Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय- सुत्तं [SAMAVAY-SUTTAM] Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय-सुत्तं महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, कलकत्ता Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्टूबर, १९६० प्रकाशक: प्राकृत भारती अकादमी ३८२६-यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-३०२ ००३ (राज.) श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ पो. मेवानगर-३४४ ०२५ जिला-बाड़मेर (राज.) श्री जितयणाधी फाउंडेशन ९-सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता-७०० ०६६ SAMAVAY-SUTTAM By MAHOPADHYAY मुद्रक : CHANDR-PRABH-SAGAR | हमलोग प्रिण्टर्स, जोधपुर - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगमवेत्ता महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागर जी सम्पादित-अनुवादित 'समवायसुत्तं' प्राकृत-भारती, पुष्प-७४ के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है। आगम-साहित्य जैनधर्म की निधि है। इसके कारण आध्यात्मिक वाङ्मय की अस्मिता अभिवद्धित हुई है। जैन-पागम-साहित्य को उसकी मौलिकताओं के साथ जनभोग्य सरस भाषा में प्रस्तुत करने की हमारी अभियोजना है । 'समवायसुत्तं' इस योजना की क्रियान्विति का अगला चरण है । 'समवाय-सुत्तं' जैन आगम-साहित्य का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें जैन धर्म के इतिहास के परिवेश में जिन सूत्रों एवं सन्दर्भो का आकलन हुआ है, उसकी उपयोगिता आज भी निर्विवाद है । इसके अनेक सूत्र वर्तमान अनुसन्धित्सुओं के लिए एक स्वस्थ दिशा-दर्शन हैं। ग्रन्थ के सम्पादक चन्द्रप्रभजी देश के सुप्रतिष्ठित प्रवचनकार हैं, चिन्तक है, लेखक हैं, कवि हैं । आगमों में उनकी मेधा एवं पकड़ तलस्पर्शी है । उनकी वैदुष्यपूर्ण प्रतिभा प्रस्तुत आगम में सर्वत्र प्रतिविम्वित हुई है। अनुवाद एवं भाषा-वैशिष्ट्य इतना सजीव एवं सटीक है कि ग्रन्थ की वोधगम्यता सहज, स्वाभाविक एवं प्रभावक वन गई है। मूल पाठ की विशुद्धता ग्रन्थ की अतिरिक्त विशेषता है। गरिणवर श्री महिमाप्रभसागरजी ने इस आगम-प्रकाशन-अभियान के लिए हमें उत्साहित किया, एतदर्थ हम उनके हृदय से आभारी हैं। पारसमल भंसाली अध्यक्ष श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पाव. तीर्थ, मेवानगर प्रकाशचन्द दफ्तरी सचिव श्री जितयशाश्री फाउण्डेशन कलकत्ता देवेन्द्रराज मेहता सचिव प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्वर आगम-सम्पदा अध्यात्म-पुरुषों की अभिव्यक्त अस्मिता है। युग-युग के मनीपी-चिन्तन आगमों में संकलित एवं संरक्षित हैं। धर्म एवं दर्शन तो इनकी आधार-भूमिका है, किन्तु जन-संस्कृति आगमों में जिस ढंग से आत्मसार हुई है, वह बेमिसाल है। आगम प्राचीन है, किन्तु वर्तमान के द्वार पर सदैव उसका स्वागत होता रहेगा। आगमों की रचना हुए कई शतक बीत गये, परन्तु ऐतिहासिक सन्दर्भो की अगवानी के लिए हमारी दस्तक युग-युग की देहरी पर है। 'समवाय-सुत्तं' मात्र आगम ही नहीं, अपितु इतिहास का एक बड़ा दस्तावेज भी है। इसमें हमारा प्राचीन गौरव और इतिहास सुरक्षित हुआ है । 'समवाय-सुत्त' आगम-क्रम में चौथा अंग-आगम होते हुए भी आगमों की समग्रता का प्रतिनिधि-ग्रन्थ है। आगम-सूत्रों का यह प्रास्ताविक भी है और उपसंहार भी। एक प्रकार से यह संग्रह-ग्रन्थ है, सन्दर्भ-कोष है, विज्ञप्ति-विधान है। इसके दस्तावेज में ऐसे अनेक सूत्र इन्द्राज हुए हैं, जिनसे अतीत के मोटे परदे उघड़ते हैं। कोष-शैली एवं संख्यात्मक तथ्य-प्रस्तुति 'स-सु' के व्यक्तित्व की पारदर्शिता है। ग्रन्थ का प्रारम्भ एकत्ववाची तथ्यों से हुआ है, पर समापन अनन्त की गोद में । इतिहास किलकारियां भर रहा है, तथ्य अंगड़ाईयाँ ले रहे है, 'स-सु' के वर्तमान धरातल पर। यह वह समृद्ध-कोष है, जिससे कई वैज्ञानिक सम्भावनाएं जन्म ले सकती हैं। यदि सृजन-धर्मी अनुशीलन किया जाए, तो अतीत की यह थाती वर्तमान के लिए विस्मयकारी रोशनी की धार साबित हो सकती है। भौतिकी, जैविकी एवं भौगोलिकी को उघाड़ने/निहारने के लिए 'स-सु' की वैज्ञानिकता एवं उपयोगिता विवाद-मुक्त है । जल, थल, नम की मोटी-मोटी परतों का 'स-सु' ने आखिर कितना बारीकी से उद्घाटन किया है। ऋषि-मुनि कहलाने वाले वैरागी लोगों Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वैज्ञानिक पहुँच एवं पकड़ कितनी गहरी-से-गहरी थी, 'स-सु' का हर पन्ना इसका प्रमाण-पत्र पेश करता है। प्रस्तुत प्रयास मेरी रुचि के अनुकूल है। तथ्यों को सामने लाना मेरा मौलिक उद्देश्य है। टिप्पणों के विवाद से ऊपर उठकर मौलिकता की निखालिसता को ही पेश किया है। मुझे प्रसन्नता है कि तत्कालीन लोकभाषा एवं राष्ट्रभाषा के बीच एक सेतु मुझसे सम्भावित हुआ। विश्वास है यह अप्रतिम विश्व-कोष धुघले अतीत को निहारने में पारदर्शी रोशनदान सिद्ध होगा । २ अक्टूबर, ६० --चन्द्रप्रभ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-निर्देश १४ पढमो समवायो/पहला समवाय आत्मा, अनात्मा, दण्ड, प्रदण्ड, क्रिया, प्रक्रिया, लोक, अलोक, धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, बन्ध मोक्ष, प्रास्रव, संवर, वेदना, निर्जरा; जम्बुद्वीप एवं अप्रतिष्ठान नरक का आयाम-विष्काभ, पालक-यान, सर्वार्थसिद्धविमान, आर्द्रा, चित्रा, स्वाति-नक्षत्र, स्थिति, आहार, श्वासोच्छ वास, सिद्धि । ३ वीश्रो समवानो/दूसरा समवाय ___दण्ड, राशि, बन्धन, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छवास, माहार, सिद्धि । तइओ समवानो/तीसरा समवाय दण्ड, गुप्ति, शल्य, गारव, विराधना, मृगशिर-पुण्य-ज्येष्ठा-अभिजितश्रवण-अश्विनी-भरणी नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि। ११ चरत्यो समवानो/चौथा समवाय कपाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बन्ध, अनुराधा-पूर्वापाढा-उत्तरापाढ़ा नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि । पंचमो समवायो/पांचवां समवाय क्रिया, महाव्रत, कामगुण, प्रास्रवद्वार, संवरद्वार, निर्जरास्थान, समिति, अस्तिकाय, रोहिणी-पुनर्वसु-हस्त-विशाखा-धनिष्ठा-नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि । छट्ठो समवायो/छठा समवाय लेश्या, जीवनिकाय, तप, छानस्थिक समुद्घात, अर्थावग्रह, कृत्तिका-आश्लेपा-नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । २१ सत्तमो समवानो/सातवां समवाय