________________ 54 ] | ज्ञाताधर्मकथा मूख किये जाते देखता है। देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रिय ! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद (कात्तिकेय) का महोत्सव है ? या रुद्र, शिव, वैश्रमण (कुबेर), नाग, यक्ष, भूत, नदी, तड़ाग, वृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि (पर्वत) की यात्रा है ? जिससे बहुत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके निकल रहे हैं ?' कंचुकी का निवेदन १११-तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासी–नो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा जाव गिरिजत्ताओ वा, जं णं एए उग्गा जाव ' एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे इहमागते, इह संपत्ते, इह समोसढे, इह चेव रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडि० जाव विहरति / तब उस कंचुकी पुरुष ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रागमन का वृत्तान्त जानकर मेधकुमार को इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावद् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सब लोग एक ही दिशा में, एकाभिमुख होकर जा रहे हैं। परन्तु देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर धर्म-तीर्थ की प्रादि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले यहाँ आये हैं, पधार चुके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं / ११२----तए णं से मेहे कंचुइच्जपुरिसस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म हठतुळे कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासो-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेह / ' तह ति उवणेति / तत्पश्चात् मेघकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होता हया कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और वुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवान प्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले प्रश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो! वे कौटुम्बिक पुरुप 'बहुत अच्छा' कह कर रथ जोत लाते हैं / मेघ की भगवत्-उपासना ११३--तए णं मेहे हाए जाव' सवालंकारविभूसिए चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडगर-विद-परियाल-संपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छति / निग्गच्छित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य 1-2. ग्रौप. सूत्र 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org