Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 22] / ज्ञाताधर्मकथा पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, वनलता और पद्मलता आदि के चित्रों से युक्त, श्रेष्ठ स्वर्ण के तारों से भरे हुए सुशोभित किनारों वाली जवनिका (पर्दा) सभा के भीतरी भाग में बँधवाई / जवनिका बँधवाकर उसके भीतरी भाग में धारिणी देवी के लिए एक भद्रासन रखवाया। वह भद्रासन पास्तरक (खोली) और कोमल तकिया से ढका था / प्रवेत वस्त्र उस पर बिछा हुया था। सुन्दर था। स्पर्श से अगों को सुख उत्पन्न करने वाला था और अतिशय मद् था। इस प्रकार प्रासन बिछाकर राजा ने कोम्बिक पुरुषा को खुलवाया। बुलवाक कहा देवानुप्रियो ! अष्टांग महानिमित्त-ज्योतिष के सूत्र और अर्थ के पाठक तथा विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्नपाठकों (स्वप्नशास्त्र के पंडितों) को शीघ्र ही बुलाग्रो और बुलाकर शीघ्र ही इस ग्राज्ञा को वापिस लौटाओ। ३२-तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव' हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट 'एवं देवो तह त्ति' आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सुमिणपाढए सद्दावेति / / तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित यावत् ग्रानन्दित हृदय हुए। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को इकट्ठा करके मस्तक पर घुमा कर अंजलि जोड़कर 'हे देव ! ऐसा ही हो' इस प्रकार कह कर विनय के साथ प्राज्ञा के वचनों को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करके श्रेणिक राजा के पास से निकलते हैं / निकल कर राजगह के बीचोंबीच होकर जहाँ स्वप्नपाठकों के घर थे, वहाँ पहुंचते हैं और पहुंच कर स्वप्नपाठकों को बुलाते हैं। ३३-तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो कोड बियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हतुट्ठ जाव' हियया व्हाया कयबलिकम्मा जाव कयकोउयमंगलपायच्छित्ता अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरा हरियालिय-सिद्धत्थकयमुद्धाणा सहि सरहिं गिहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिहस्स मझमज्ञण जेणेव सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता एगयओ मिलन्ति, मिलिता सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारेणं अणुविसंति, अणपविसित्ता जेणेव बाहिरिया उवठाणसाला जेणेव सेणिये राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धाति / सेणिएणं रन्ना अच्चिय-वंदिय-पूइय-माणिय-सक्कारिय-सम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुवन्नत्येसु भद्दासणेसु निसीयंति / तत्पश्चात् वे स्वप्नपाठक श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये जाने पर हष्टतुष्ट यावत् प्रानन्दितहृदय हुए। उन्होंने स्नान किया, कुलदेवता का पूजन किया, यावत् कौतुक (मसी निलक आदि) और मंगल प्रायश्चित्त (सरसों, दही चावल आदि का प्रयोग किया। अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मस्तक पर दूर्वा तथा सरसों मंगल निमित्त धारण किये / फिर अपने-अपने घरों से निकले / निकल कर राजगृह के बीचोंबीच होकर श्रेणिक राजा के मुख्य महल के द्वार पर पाये। ग्राकर सब एक साथ मिले / एक साथ मिलकर श्रेणिक 1. मूत्र 18 2. सूत्र 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org