भयस्थान, समुद्घात, महावीर की अवगाहना, वर्षधर-पर्वत, वर्ष/क्षेत्र, कर्मप्रकृतिवेदन, मध्यनक्षत्र, पूर्व-दक्षिण पश्चिम-उत्तरद्वारिक नक्षत्र-निरूपण, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि । अट्ठमो समवायो/पाठवां समवाय __ मदस्थान, प्रवचनमाता, वाणमन्तरों के चैत्यवृक्ष, जंवू, सुदर्शन, कूटशाल्मली, जम्बूद्वीप की जगती, केवलिसमुद्धात, पार्श्व के गण-गणघर, नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । १६ २४ २६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ नवमो समवानो/नौवां समवाय ब्रह्मचर्य-गुप्तियाँ, अगुप्तियां, ब्रह्मचर्य/आचारांग के अध्ययन, पार्श्व की अवगाहना, नक्षत्र, तारा-संचार, जम्बूद्वीप में मत्स्यप्रवेश, विजयद्वार, वाणमन्तरों की सुधर्मा-सभा, दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि। दसमो समवायो/दसवां समवाय श्रमण-धर्म, समाधिस्थान, मन्दर-पर्वत, अरिष्टनेमि की अवगाहना, ज्ञानवृद्धिकारी नक्षत्र, कल्पवृक्ष, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि। ३४ एक्कारसमो समवानो/ग्यारहवां समवाय उपासकप्रतिमा, ज्योतिश्चक्र, महावीर के गणधर, मूलनक्षत्र, ग्रंवेयक, मंदर-पर्वत, स्थिति, श्वासोच्छ वास, पाहार, सिद्धि । बारसमो समवानो/बारहवां समवाय भिक्षुप्रतिमा, संभोग, कृतिकर्म, विजया-राजधानी, वलदेव-राम, मन्दर-चूलिका, जम्बूद्वीप-वेदिका, न्यूनतम रात्रि-दिवस, ईपत्प्राग्भार पृथ्वी, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि। . तेरसमो समवायो/तेरहवां समवाय क्रियास्थान, विमानप्रस्तट, जलचर-पंचेन्द्रिय जीवों की कुलकोटि, प्राणायुपूर्व के वस्तु, प्रयोग, सूर्यमण्डल का विस्तार, स्थिति, आहार, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, सिद्धि। चउद्दसमो समवानो/चौदहवां समवाय ___ भूतग्राम, पूर्व, जीवस्थान, भरत-ऐरवत-जीवा, चक्रवर्ती-रत्न, महानदी, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । ४८ पण्णरसमो समवायो/पन्द्रहवां समवाय . . परमाधामिक देव, नमि की अवगाहना, ध्रुवराहु नक्षत्र, पन्द्रह मुहुर्त के दिन-रात्रि, विद्यानुवाद-पूर्व के वस्तु, मनुष्य-प्रयोग, स्थिति, श्वासोच्छ - वास, आहार, सिद्धि । सोलसमो समवानो/सोलहवां समवाय गाथाषोडशक, कपाय, मन्दरनाम, पार्श्व की श्रमण-संपदा, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । पत्तरसमो समवायो/सतरहवां समवाय असंयम, संयम, मानुषोत्तर-पर्वत, आवासपर्वत, चारणगति, चमर ५२ ५६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂર ६८ ७४ का उत्पात-पर्वत, मरण, कर्मप्रकृतिवेदन, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि । अट्ठारसमो समवानो/अठारहवां समवाय ब्रह्मचर्य, अरिष्टनेमि की श्रमणसम्पदा, निर्ग्रन्थस्थान, आचारांग-पद, ब्राह्मीलिपि के लेखविधान, अस्तिनास्तिप्रवाद के वस्तु, धूमप्रभा पृथ्वी, उत्कृष्ट रात-दिन, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । एगरणवीसमो समवानो/उन्नीसवां समवाय ज्ञाता-अध्ययन, जम्बूद्वीप में सूर्य, शुक्र महाग्रह, जम्बूद्वीप, तीर्थकरों का अगारवास, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । वीसइमो समवानो/बीसवां समवाय असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत की अवगाहना, धनोदधि का वाहल्य, प्राणत देवेन्द्र के सामानिक देव, कर्मस्थिति, प्रत्याख्यान-पूर्व के वस्तु, कालचक्र, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । एक्कवीसइमो समवानो/इक्कीसवां समवाय शवल-दोप, कर्मप्रकृति, पांचवें-छठे आरे का कालप्रमाण, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि । बावीसइमो समवानो/वाईसवां समवाय परीपह, दृष्टिवाद, पुद्गल-परिणाम, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । तेवीसइमो समवानो/तेईसवां समवाय __ सूत्रकृतांग के अध्ययन, तेईस तीर्थकरों का केवलज्ञान, पूर्वभव में एकादशांगी, स्थिति, श्वासोच्छ वास, आहार, सिद्धि । चउन्वीसइमो समवानो/चौबीसवां समवाय देवाधिदेव क्षुल्लहिमवंत-शिखरी-जीवा, इन्द्र-सहित देवस्थान, उत्तरायण सूर्य, गंगा-सिन्धु, रक्तारक्तवती, महानदी, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि । ८४ पण्णवीसइमो समवानो/पच्चीसवां समवाय . पंच यामों की भावनाएँ, मल्लि की अवगाहना, दीर्घवैताढ्य पर्वत, दूसरी पृथ्वी के नरकावास, प्राचारांग के अध्ययन, मिथ्याष्टि-विकलेन्द्रिय का कर्मप्रकृतिबंध, गंगा-सिन्धु, रक्ता-रक्तवती महानदी, लोकबिन्दुसार के , वस्तु, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि । ११ ८७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवीसइमो समवाप्रो / छब्बीसवां समवाय दशाकल्प-व्यवहार के उद्देशनकाल, कर्मप्रकृतिसत्ता, स्थिति, श्वासो - च्छवास, आहार, सिद्धि | सत्तावीसइमो समवान / सत्ताईसवां समवाय अनगार- गुरण, नक्षत्र - व्यवहार, नक्षत्रमास, सौधर्म - ईशान कल्प की पृथ्वी का वाहत्य, कर्मप्रकृति, सूर्य का संचार, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि । अट्ठावीसइमो समवाप्रो / अट्ठाईसवां समवाय आचारप्रकल्प, मोहकर्म की सत्ता, प्राभिनिवोधिक ज्ञान, ईशान कल्प मे विमानों की संख्या, कर्म प्रकृतिवन्ध, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि | गणतीसइमो समवा / उनत्तीसवां समवाय पापश्रुतप्रसंग, आषाढ़ आदि महिनों में रात-दिन की संख्या, देवों में उत्पत्ति, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि । तीसइमो समवाश्रो/ तीसवां समवाय मोहनीय-स्थान, मंडितपुत्र की श्रमणपर्याय, तीस मुहूतों के तीस नाम, अर जिन की अवगाहना, सहस्रार के सामानिक देव, पार्श्व का गृहवास, महावीर का गृहवास, रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि | १ तीर्थकरों के अतिशय चक्रवर्ती- विजय, चमरेन्द्र के भवनावास, नरकावास | ६३ १२ ६ १०१ एक्कतीसइमो समवा / इकतीसवां समवाय सिद्धों के प्रादिगुण, मंदरपर्वत, सूर्य का संचार, स्थिति, श्वासो - च्छवास, आहार, सिद्धि | १११ १०४ बत्तीसइमो समवाप्रो / बत्तीसवां समवाय योगसग्रह, देवेन्द्र, कुन्थु के केवली, सौधर्म- कल्प में विमान, रेवती नक्षत्र के तारे, नाट्य-भेद, स्थिति, श्वासोच्छ् वास, आहार, सिद्धि | तेत्तीसइमो समवाओ / तेतीसवां समवाय ११४ आसातना, चमरेन्द्र के भौम, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि 1 चोत्तीसइमो समवाओ / चौत्तीसवां समवाय ११७ १२४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पणतीसइमो समवानो/पैतीसवां समवाय सत्यवचन के अतिशय, जिन कुन्थु, वासुदेव दत्त, बलदेव नन्दन की अवगाहना, माणवक चैत्यस्तंभ, नरकावाससंख्या। १२८ छत्तीसइमो समवायो/छत्तीसवां समवाय ____उत्तराध्ययन, चमरेन्द्र की सुधर्मा-सभा, महावीर की प्रायिकाएँ, सूर्य की पौरुषी-छाया। सत्ततीसइमो समवानो/संतीसवां समवाय ___ कुन्यु के गणधर, हैमवत हैरण्यक की जीवा, विजयादि विमानों के प्राकार, क्षुद्रिका विमान-प्रविभक्ति के उद्देशनकाल, सूर्य की छाया। १३० प्रहत्तीसइमो समवायो/अड़तीसवां समवाय पार्श्व की प्रायिकाएँ, हैमवत-ऐरण्यवत की जीवाओं का धनुःपृष्ठ, मेरु के दूसरे काण्ड की ऊँचाई, विमान-प्रविभक्ति के उद्देशनकाल । १३१ एगणचत्तालीसहमो समवायो/उनतालीसवां समवाय नेमि के अवधिज्ञानी, नरकावास, कर्मप्रकृतियाँ । पत्तालीसइमो समवानो/चालीसवां समवाय अरिष्टनेमि की प्रायिकाएँ, मंदरचूलिका, भूतानन्द के भवनावास, विमान-प्रविभक्ति के तृतीय वर्ग के उद्देशनकाल, सूर्य की छाया, महाशुक्रकल्प के विमानावास । १३३ एक्कचत्तालीसइमो समवानो/इकतालीसा समवाय नमि जिन की आर्यिकाएं, नरकावास, महाविमान-प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग के उद्देशनकाल। बायालोसइमो समवानो/बयालीसवां समवाय महावीर की श्रामण्यपर्याय, आवासपर्वतों का अन्तर, कालोद समुद्र में चन्द्र-सूर्य, भुजपरिसों की स्थिति, नामकर्म की प्रकृतियाँ, लवणसमुद्र की वेला, विमान-प्रविभक्ति के द्वितीय वर्ग के उद्देशनकाल, पांचवें-छठे आरे का कालपरिमारण । तेयालीसइमो समवानो/तेयालीसवां समवाय कर्मविपाक अध्ययन, नरकावास, धर्म-जिन की अवगाहना, मंदरपर्वत का अन्तर, नक्षत्र, महाविमान-प्रविभक्ति के पंचम वर्ग के उद्देशनकाल । १३७ १३४ १६४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ चोयालीसइमो समवानो! चौवालीसवां समवाय ऋपिभापित के अध्ययन, विमल के पुरुपयुग, घरण के भवनावास, महत्ती विमान-प्रविभक्ति के उद्देशनकाल । १३८ पणयालीसइमो समवानो/पंतालीसवां समवाय समयक्षेत्र, मीमांतक नरक का आयाम-विष्कम्भ, धर्म की ऊँचाई, मन्दर का अन्तर, नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग, महती विमान-प्रविभक्ति के उद्देशन-काल । छायालीसइमो समवानो/छियालीसवां समवाय दृष्टिवाद के मातृकापद, प्रभंजनेन्द्र के भवनावाम । सत्तचालीसइमो समवानो/संतालीसवां समवाय सूर्य-दर्शन, अग्निभूति का गृह्वास । अडयालीसइमो समवानो/अड़तालीसवां समवाय चक्रवर्ती के पत्तन, धर्मजिन के गण और गणवर, सूर्यमण्डल का विस्तार । एगणपण्णसइमो समवायो/उनचासवां समवाय ___ भिक्षुप्रतिमा, देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्य, त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति । पण्णासइमो समवायो/पचासवां समवाय मुनिसुव्रत की आर्याएँ, दीर्घवैताढ्यों का विप्कंभ, लान्तककल्प के विमानावास, तिमिस्रखण्डप्रपात गुफाओं की लम्बाई, कांचनक पर्वतों का विस्तार । - १४५ एगपण्णासइमो समवायो/इक्यावनवां समवाय आचारांग-प्रथम श्रुतस्कन्ध के उद्देशनकाल, चमरेन्द्र की सुधर्मा-सभा, सुप्रभ वलदेव का आयुप्य, उत्तरकर्मप्रकृतियाँ।. . - १४६ बावण्णइमो समवायो/वावनवां समवाय ।। ___मोहनीय-कर्म के नाम, गोस्तूभ आदि पर्वतों का अन्तर, कर्मप्रकृतियां, सौधर्म-सनत्कुमार-माहेन्द्र के विमानावास। . . . . . १४७ तेवण्णईमो समवानो/तिरपनवां समवाय देवकुरु आदि की जीवाएँ, महावीर के श्रमणों का अनुत्तरविमानों में जन्म, संमूछिम उरपरिसपों की उत्कृप्ट स्थिति । :: . .१४६ १४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवण्णइमो समवाश्री / चौपनवां समवाय महापुरुषों का जन्म, श्ररिष्टनेमि की छद्मस्थपर्याय, महावीर द्वारा - एक दिन में चौपन व्याख्यान, श्रनन्त-जिन के गरण- गणधर । पणपण्णइमो समवाश्रो / पचपनवां समवाय मल्लि अर्हत् का आयुष्य, मन्दर, विजयादि द्वारों का अन्तर, महावीर द्वारा पुण्य-पापविपाकदर्शक अध्ययनों का प्रतिपादन, नरकावास, कर्म प्रकृतियाँ | छप्पणइमो समवाओ / छप्पनवां समवाय नक्षत्रयोग, विमलजिन के गण और गणधर । श्रावणइमो समवाश्री / श्रट्ठावनवां समवाय नरकावास, कर्मप्रकृतियाँ, गोस्तूभ और वडवामुख महापाताल श्रादि का अन्तर । सत्तावण्णइमो समवाश्रो / सत्तावनवां समवाय तीन गणपिटक के अध्ययन, गोस्तूभ पर्वत और महापाताल का अन्तर, मल्लि के मनः पर्यवज्ञानी, महाहिमवन्त और रुक्मि पर्वतों की जीवा का धनुःपृष्ठ | १५३ एसट्टिम समवा / इकसठवां समचाय ऋतुमास, मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड, चन्द्रमण्डल | १५० गुणसमोसमवाप्रो / उनसठवां समवाय चन्द्रसंवत्सर, संभव जिन का गृहवास, मल्लि जिन के अवधिज्ञानी । १५५ बावट्टमो समचाओ / वासठवां समवाय पंचसांवत्सरिक युग में पूर्णिमाएँ - श्रमावस्याएँ, वासुपूज्य के गरणगणधर, चन्द्रकलाओं का विकास -हास, सोधर्म - ईशान कल्प के विमानावास, वैमानिक विमानप्रस्तट । १५१ सो समान / साठवां समवाय सूर्य की मण्डलपूति, लवरणसमुद्र का अग्रोदक, विमल की प्रवगाहना, चीन्द्र और ब्रह्म देवेन्द्र के सामानिक देव, सोधर्म-ईशान कल्प के विमानावास | १५६ तेवट्टिमोसमवाप्रो / तिरसठवां समवाय ऋषभ का महाराज-काल, हरिवास- रम्यक् वास के मनुष्यों का यौवन, निपध- नीलवन्त पर्वत पर सूर्योदय । १५२ १५ १५४ १५७ १५८ १५६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसटिमो समवायो/चौसठवां समवाय अप्टाप्टमिका भिक्षुप्रतिमा, असुरकुमारावास, दधिमुख पर्वत, विमानावास । पणसहिमो समवायो/पैंसठवां समवाय जम्बूद्वीप में सूर्यमण्डल, मार्यपुत्र का गृहवास, सौधर्मावतंसक विमान के भवन । छावटिमो समवानो/छासठवां समवाय मनुष्यक्षेत्र में चन्द्र-सूर्य, श्रेयांस के गण और गणघर, प्राभिनिवोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति । १६२ सत्तसट्ठिमो समवानो/सड़सठवां समवाय ___नक्षत्रमास, हैमवत-ऐरण्यवत की भुजाएँ, मंदर-पर्वत, नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ । १६३ अट्ठसठिमो समवानो/अड़सठवां समवाय घातकीखण्ड में विजय, राजधानियाँ, तीर्थकर, बलदेव, वासुदेव, विमल की श्रमणसम्पदा । एगूणसत्तरिमो समवानो/उनहत्तरवां समवाय समयक्षेत्र में वर्ष और वर्षधर पर्वत, मंदर पर्वत का अन्तर, कर्मप्रकृतियाँ । सत्तरिमो समवायो/सत्तरवां समवाय ___ महावीर का वर्षावास, पार्श्व की श्रमण-पर्याय, वासुपूज्य की अवगाहना, मोहनीय कर्म की स्थिति, माहेन्द्र के सामानिक देव । १६६ एक्कसत्तरिमो समवानो/इकहत्तरवां