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१८. माहिदे कप्पे देवारणं उक्को सेरगं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।
१६. बंभलोए कप्पे देवारणं जहण्णेरगं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।
२०. जे देवा समं समप्पमं महापमं पभासं भासुरं विमलं कंचरणकूड सकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेरणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।
२१. ते गं देवा सत्तहं श्रद्धमासा आरणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।
२२. तेसि गं देवारणं सतह वाससह - तेहि श्राहारट्ठे समुपज्जइ ।
२३. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सतह भवग्गणेहि सिज्झरसंति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंत करिस्सति ।
समवाय-मुक्त
१८. माहेन्द्र कल्प में देवों की उत्कृष्टतः मात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है ।
१९. ब्रह्मलोक कल्प में कुछेक देवों की
सात सागरोपम से अधिक स्थिति
प्रज्ञप्त है।
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२०. जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टत: सात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है ।
२१. वे देव सात अर्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं ।
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२२. उन देवों के सात हजार वर्ष में चाहार की इच्छा समुत्पन्न होती है ।
२३. कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो
सात भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे ।
समवाय-७