Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष श्रेणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हर्षित हुए। उन्होंने अाज्ञानुसार कार्य करके प्राज्ञा वापिस सौंपी। 28 - तए णं सेणिए राया कल्लं पाउप्यभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, अह पंडुरे पभाए, रत्तासोगपगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धराग-बंधुजीवग-पारावयचलण-नयण-परहुयसुरत्तलोयण-जासुमिणकुसुम-जलियजलण-तवणिज्जकलस-हिंगुलनियर-रूवाइरेगरेहन्तसस्सिरीए दिवागरे अहकमेण उदिए, तस्स दिणकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे, बालातवकुकुमेणं खइए व्व जीवलोए, लोयणविसआणुआस-विगसंत-विसददंसियम्मि लोए, कमलागरसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयणिज्जाओ उट्ठति / ____ तत्पश्चात् स्वप्न वाली रात्रि के बाद दूसरे दिन रात्रि प्रकाशमान प्रभात रूप हुई / प्रफुल्लित कमलों के पत्ते विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विकस्वर हुए / फिर वह प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण वाला हुा / लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, कोकिला के नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगल के समूह की लालिमा से भी अधिक लालिमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमश: उदित हुना / सूर्य की किरणों का समूह नीचे उतरकर अंधकार का विनाश करने लगा / बाल-सूर्य रूपी कुकुम से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया। नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा / सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया / ऐसा होने पर राजा श्रेणिक शय्या से उठा / _ विवेचन जब सूर्य उदीयमान होता है और जब उदित हो जाता है तब उसके प्रकाश के स्वरूप में किस-किस प्रकार का परिवर्तन होता है उसके प्रकाश के रंगों में किस क्रम से उलटफेर होता है, प्रस्तत सत्र में उसका चित्र उपस्थित किया गया है। नैसर्गिक वर्णन का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। २९-उट्टित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेगवायाम-जोग-वग्गण-वामहण-मल्लजुद्धकरणेहि संते परिस्सन्ते, सयपागेहि सहस्सपागेहि सुगंधवरतेल्लमाइएहि पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहि मदणिज्जेहि विहणिज्जेहि, सच्चिदियगायफल्हायणिज्जेहि अन्भंगएहि अभंगिए समाणे, तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपाय-सुकुमालकोमलतलेहि परिसेहि छेएहि दक्खेहि पटहि कसलेहि मेहावीहिं निउणेहि निउणसिप्पोवगएहि जियपरिस्समेहि अन्भंगण-परिमद्दणुव्वट्टण-करणगुणनिम्माएहि अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउम्विहाए संवाहणाए संबाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालाओ पडिणिक्खमइ / शय्या से उठकर राजा श्रेणिक जहाँ व्यायामशाला थी, वहीं पाता है। प्राकर-व्यायामशाला में प्रवेश करता है। प्रवेश करके अनेक प्रकार के व्यायाम, योग्य (भारी पदार्थों को उठाना), वल्गन (कूदना), धामर्दन (भुजा आदि अंगों को परस्पर मरोड़ना), कुश्ती तथा करण (बाहुओं को विशेष प्रकार से मोड़ना) रूप कसरत से श्रेणिक राजा ने श्रम किया, और खूब श्रम किया अर्थात् सामान्यत: शरीर का और विशेषतः प्रत्येक अङ्गोपांग का व्यायाम किया। तत्पश्चात् शतपाक तथा सहस्रपाक आदि श्रेष्ठ सुगंधित तेल आदि अभ्यंगनों से, जो प्रोति उत्पन्न करने वाले अर्थात् रुधिर 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org