समवाय चन्द्रमा का अयन-परिवर्तन, वीर्यप्रवाद पूर्व के प्राभृत, अजित का गृहवासकाल, सगर का गृहवासकाल और श्रामण्य । वावत्तरिमो समवानो/बहत्तरवां समवाय सुपर्णकुमारों के आवास, लवणसमुद्र की वेला का धारण, महावीर का आयुष्य, आभ्यन्तर पुष्कराध में चन्द्र-सूर्य, बहत्तर कलाएँ, खेचरों की स्थिति । १६८ तेवत्तरिमो समवानो/तिहत्तरवां समवाय हरिवास-रम्यकवास की जीवाएँ, विजय वलदेव की सिद्धि । १७१ १६५ १६७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चोवत्तरिमो समवानो/चौहत्तरवां समवाय अग्निभूति की आयु, सीतोदा तथा सीता महानदी, नरकावास। १७२ पण्णतरिमो समवाओ/पचहत्तरवां समवाय सुविधि के केवली, शीतल और शान्तिनाथ का गृहवास । १७३ छावत्तरिमो समवानो/छिहत्तरवां समवाय विद्युत्कुमार आदि भवनपतियों के आवास । सत्तत्तरिमो समवानो/सतहत्तरवां समवाय भरत चक्रवर्ती, अंगवंश के राजाओं की प्रव्रज्या, गर्दतोय तुषित लोकान्तिकों का परिवार, मुहूर्त-परिमाण । १७५ अट्ठसत्तरिमो समवायो/अठत्तरवां समवाय वैश्रमण लोकपाल, स्थविर अकंपित, सूर्य-संचार से दिन रात्रि के विकास-ह्रास का नियम । १७६ एगणासीइमो समवानो/उन्यासिवां समवाय रत्नप्रभा पृथ्वी से वलयामुख पाताल तथा अन्य पातालों का अन्तर, छठी पृथ्वी और घनोदधि का अन्तर, जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर । असीइइमो समवायो/अस्सिवां समवाय श्रेयांस, त्रिपृष्ठ, अचल की अवगाहना, त्रिपृष्ठ वासुदेव का राजकाल, अप-बहुल काण्ड की मोटाई, ईशानेन्द्र के सामानिक देव, जम्बूद्वीप में प्रथम मण्डल में सूर्योदय । एक्कासीइइमो समवानो/इक्यासिवां समवाय भिक्षुप्रतिमा, कुन्थु जिन के मनःपर्यवज्ञानी, व्याख्यानज्ञप्ति के महायुग्मशत । १६९ बासीतिइमो समवायो/वयासिवां समवाय सूर्य-सचार, महावीर का गर्भापहरण, महाहिमवन्त एवं रुक्मि पर्वत के सौगंधिक काण्ड का अन्तर । तेयासिइइमो समवानो/तिरासिवां समवाय महावीर का गर्भापहार, शीतल जिन के गण और गणघर, मंडितपुत्र का आयुष्य, ऋषभ का गृहवासकाल, भरत राजा का गृहस्थकाल । १८१ चउरासिइइमो समवानो/चौरासिवां समवाय नरकावास, ऋषभ, भरत, वाहुबली, ब्राह्मी, सुन्दरी, श्रेयांस की आयु, १७७ १७८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . त्रिपृष्ठ वासुदेव का नरक में उत्पाद, शक्र के सामानिक देव, जम्बूद्वीप के बहिर्वर्ती मंदरों और अंजनक पर्वतों की ऊँचाई, हरिवर्ष एवं रम्यक वर्ष की . जीवाओं के धनुःपृष्ठ का परिक्षेप, पंकबहुल काण्ड के चरमान्तों को अन्तर व्याख्याप्रज्ञप्ति के पद, नागकुमारावास, प्रकीर्णक, जीवयोनियां; पूर्वादि संख्याओं का गुणाकार, ऋषभ की श्रमणसम्पदा, विमानावास !" १६२ पंचासीइइमो समवायो/पचासिवां समवाय . ...... आचारांग के उद्देशनकाल, धातकीखंड के मन्दर रुंचक द्वीप के माण्डलिक पर्वतों की ऊंचाई, नन्दनवन । छलसीइइमो समवायो/छियासिवां समवाय .. ...: सुविधि जिन के गण और गणधर, सुपार्श्व जिन की वादी-संम्पदा, दूसरी पृथ्वी से घनोदधि का अन्तर। . .. ... ...१८६ सत्तासीइइमो समवानो/सत्तासिवां समवाय · . मन्दर पर्वत, कर्मप्रकृति, महाहिमवन्त पर्वत एवं सौगंधिककूट : . का अन्तर । १८७ अट्ठासीइइमो समवायो/अठासिवां समवाय सूर्य-चन्द्र के महाग्रह, दृष्टिवाद के सूत्र, मन्दर एवं. गोस्तुभ पर्वत का . अन्तर, सूर्यसंचार से दिवस-रात्रिक्षेत्र का विकास-हास । १८६ एगूणणउइइमो समवाओ/नवासिवां समवाय ___ऋषभ का सिद्धिकाल, महावीर का निर्वाणकाल, हरिषेण चक्रवर्ती का राजकाल, तीर्थकर शान्ति की आर्याएँ । गउइइमो समवायो/नब्बेवा समवाय .. . .. शीतलनाथ की अवगाहना, स्वयंभू का विजयकाल, वैताढ्य-पर्वत .. और सौगंधिक काण्ड का अन्तर । एक्काणउइइमो समवायो/इक्यानवेवां समवाय .. : : परवैयावृत्यकर्म, कालोद समुद्र की परिधि, कुन्थु के अवधिज्ञानी, कर्मप्रकृतियाँ। वाणउइइमो समवानो बानवेवां समवाय ... ___ प्रतिमा, इन्द्रभूति का प्रायुष्य, मंदर और गौस्तुभ पर्वत का अन्तरः १६५ तेणउइइमो समवानो/तिराहनवेषां समवाय ___ चन्द्रप्रभ जिन के गण और गणधर, शान्ति के चतुर्दशपूर्वी साधुओं की संख्या, सूर्यसंचार । ... Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ १६८ २०० चउणउइइमो समवायो/चौरानवेवां समवाय निपध-नीलवन्त पर्वतों की जीवाएँ, अजितनाथ के अवधिज्ञानियों की संख्या । पंचाणउइइमो समवाओ/पंचानवेवां समवाय सुपार्श्व के गण और गणधर, चार महापाताल, लवण-समुद्र के पावों की गहराई और ऊँचाई, कुन्थु एवं मौर्यपुत्र की आयु । छण्णउइइमो समवानो/छियानवेवां समवाय चक्रवर्ती के ग्राम, वायुकुमारों के आवास, व्यावहारिक दंड, धनुष, नालिका, युग, अक्ष और मूसल का माप, सूर्यसंचार । १६४. सत्ताणउइइमो समवानो/सत्तानवेवां समवाय - मन्दर और गोस्तुभ पर्वत का अन्तर, उत्तर कर्मप्रकृतियाँ, हरिषेण चक्रवर्ती का गृहवासकाल । अढाणउइइमो समवायो/अठानवेवां समवाय __ नन्दनवन-पाण्डुकवन का अन्तर, मन्दर-गोस्तूभ पर्वत का अन्तर, दक्षिण भरत का धनुपृष्ठ, सूर्यसंचार, रेवती आदि नक्षत्रों के तारे। २०१ णवणउइइमो समवानो/निन्यानवेवां समवाय ___मंदर पर्वत की ऊँचाई, नन्दन वन के पूर्वी-पश्चिमी तथा दक्षिण उत्तरी चरमान्त का अन्तर, सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ, रत्नप्रभा पृथ्वी और वानमन्तरों के प्रावासों का अन्तर । २०३ सततमो समवानो/सौवां समवाय दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा, शतभिपक् नक्षत्र के तारे, सुविधि-पुष्पदन्त । की अवगाहना, पार्श्व का आयुष्य, विभिन्न पर्वतों की ऊँचाई। २०५ सतोत्तर-समवानो/शतोत्तर-समवाय चन्द्रप्रभ की ऊँचाई, पारण-कल्प के विमान, सुपार्श्व, महाहिमवन्तरुक्मी-पर्वत की ऊँचाई, कंचन पर्वत, पद्मप्रभ, असुरकुमारों के प्रासाद, सुमति, नेमि का कुमारावास, वैमानिक के प्राकार, महावीर के चौदहपूर्वी, पार्श्व के श्रमण, अभिनन्दन, सम्भव, निपध-नीलवान-पर्वत की ऊँचाई, महावीर के वादी, अजित, सगर, वर्षधरकूट, ऋषभ, भरत, हरि-हरिस्सह, नन्दनकूट, सौधर्म-ईशान-कल्प, सनत्, माहेन्द्र कल्प के विमान, पाश्व के वादी, अभिचन्द्र, ब्रह्मलान्तक कल्प के विमान, महावीर के केवली, वैक्रिय, नेमि का केवलि-पर्याय, वानमन्तर के भौमेय विहार, महावीर के अनुत्तरो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपातिक, सूर्य-संचार, नेमि के वादी, आनत आदि विमान, विमलवाहन, ग्रैवेयक विमान, हरिकूट, यमक-पर्वत, नेमि-आयु, पार्श्व के केवली, अन्तेवासी, पद्मद्रह, अनुत्तरोपपातिक विमान, पार्श्व के