ राजगढ़ क निर्घोष के साथ राजगृह नगर के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर आदि में होकर यावत चतुर्मुख राजमार्ग में होकर निकली। नागरिक लोगों ने पुनः पुनः उसका अभिनन्दन किया। तत्पश्चात् वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई / पाकर वैभारगिरि के कटकतट में और 1. प्र.अ. गूत्र 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org