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दिव्वे कामभोगे रणेव सर्य कारणं सेवइ, नोवि अण्णं काएरणं सेवावेइ, काएवं सेवंतं पि अण्णं न समणुजारगाइ।
दिव्य /दैविक काम-भोगों का न तो स्वयं काया से सेवन करता है, न ही अन्य को फाया से सेवन कराता है और न काया से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है।
२. अरहतो रणं अरिटुनेमिस्स अट्ठारस समसाहस्सोमो उक्कोसिया समणसंपया होत्या।
२. अर्हत् अरिष्टनेमि की अठारह हजार साधुनों की उत्कृष्ट श्रमरण-सम्पदा थी।
३. समणेणं भगवया महावीरेणं
समरणारणं रिणग्गंधारणं सखुड्डयविअत्तारणं अट्ठारस ठाणा पण्णता । तं जहावयछक्कं कायछक्क
प्रकप्पो गिहिभायरएं। पलियंक निसिज्मा य,
सिगाणं सोभवज्जणं ॥
३. श्रमण भगवान् महावीर द्वारा स - द्रक-व्यक्त श्रमण निर्गन्यों के लिए प्रठारह स्थान प्रज्ञप्त हैं। जैसे किछह व्रत, छह काय, अफल्प, गृहिभाजन, पर्यक, निपया, स्नान, शोभा-वर्जन ।
४. पायारस्स णं भगवतो सचूलि
प्रागस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई।
४. भगवान की प्राचार-चूनिकर के
पठारह हजार पद प्राप्त हैं।
५. वंभीए णं लिवीए अद्यारसविहे
लेखविहारणे पण्णते, तं जहा--- १.बंभी, २. जवरणालिया, ३. दोसऊरिया, ४. सरोठ्ठिया, ५. सरसाहिया, ६. पहाराइया, ७. उच्चत्तरिया, ८. अक्सरपुट्टिया ६. भोगवइया, १०.वेणइया, ११. निण्हइया, १२. अंकलियो, १३. गणियलिवी, १४. गंधयलिवी, १५. प्रायंसलिवो, १६. माहेसरी, १७. दामिली, १८.पोलिरी।
५. ब्राह्मी लिपि के लेस-विधान अठारह
प्रकार के प्राप्त है। जैसे कि-- १. ब्राह्मी, २. यावनी, ३. दोपडपरिका, ४. सरोष्ट्रिका, ५. परमाविका, ६. महारातिना, ७. उन तरिका, ८. अक्षरपृष्ठिका, ६. मोगपतिका, १०. वैनतिका, ११.नि. विका, १२. अंकलिपि, १३. गणित लिपि, १४.गापर्वनिपि, १५. प्रादर्गलिपि, १६. माहेश्वरी. १७. दाविष्टी पौर १८. पोलिन्दी।
ममवार-१०