वैक्रिय, महापद्मद्रह, तिगिच्छदह, सहस्रार-कल्प के विमान, हरिवर्प, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र विस्तार, पार्श्व की श्राविकाएं, धातकोखण्ड, भरत, माहेन्द्र कल्प, अजित के अवधिनानी, पुरुपसिंह, ऋषभ से महावीर का अन्तर । २०७ दुवालसंग-समवानो/द्वादशांग-समवाय __ द्वादशांग-नाम, आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत, दृष्टिवाद, गणिपिटक की विराधना, आराधना का फल, गरिणपिटक की त्रैकालिक नित्यता। पइण्ण-समवायो/प्रकीर्ण-समवाय राशि, पर्याप्तापर्याप्त, आवास, स्थिति, शरीर-अवधि, वेदना, लेश्या, आहार, आयुवन्ध, उत्पाद-उद्वर्तना-विरह, आकर्ष, संहनन-संस्थान, वेद, समवसरण, कुलकर, तीर्थकर, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, ऐरवततीर्थकर, भावी तीर्थकर, भावी चक्रवर्ती, भावी वलदेव-वासुदेव, ऐरवत क्षेत्र के भावी तीर्थकर, चक्रवर्ती बलदेव-वासुदेव । २५७ २१९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय - सुत्तं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो समवायो पहला समवाय १. सुयं मे पाउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं १. सुना है मैंने अायुष्मन् ! उन भगवान् द्वारा इस प्रकार कथित है २. इह खलु समणेणं भगवया महा वीरेणं प्राइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससोहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिरणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएरणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेरणं धम्मसारहिरणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरपाणदंसरगधरेणं वियदृच्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिणेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेरणं सवण्णुरगा सव्वदरिसिणा सिवमयलमख्यमणंत मक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गरिणपिडगे पण्णते, तं जहापायारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपण्णत्ती नायधम्मकहाओ उवासगदसानो अंतगडदसाम्रो अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुए दिदिवाए। २. आदिकर, तीर्थकर, स्वयं-सम्वुद्ध, पुरुपोत्तम, पुरुष-सिंह, पुरुपवरपुण्डरीक / पुरुप-कमल, पुरुष-वरगन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोक हृदय, लोक-प्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मदेशक, धर्मनायक, धर्म-सारथी, धर्म-वरचातुरन्त/चतुर्दिक-चक्रवर्ती, अप्रतिहत/शाश्वत-श्रेष्ठ-ज्ञान-दर्शन-धारक, विवृत्तछम/निर्दोष, जिन, ज्ञापक, तीर्ण, तारक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचका, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, अरुज | रोगमुक्त, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध / व्यवधान-रहित, अपुनरावर्तक/पुनर्जन्म-रहित, सिद्धिगति नामक स्थान सम्प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान् महावीर द्वारा यह द्वादशांग गणिपिटक प्रज्ञप्त है । जैसे किआचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञाता-धर्मकथा, उपासक-दशा, अन्तकृत्-दशा, अनुत्तरोपपाति-दशा, प्रश्न-व्याकरण, विपाक-श्रुत और दृष्टिवाद । السلع समवाय-१ समवाय-सुत्तं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३. तत्थ रणं जेसे चउत्थे अंगे समवाएत्ति माहिते, तस्स एं अयमठे, तं जहा ३. इनमें जो चौथा अंग है, वह समवाय कथित है। उसका यह अर्थ है । जैसे कि ४. एगे पाया। ४. आत्मा एक है। ५. एगे अणाया। ६. एगे दंडे । ७. एगे अदंडे । ५. अनात्मा एक है। ६. दण्ड/हिंसा एक है। ७. अदण्ड/अहिंसा एक है। ८. क्रिया एक है। ६. अक्रिया एक है। १०. लोक एक है। ८. एगा किरिया। ६. एगा प्रकिरिना। १०. एगे लोए। ११. एगे अलोए । १२. एगे धम्मे। १३. एगे अघम्मे। १४. एगे पुण्णे। १५. एगे पावे। १६. एगे बंधे। १७. एगे मोक्खे। १८. एगे पासवे। " १९. एगे संवरे। २०. एगा वेयरणा। ११. अलोक एक. है । १२. धर्म एक है। १३. अधर्म एक है । १४. पुण्य एक है। १५. पाप एक है। १६. बन्ध एक है । १७. मोक्ष एक है। १८. आस्रव/कर्म-स्रोत एक है। १६. संवर/कर्म-अवरोध एक है। २०. वेदना एक है। २१. निर्जरा/कर्म-क्षय एक है। - २१. एगा रिणज्जरा। समवाय-सुत्तं समवाय-१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयरणसय- सहस्सं पायामविक्खंभेरणं पण्यते । २२. जम्बुद्वीप-द्वीप एक शत-सहस्र एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भक/ विस्तृत प्रज्ञप्त है। २३. अप्पइद्वारणे नरए एगं जोयरण- सयसहस्सं पायामविक्खंभेरणं पण्णत्ते । २३. अप्रतिष्ठान नरक एक शत-सहस्र/ एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भक/ विस्तृत प्रज्ञप्त है। २४. पालए जाणविमारणे एगं जोयरण- सयसहस्सं पायामविक्खंभेणं पण्णत्ते। २४. पालक-यान विमान एक शत-सहस्र/ एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भक/ विस्तृत प्रज्ञप्त है। २५. सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं जोयरणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं पण्णत्ते। २५. सर्वार्थसिद्ध महाविमान एक शत सहस्र एक लाख योजन आयामविष्कम्भक/विस्तृत प्रजप्त है । २६. अदानक्खत्ते एगतारे पण्णते। २६. आर्द्रा नक्षत्र का एक तारा प्रज्ञप्त है । २७. चित्तानक्खत्ते एगतारे पण्णते। २७. चित्रा नक्षत्र का एक तारा प्रज्ञप्त है। २८. सातिनक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते । २८. स्वाति नक्षत्र का एक तारा प्रज्ञप्त है । २६. इमीसे णं रयरणप्पहाए पुढवीए प्रत्गइयारणं नेरइयाणं एर्ग पलिपोवमं ठिई पण्णत्ता। २६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की एक पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ३०. