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जं जं गाहाहि भणियं तह चैव वण्णो
जो कथ्य हो, उनका वहां-वहां गाथाओं से कहना चाहिए और उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए।
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चउसही असुराणं, चउरासीइं च होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्नाणं, वायुकुमाराण छष्णति ॥
असुरकुमारों के चौसठ [लाख], नागकुमारों के चौरासी [लाख], सुपर्णकुमारों के बहत्तर [लाख] और वायुकुमार के छानवे [लाख] आवास हैं।
दीवदिसाउदहोणं, विज्जुकुमारिदरिणयमग्गीणं । छहंपि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥
दीप, दिशा, उदधि विद्युत, स्तनित और अग्नि-इन छह युगलों के छिहत्तर-छिहत्तर शत-सहस्र/लाख आवास हैं।
१२. केवइया णं भंते ! पुढवी
काइयावासा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा पुढवीकाइया वासा पण्णत्ता।
१२. भंते ! पृथ्वीकाय के आवास
कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! पृथ्वीकाय के प्रावास असंख्य प्रजप्त हैं।
१३. एवं जाव मणुस्सत्ति।
१३. इसी प्रकार मनुप्य तक के आवास
प्राप्त हैं ?
१४. केवइया णं मंते ! वाणमंतरा
वासा पण्णता? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सवाहल्लस उरि एग जोयरणसयं प्रोगाहेता हेठा वेगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अहसु जोषणएस, एत्य गं वारणमंतराणं देवाणं तिरियमसंसज्जा
१४. भंते ! वानमन्तर देवों के आवास कितने प्रजप्त हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नमय काण्ड के एक हजार योजन प्रमाण बाहल्य (मोटाई) से ऊपर एक सो योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से सो योजन का वर्जन कर मध्य के शेप आठ सौ योजन में वानमंतर देवों के असंख्य शतमहन्न/लाख तिरछे भौमेय नगरा
समवाय-मुतं
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समवाय-प्रकीर्ण