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१२. अंधकार में यानि रात्रि के समय भी दशों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ मस्तक के
कुछ पीछे तेज मण्डल यानि भामण्डल का होना। १३. जहाँ भी तीर्थंकर-भगवन्तों का विहार हो, उस भूमि-भाग का बहुसम और रमणीय होना। १४. विहार-स्थल (जहाँ से तीर्थंकर-भगवन्तों का विहार हो, वह स्थान विशेष) के काँटों
का अधोमुख हो जाना। १५. समस्त ऋतुओं का शरीर के अनुकूल-सुखद स्पर्श वाली होना। १६. जहाँ तीर्थंकर विराजते हैं, वहाँ की एक योजन भूमि का शीतल, सुख स्पर्श युक्त सुगन्धित
पवन से सर्व ओर संप्रमार्जन होना। १७. मन्द सुगन्धित जल-बिन्दुओं से मेघ के द्वारा भूमि का धूल रहित होना। १८. जल-थल में खिलने वाले पाँच वर्ण के पुष्पों से घुटने प्रमाण भूमि भाग का पुष्पोपचार
होना अर्थात् आच्छादित किया जाना। १९. अमनोज्ञ यानि अप्रिय शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गन्ध का अभाव होना।
२०. मनोज्ञ (प्रिय) शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गन्ध का प्रादुर्भाव होना। .. २१. धर्मोपदेश के समय हृदय को प्रिय लगने वाला और एक योजन फैलने वाला स्वर होना।
२२. अर्धमागधी भाषा में भगवान का धर्मोपदेश होना। २३. वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई समस्त आर्य-अनार्य पुरुषों के लिए तथा द्विपद
पक्षी व चतुष्पद मृग-पशु आदि के लिए और सरीसृपों यानि पेट के बल रेंगने वाले सर्पादि के लिए अपनी-अपनी हितकर, शिवकर (कल्याणकारी) सुखद भाषारूप से परिणत हो
जाती है। २४. पूर्वबद्ध वैर वाले भी (मनुष्य), देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष,
गरुड़, गन्धर्व और महोरग भी अरहन्तों के पादमूल में प्रशान्त चित्त होकर यानि परस्पर
वैर-विरोध भूलकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं। २५. अन्यतीर्थिक यानि परमतावलम्बी प्रावचनिक यानि व्याख्यान दाता पुरुष भी आकर भगवान
की वन्दना करते हैं। २६. वे वादी लोग भी अरहन्त के पादमूल में वचन रहित अर्थात् निरुत्तर हो जाते हैं। २७. जहाँ-जहाँ भी अरहन्त-भगवन्त विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक ईति-भीति |
नहीं होती है।
समवायांग सूत्र
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34th Samvaya