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयारणं उक्कोसेरणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता। ३०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की उत्कृष्टतः एक सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। ३१. दोच्चाए णं पुढवीए नेरइयारणं जहण्णणं एगं पलिनोवमं ठिई पण्णत्ता। ३१. दूसरी [ शर्कराप्रभा] पृथ्वी पर नैरयिकों की जघन्यत:/न्यूनतः एक सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। समवाय-सुत्तं ५ समवाय-१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. असुरकुमाराणं देवारणं प्रत्येगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ३३. अतुरकुमाराणं देवागं उक्कोसेरगं एवं साहियं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ३४. असुरकुमारिदवज्जियाणं भोमिज्जारणं देवारणं प्रत्येगइया एगं पलिवमं ठिई पण्णत्ता । ३५. असंखेज्जवासाज्यसण्णिपचदियतिरिक्खजोगिया प्रत्येगइ यारणं एगं पलिश्रोवमं ठिई पण्णत्ता । ३६. श्रसंखेज्जवासाउयगन्भववकंतिय समिया प्रत्येगइयार एगं पलिप्रोवमं ठिई पण्णत्ता । ३७. वारणमंतराणं देवारणं उक्कोसेणं एवं पलिश्रवणं ठिई पण्णत्ता । देवारणं उक्कोसेरगं एगं पलिश्रोवमं वाससयसहस्समभ हियं ठिई पण्णत्ता । ३८. जोइसियारणं ३६. सोहम्मे कप्पे देवागं जहण्णेणं एवं पविमं ठिई पण्णत्ता । ४०. सोहम्मे कप्पे देवारणं श्रत्येगइयारणं एवं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । समवाय-सुतं ६ ३२. कुछेक ग्रमुरकुमार देवों की एक पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त 1 ३३. अमुरकुमार देवों को उत्कृष्टतः स्थिति एक सागरोपम से अधिक प्रज्ञप्त है । ३४. सुरकुमारेन्द्र को छोड़कर कुछेक भौमिज्ज / भवनवामी देवों को एक पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त ' ३५. कुछेक असंख्य वर्षायु संजी / समनस्क पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीवों की एक पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ३६. कुछेक असंख्य वर्षायु गर्यो पक्रान्तिक गर्भज संजी / समनस्क मनुष्यों की एक पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ३७. वान-व्यन्तर देवों की उत्कृष्टतः एक पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ३८. ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्टतः एक पत्यापम से एक शत- सहस्र / एक लाख वर्प अधिक प्रज्ञप्त है । ३६. सौधर्मकल्प देवों की जघन्यतः / न्यूनतः एक पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ४०. कुछेक सौधर्मकल्प देवों की एक सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । समवाय-१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ईसार कप्पे देवारणं जहणणं साइरेगं एवं पलिनवमं ठिई पण्णत्ता । ४२. ईसारखे कप्पे देवाणं प्रत्येगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ४३. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणु माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ४४. ते णं देवा एगस्स श्रद्धमासस्स श्रारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । ४५. तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुपज्जइ । ४६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एगेणं भवग्गहणणं सिज्भिस्संति बुज्भिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सन्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-सुतं ४१. ईशानकल्प देवों की जघन्यतः / न्यूनतः स्थिति एक पल्योपम से अधिक प्रज्ञ ४२. कुछेक ईशानकल्प देवों की एक सागरोपम स्थिति प्रजप्त है । ४३. जो देव सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुषोत्तर और लोकहित विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः एक सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ४४. वे देव एक अर्धमास / पक्ष में आन / हार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । ४५. उन देवों के एक हजार वर्ष में ग्राहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । ४६. कुछेक भवसिद्धिक जीव है, जो एक भवग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- १ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीनो समवायो दूसरा समवाय १. दो दंडा पण्पत्ता, तं जहा- __ अहादंडे चेव, अरणहादंडे चेव । १. दण्ड/हिंसा दो प्रजप्त हैं । जैसे किअर्थदण्ड/प्रयोजनभूत हिंसा और अनर्थदण्ड/निप्प्रयोजन हिंसा । २. दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहाजीवरासी चेव, अजीवरासो चेव। २. राशि दो प्रशप्त हैं । जैसे कि___ जीव-राशि और अजीव-राशि । ३. दुविहे बंधणे पण्णते, तं जहा रागवंधणे चेव, दोसबंधणे चेव । ३. वन्धन द्विविध प्राप्त हैं। जैसे कि राग-बन्धन और द्वेष-बन्धन । ४. पुन्वाफग्गुणीनक्खत्ते पण्णत्ते। दुतारे ४. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे प्रज्ञप्त ५. उत्तराफग्गुणीनक्खत्ते पण्णत्ते। दुतारे ५. उत्तराफाल्गुनी-नक्षत्र के दो तारे प्रज्ञप्त हैं। दुतारे ६. पुन्वामद्दवयानक्खत्ते पण्णते। ६. पूर्वाभाद्रपदा-नक्षत्र के दो तारे प्रजप्त हैं। ७. उत्तरानद्दवयानक्खत्ते पण्णते। दुतारे ७. उत्तराभाद्रपदा-नक्षत्र के दो तारे प्रज्ञप्त हैं। ८. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए अत्यगइयाणं नेरइयाणं दो पलिमोवमाई ठिई पण्णता।। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की दो पल्योपम स्थिति प्राप्त है। ६. दुच्चाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. दूसरी [ शर्कराप्रभा] पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की दो सागरोपम स्थिति प्राप्त है। नमवाय-सुत्तं समवाय-२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं दो पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता । ११. प्रसुरिदवज्जियाणं मोमिज्जाणं देवारणं उक्कोसेणं देसूरणाई दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १२. असंखेज्जवासाउयसणि-पंचेंदियतिरिक्खजोणिप्राणं प्रत्येगइयाणं दो पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । १३. श्रसंखेज्जवासाज्यगब्भववकंतिय समस्साणं प्रत्येगइयाणं दो पलिश्रोवमाहं ठिई पण्णत्ता । १४. सोहम्मे कप्पे प्रत्येगइयाणं देवार्ण दो पलिश्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १५. ईसाणे कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं दो पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णसा । १६. सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १७. ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १८. सणकुमारे कप्पे देवाणं जहणेणं दो सागरोवमानं ठिई पण्णत्ता । समवाय-सुतं १०. कुछेक असुरकुमार देवों की दो पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ११. असुरकुमारेन्द्र को छोड़कर कुछेक भोमिज्ज / भवनवासी देवों की दो पत्योपम से कुछ कम स्थिति प्रज्ञप्त हुँ । १२. कुछेक असंख्य वर्षायु संज्ञी / समनस्क पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीवों की दो पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १३ कुछेक प्रसंख्य वर्षायु गर्भोपकान्तिक/ गर्भज संज्ञी / समनस्क मनुष्यों की दो पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १४. सौधर्मकल्प में कुछेक देवों की दो पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १५. ईशानकल्प में कुछेक देवों की दो पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १६. सौधर्मकल्प में कुछेक देवों की उत्कृष्टत: दो सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १७. ईशानकल्प में देवों की स्थिति दो सागरोपम से अधिक प्रज्ञप्त है । १८. सनत्कुमार कल्प में देवों की जघन्यतः / न्यूनतः दो सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है | समवाय-२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. माहिदे कप्पे देवाणं जहणणं साहियाइं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. माहेन्द्र कल्प मे देवों की जघन्यतः/ न्यूनत: दो सागरोपम से अधिक स्थिति प्रजप्त है। २०. जे देवा सुमं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडेंसगं विमारणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। २०. जो देव शुभ, शुभकान्त, शुभवर्ण,शुभ गन्व, शुभलेश्य, शुभस्पर्ण, मौवर्मवितंशक विमान में देवत्व से उपपन्न है, उन देवों की उत्कृष्टतः दो मागरोपम स्थिति प्राप्त है। २१. तेरणं देवा दोण्हं अद्धमासारणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । २१. वे देव दो अर्धमासों/पक्षों में पान/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं। २२. तेसि णं देवाणं दोहि वास- सहल्सेहिं प्राहारळे समुपज्जइ। २२. उन देवों के दो हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । २३. प्रत्येगइया भवसिद्धिया जीवा, जे दोहिं भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिरसंति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । २३ कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो दो भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, वुद्ध होगे, मुक्त होगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। वाय-मुत्त समवाय-२ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइश्रो समवाश्रो १. तो दंडा पण्णत्ता, तं जहा--- मणदंडे व दंडे कायदंडे । २. तो गुत्ती पण्णत्तात्र, तं जहा - मणगुती वइगुती कायगुत्ती । ३. तो सल्ला पण्णत्ता, तं जहामायासल्ले णं नियाणसल्ले णं मिच्छादंसणसल्ले णं । ४. तो गारवा पण्णत्ता, तं जहा--- इड्डीगारवे रसगारवे सायागारवे । ५. तो विराहणा पण्णत्ताओ, तं जहा - नाणविराहरणा दंसणविराहरणा चरितविराहरणा । ६. मिगसिरनवखत्ते तितारे पण्णत्ते । पुस्सनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते । ८. जेट्ठानवखत्ते तितारे पण्णत्ते । E. प्रभोइनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते । १०. सवरगनक्वत्ते तितारे पण्णत्ते । समवाय-सुतं ७. ११ तीसरा समवाय १ दण्ड तीन प्रज्ञप्त है । जैसे किमन-दण्ड, वचन - दण्ड, काय-दण्ड | २. गुप्ति तीन प्रज्ञप्त है । जैसे किमन-गुप्ति, वचन- गुप्ति, काय गुप्ति । ३. शल्य / चुभन तीन प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि - माया- शल्य, निदान - शल्य, मिध्यादर्शन - शल्य | ४ गौरव / आदर्श तीन प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि- ऋद्धि-गौरव, रस- गौरव, सातागौरव । ५. विराधना / अवहेलना तीन प्रज्ञप्त है । जैसे कि --- ज्ञान-विराधना, चारित्र - विराधना | दर्शन - विराधना, ६. मृगशिर नक्षत्र के तीन तारे प्रज्ञप्त हैं । ७. पुण्य-नक्षत्र के तीन तारे प्रज्ञप्त है । ८. ज्येष्ठा नक्षत्र के तीन तारे प्रज्ञप्त है। ६. अभिजित नक्षत्र के तीन तारे प्रज्ञप्त हैं । १०. श्रवण नक्षत्र के तीन तारे प्रज्ञप्त हैं । समवाय-३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. अतिणिनखत्ते तितारे पप्णत्ते । ११. अश्विनी नक्षत्र के नीन तारे प्राप्त हैं। १२. नरणीनवखत्ते तितारे पप्णत्ते।। १२. भग्गी नक्षत्र के नीन तारे प्रजप्त हैं। १३. इमोसे सं रयरणप्पहाए पुढवीए १३. इन लपना पृथ्वी पर कुछ प्रत्येगइयारणं नेरइयाणं तिष्णि नरयिकों की तीन पल्यापम स्थिति पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्राप्त है। १४. दोच्चाए पं पुइवीए नेरइयाणं १४. दूसरी [गर्कगतमा ] पृथ्वी पर उक्कोसेरणं तिण्णी सागरोवमाई नैरयिकों की उत्कृष्टतः तीन ईि पण्णत्ता। सागगेपम स्थिति प्राप्त है । १५. तच्चाए णं पुढवीए नेरडयाणं १५ तीमगे [वालुकाप्रना पृथ्वी पर] जहणणं तिणि सागरोवमाई नयिकों की जघन्यतः/न्यूनतः तीन ठिई पण्णत्ता। नागरोपम स्थिति प्रजप्त है । १६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्ये- १. कुछेक अमुरकुमार देवों को तीन गडयाणं तिणि पलियोनमाइं। पल्यापम स्थिति प्रनप्त है। लिई पण्णत्ता। १७. असंवेज्जवासाउयसम्पिपंचिदिय- १५. कुछेक अनंत्य-वर्पायु संजी/समनस्क तिरिक्खजोरियाणं उक्को- पंचेन्द्रिय तिर्यक् यौनिक जीवों को सेणं तिण्णि पलिग्रोवमाई ठिई उत्कृष्टत: तीन पल्योपम स्थिति पण्णत्ता। प्राप्त है। १८. असंखेनवासाउयगन्नवक्कंतिय- १८. कुछेक असंख्य-वायु गर्भोपक्रान्तिक/ सण्णिमणुस्साणं उक्कोसेणं गर्भज नंनी/समनस्क मनुप्यों की तिणि पलिप्रोवमाइं ठिई उत्कृष्ठतः तीन पल्योपम स्थिति पण्णत्ता। प्राप्त है। १६. सोहम्मोसाणेसु कप्पेतु प्रत्ये- गइयागं देवाणं तिप्रिय पलि- नोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. नौम-ईशानकल्प में कुछेक देवों की तीन पल्योपम स्थिति प्राप्त है। २०. सर्णकुमारमाहिदेसु कप्पेसु प्रत्ये- गइयाणं देवाणं तिष्णि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। २०. सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प में कुछेक देवों की तीन सागरोपम स्थिति प्रनप्त है। समवाय-सृत्तं १२ समवाय-३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. जे देवा आभकरं पमंकरं अभयरंपभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभ चंदकंतं चंदवणं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंग चंदसिट्ठ चंदकूडं चंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । २१. जो देव आमंकर, प्रभंकर, प्राभंकर