Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 357
________________ %% % %%% %%%%%% %%%%% %% %%%% %%% %%% %%% %%% सुखविपाकों का वर्णन इस प्रकार से निरूपित है जो शील, संयम, नियम, गुण और तप में संलग्न । हैं, जो अपने आचार का भली-भाँति पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं यानि यति-जनों को आहार दूंगा, | यह विचार करके जो हर्ष का अनुभव करते हैं, आहार देते समय और देने के पश्चात् भी हर्षित रहते हैं उनको अति सावधान मन से हितकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोग शुद्ध भक्त-पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त * होते हैं तथा नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी अनेक परावर्तनों को परीत करते हैं तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्व रूप शैल यानि पर्वत से संकीर्ण हैं, गहन अज्ञानअन्धकाररूप कीचड़ से परिपूर्ण हैं तथा इससे परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना अति कठिन है, जिसका चक्रवाल जरा, मरण योनिरूप मगरमच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय रूप श्वापदों यानि खूखार हिंसक-प्राणियों से अति प्रचण्ड है, एवं भयंकर है, ऐसे अनादि अनन्त इस संसार-सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं और जिस प्रकार देव-गणों में आयु बांधते-देवायु का बंध करते हैं तथा जिस प्रकार सुर-गणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, इसके बाद कालान्तर में वहाँ से च्युत होकर इसी मनुष्य लोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति-कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा-विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन-स्वजन, धन5 धान्य और वैभव से समृद्ध एवं सारभूत सम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अविच्छिन्न परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते | हैं। ऐस पुण्यशाली जीवों का इस सुख विपाक में निरूपण किया गया है। इस प्रकार अशुभ-शुभ कर्मों के अनेक प्रकार के विपाक इस विपाक सूत्र में भगवान् जिनेन्द्रदेव ने सांसारिक प्राणियों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं। इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की | अर्थ-प्ररूपणा विस्तार पूर्वक इस अंग में की गई है। Pleasure fruits of Karma (Sukh Vipak) has been described as under one wil who is indulged in celibacy, restraints, code of conduct, virtues and penance, who observes meticulously his conduct, the persons like it use their compassion in different ways. They keep their intellect, all the three times, pure towards them i.e. I will give alms to the monk, they feel pleasure in thinking so, they feel pleasure at time of food donation and after donating the meal. Experienced with beneficial, joyful, beatitutic, sublime auspicious conclusions through full attentive mind they give pure food and water to them. So these people earn the auspicious karma, gain cognition, and limit their various transformations related to births in the realms of gods, plant and animal, hellish beings and human beings, and who crosses the mountains in the mode of apathy, fear, dismay, grief and wrong faith, i.e., mixed together as the mountains, filled with dense समवायांग सूत्र 283 Ganipittak

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