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ऋपभसेन, २१. दत्त, २२. वरदत्त, २३. धन्य, २४, बहुल ।
३. अपराजिय वीससेरणे,
वीसतिमे होइ उसमसेणे य। दिपणे वरदत्ते,
धन्ने वहुले य प्राणुपुटवीए॥ ४. एते विसुद्धलेसा, जिणवरभत्तीए पंजिलिउडा
उस काल और उस काल में इन विशुद्ध लेश्या वाले लोगों ने जिनवर-भक्ति से प्राञ्जलिपुट होकर, जिनवरों को प्रतिलाभित कियाआहार दिया।
तं कालं तं समयं, पडिलाभेई जिणवरिंदे ।।
६२. १. संवच्छरेण भिक्खा,
लद्धा उसमेण लोगणाहेण । सेसेहि बीयदिवसे, लद्धामो पढममिक्खायो । २. उसभस्स पढमभिक्खा,
खोयरसोभासि लोगणाहस्सा सेसाणं परमण्णं,
अमयरसरसोवमं आसि ॥ ३. सर्वसिपि जिरवाणं, जहियं लद्धामो पढमभिक्खाओ। तहियं वसुधाराओ, सरीरमेतीनो बुझानो॥
६२. लोकनाथ ऋपभ ने प्रथम भिक्षा
एक संवत्सर/वर्ष पश्चात् उपलब्ध की थी। शेप तीर्थङ्करों ने प्रथम भिक्षा दूसरे दिन उपलब्ध की थी। लोकनाथ ऋपभ की प्रथम भिक्षा इक्षुरस थी और शेष तीर्थङ्करों की अमृतरसतुल्य परमान्न खीर थी।
सभी जिनवरों को जहां प्रथम मिक्षा प्राप्त हुई, वहां शरीर-प्रमाण सुवर्णवृष्टि हुई।
६३. चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस
चैत्यवृक्ष थे, जैसे कि
६३. एतेसि णं चउवीसाए तित्थ-
गराणं चउवीसं चेइयरक्खा होत्था, तं जहा~ १. रणग्गोह - सत्तिवणे,
साले पियए पियंगु छत्ताहे। सिरिसे य गागरुक्खे, माली य पिलखुरुक्खे य॥ २. तेंदुग पाडल जंबू, पासोत्थे खलु तहेव दधिवण्ण।
१. न्यग्रोध, २. सप्तपर्ण, ३. शाल, ४. प्रियाल, ५. प्रियंगु, ६. छनाक, ७. शिरीष, ८. नागवृक्ष, ६. माली, १०.प्लक्ष, ११.तिदुक, १२. पाटल १३. जंबु, १४.अश्वत्थ, १५.दधिपर्ण, १६. नंदि, १७. तिलक, १८.
समवाय-सुतं
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समवाय प्रकीर्ण