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गए। नेत्रों को अतिप्रिय होने से वे प्रियदर्शन कहलाए। वे समचतुरस्र संस्थान के धारक थे, अस्तु वे सुरूप थे। । शुद्ध स्वभावी होने के कारण वे शुभशील कहे गए। सुखपूर्वक सरलता से प्रत्येक जन उनसे मिल सकता था, अतः वे सुखाभिगम्य थे। वे सर्वजनों के नयनों के प्यारे थे। कभी नहीं थकने वाले अविच्छिन्न प्रवाह युक्त बलशाली होने से वे ओघबली थे । वे अपने समय के सभी पुरुषों के बल का अतिक्रमण करने से तथा महान प्रशस्त या श्रेष्ठ बलशाली होने से अतिबली और महाबली कहलाए। वे निरूपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत थे। अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे। वे अपराजित थे क्योंकि मल्ल-युद्ध में कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था। बड़े-बड़े युद्धों में शत्रुओं का मर्दन करने से वे शत्रुमर्दन थे, सहस्रों शत्रुओं के मान का मथन करने वाले थे। आज्ञा या सेवा करने वालों पर द्रोह छोड़कर कृपा करने वाले थे। वे मात्सर्य-रहित थे, क्योंकि दूसरों के लेशमात्र भी गुणों के ग्राहक थे । वे अचपल यानि चपलता रहित थे क्योंकि उनमें मन-वचन-काय की प्रवृत्ति स्थिर थी। वे प्रचण्ड क्रोध से रहित थे, परिमित मंजुल वचनालाप और मृदुहास्य से युक्त
गम्भीर, मधुर व परिपूर्ण सत्य वचन बोलते थे। वे अधीनता स्वीकार करने वालों पर वात्सल्यभाव रखते थे। वे शरण में आने वाले के रक्षक थे। वे वज्र, स्वस्तिक, चक्र आदि लक्षणों से तथा तिल, मसा आदि व्यंजनों के गुणों से संयुक्त थे । वे शरीर के मान, उन्मान, और प्रमाण से परिपूर्ण थे, वे जन्म-जात सर्वांग सुन्दर शरीर के धारक थे। वे चन्द्र के समान सौम्य आंकार वाले, कान्त और प्रियदर्शन थे। वे अमसृण अर्थात् कर्त्तव्य - पालन में आलस्य-रहित थे अथवा अमर्षण यानि अपराध करने वालों पर भी क्षमाशील थे। वे उद्दण्ड पुरुषों पर प्रचण्ड दण्ड नीति के धारक थे, गम्भीर व दर्शनीय थे। बलदेव तालवृक्ष के चिह्नवाली ध्वजा के और वासुदेव गरुड़ के चिह्न वाली ध्वजा के धारक थे। वे दशारमण्डल कर्ण-पर्यन्त महाधनुषों को खींचने वाले, महासत्व के सागर थे। रणभूमि में उनके प्रहार . का सामना करना अशक्य था । वे महान धनुषों के धारक थे, पुरुषों में धीर-वीर थे, और युद्धों में प्राप्त कीर्ति के धारक पुरुष थे। वे विशाल कुलों में उत्पन्न हुए थे । वे इतने शक्तिशाली थे कि महारत्न वज्र यानि हीरा को भी अंगूठे और तर्जनी दो अंगुलियों से चूर्ण कर देते थे। वे आधे भरतक्षेत्र के अर्थात् तीन खण्ड के अधिपति थे, स्वामी थे । उनका स्वभाव सौम्य था। वे राजकुलों और राजवंशों
तिलक थे। वे अजित यानि किसी से भी नहीं जीते जाते थे तथा अजितरथ थे। बलदेव हल और मूलरूप शस्त्रों के धारक थे जबकि वासुदेव शारंग धनुष, पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, शक्ति और नन्दक नामा खड्ग के धारक थे। वे प्रवर, उज्ज्वल, सुकान्त, विमल कौस्तुभमणियुक्त मुकुट के धारी थे। उनका मुख कुण्डलों में लगे मणियों के प्रकाश से युक्त रहता था। वे कमल सदृश नेत्र वाले कमलनयन थे। एकावली हार कण्ठ से लेकर वक्षःस्थल तक शोभित रहता था । उनका वक्ष:स्थल श्रीवत्स के सुलक्षण से चिह्नित था । वे विश्वविख्यात यश वाले थे। सभी ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले, सुगन्धित पुष्पों से रची गई, लम्बी, शोभायुक्त, कान्त, विकसित, पंचवर्णी श्रेष्ठ माला से उनका वक्षःस्थल सदा सुशोभित था। उनके सुन्दर अंग-प्रत्यंग एक सौ आठ प्रशस्त लक्षणों से सम्पन्न थे।
महापुरुष
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Samvayang Sutra
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