Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 326
________________ 编编编编 ५१३ - से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - णाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे विरियायारे । आयारस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेजा वेढ, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। संक्षेप में आचार पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा - १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार । इस पाँच प्रकार के आचार का प्रतिपादक शास्त्र भी आचार कहा गया है। आचारांग की परीत (परिमित) सूत्रार्थ प्रदान रूप वाचनाएँ, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार, संख्यात * प्रतिपत्तियाँ, संख्यात वेष्टक, संख्यात श्लोक तथा संख्यात नियुक्तियाँ हैं। The description of conduct has been done in brief. It has been said of five types they are:-1. Knowledge conduct (Gyanachar), 2. Faith conduct (Darshnachar), 3. Character conduct (Charitrachar), 4. Penance conduct (Tapachar), 5. Potency conduct (Viryachar). The scripture in which all these five types of conducts are expounded are called 'Achar Sutra'. The texts in the limited form of Sutras of Acharang are as :- Sankhyat Upkaran, Sankhyat Anuyogdvar, Sankhyat Pratipalyan, Veshtak, Sankhyat couplets and Sankhyat Niryuktiyan. ५१४ - से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीइं उद्देसणकाला, पंचासीइं समुद्देसणकाला, अट्ठारस पदसहस्साईं, पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, [ अनंता गमा ] अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता, थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविजंति पण्णविनंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से त्तं आयारे ॥। गणि-पिटक के द्वादशांग में अंग की (स्थापना की) अपेक्षा से आचार प्रथम अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, और पच्चीस अध्ययन हैं। इसमें उद्देशन - काल व समुद्देशन काल पचासी -पचासी हैं। पद-गणना की अपेक्षा से आचारांग में अठारह हजार पद, संख्यात अक्षर और अनन्त गम हैं। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मा है अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म (ग्रहण) होते हैं, अत: उनके जानने रूप ज्ञान के द्वार भी अनन्त ही होते हैं। चूँकि वस्तु के धर्म अनन्त हैं, अतः पर्याय भी अनन्त हैं। त्रस जीव परीत यानि परिमित या सीमित हैं। स्थावर जीव अनन्त हैं । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी पदार्थ 编! शाश्वत या नित्य तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से पदार्थ कृत या अनित्य हैं, सर्व पदार्थ सूत्रों में निबद्ध यानि ग्रथित हैं और निकाचित हैं अर्थात् निर्युक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि से प्रतिष्ठित हैं। फ्र इस आचारांग में जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट भाव सामान्य रूप से कथित हैं, विशिष्ट रूप से प्ररूपित हैं, गणि-पिटक 252 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 Samvayang Sutra

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