Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 30 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ४६-तए णं तोसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडीयाओ धारिणि देवि ओलुग्गं जाव झियायमाणि पासंति, पासित्ता एवं वयासी-'कि णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?' तत्पश्चात् उस धारिणी देवी की अंगपरिचारिकाएं शरीर की सेवा-शुश्रूषा करने वाली आभ्यंतर दासियाँ धारणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीर वाली, यावत् प्रार्तध्यान करती हुई देखती हैं। देखकर इस प्रकार कहती हैं—'हे देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीर वाली क्यों हो रही हो? यावत् प्रार्तध्यान क्यों कर रही हो ? ४७–तए णं सा धारिणी देवो ताहि अंगपडियारियाहि अभितरियाहि दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणो नो आढाति, णो य परियाणाति, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिठ्ठइ / तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका प्राभ्यंतर दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर (अन्यमनस्क होने से) उनका आदर नहीं करती और उन्हें जानती भी नहीं उनकी बात पर ध्यान नहीं देती / न ही अादर करती और न ही जानती हुई वह मौन ही रहती है / ४८-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणि देवि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी—कि णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरोरा जाव झियायसि ?' तब वे अंगपरिचारिका प्राभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगी हे देवानुप्रिये ! क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वानी हो रही हो, यहाँ तक कि अार्तध्यान कर रही हो? ४९-तए णं धारिणी देवी ताहि अंगपडियारियाहि अभितरियाहि दासचेडियाहि दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ, णो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिठ्ठइ। तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका प्राभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती है, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न अादर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहती है / / ५०-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिज्जमाणीओ ( अपरियाणमाणीओ) तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता करयलपरिगडियं जाव कटट जएणं विजएणं वद्धावेन्ति / वद्धावइत्ता एवं वयासी"एवं खलु सामी ! कि पि अज्ज धारिणो देवो ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायति / " तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनादृत एवं अपरिज्ञात की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त (व्याकुल) होती हुई धारिणी देवी के पास से निकलती हैं और निकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं। दोनों हाथों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय से वधाती हैं और वधा कर इस प्रकार कहती हैं—'स्वामिन् ! आज धारिणी देवी जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर बाली होकर यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता में डूब रही हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org