प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृंग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न है, उन देवों की उत्कृष्टतः तीन सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। २२. ते णं देवा तिण्ह अद्धमासाणं पारगमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । २२. वे देव तीन अर्धमासों/पक्षोंमें आन/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । २३. तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहि वाससहस्सेहिं प्राहारळे समु- प्पज्जइ । २३. उन देवों के तीन हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है। २४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे तिहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्व दुक्खारणमंतं करिस्संति । २४ कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो तीन भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्त समवाय-३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो समवा १. चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा कोहकसाए मारकसाए मायाकसाए लोभकसाए । २. चत्तारि झारणा पण्णत्ता, तं जहा - अट्टे भारणे रोद्दे भारणे धम्मे भार सुक्के भारणे । ३. चत्तारि विगहाम्रो पण्णत्तानो, तं जहा - जहा इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा कहा । ४. चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तं जहा -- आहारसा भयसण्णा मेहरणसगा परिग्गहसरगा । ५. चउध्वि बंधे पण्णत्ते, तं जहा -- पगडिबंधे ठिइबंधे श्रणुभावबंधे एसबंधे । ६. चउगाउए जोय पण्णत्ते । ७. प्रणुहानक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते । समवाय सुतं * १४ चौथा समवाय १. कपाय / अन्तर-विकार चार प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि -- क्रोध- कषाय, मान-कपाय, मायाकपाय, लोभ- कषाय । २. ध्यान / एकाग्रता चार प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि आर्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान, धर्म-ध्यान, शुक्ल-ध्यान- । ३. विकथा चार प्रज्ञप्त हैं । जैसे किस्त्री - कथा, भक्त-कथा, राज- कथा, देश - कथा | ४. संज्ञा / विपय-वृत्ति चार प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि आहार -संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन- संज्ञा, परिग्रह - संज्ञा । ५. वन्ध / अवस्थिति चार प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि प्रकृति-बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाववन्ध, प्रदेश-वन्ध | ६. योजन चार गव्यूति / कोस का प्रज्ञप्त है । ७. अनुराधा नक्षत्र के चार तारे प्रज्ञप्त हैं । समवाय- ४ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पुवासाढनक्खत्ते पण्णत्ते । चउत्तारे ८. पूर्वापाढ़ा नक्षत्र के चार तारे प्रज्ञप्त चउत्तारे ९. उत्तरासाढनक्खत्ते पण्पते। . उत्तरापाढ़ा नक्षत्र के चार तारे प्रजप्त हैं। १०. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयारणं चत्तारि पलियोवमाइं ठिई पण्णता। १०. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैर यिकों की चार पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. तच्चाए णं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं चतारि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ११. तीसरी पृथिवी [वालुकाप्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की चार सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- याणं चत्तारि पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १२. कुछेक असुरकुमार देवों की चार पल्योपम स्थिति प्राप्त है । १३. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ. याणं देवाणं चत्तारि पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की चार पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १४. सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थे- गइयाणं देवाणं चत्तारि सागरीवमाई ठिई पण्णता। १४. मनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में कुछेक देवों की चार सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. जे देवा किवि सुकिति किद्वियावत्तं किट्रिप्पमं किटिकंतं किटिवण्णं किहिलेसं किद्विज्झयं किढिसिंगं किढिसिटुं किटिकूडं किठुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १५. जो देव कृष्टि, सुकृप्टि, कृप्टि-यावर्त, कृप्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृप्टिध्वज, कृष्टिशृंग, कृप्टिसृप्ट, कृप्टिकूट और कृष्टिउत्तरावतंसक विमान में देवत्व मे उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः चार सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-सुतं १५ समवाय-४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ते णं देवा चउण्हं श्रद्धमासागं आरणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १७. तेसि देवाणं चह वाससहसहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । १८. प्रत्येगइया भवसिद्धिया जीवा, जे चह भवग्गहणेहि तिज्भिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्तंति । समवाय-त्तं १६ 1 १६. वे देव चार अर्धमासों पक्षों में आन / आहार लेते हैं. पान करते हैं, उच्छ - वास लेते है. निःश्वास छोड़ते हैं । १७. उन देवों के चार हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १०. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो चार भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे. परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय-४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो समवायो १. पंच किरिया पण्णत्ता, तं जहाकाइया अहिगरणिया पाउसिमा पारियावरिणमा पाणाइवायकिरिया । पाँचवां समवाय १. क्रिया / प्रवृत्ति पाँच प्रजप्त हैं । जैसे कि-- कायिकी/शरीर-प्रवृत्ति, प्राधिकारगिकी / शस्त्र-प्रवृत्ति, प्राद्वेपिकी/ दुर्भाव-प्रवृत्ति, पारितापनिका/ सन्त्रास-प्रवृत्ति, प्रारणातिपात-क्रिया) घात-प्रवृत्ति । २. पंच महत्वया पण्णत्ता, तं जहासत्वानो पागाइवायानो वेरमणं सव्वानो मुसावायानो वेरमणं सव्वानो अदिन्नादाणाप्रो वेरमणं सन्यानो मेहरणाप्रो वेरमणं सव्वानो परिगहाम्रो वेरमणं । २. महाव्रत पांच प्राप्त है। जैसे कि सर्व प्राणातिपात से विरमण/निवृत्ति, सर्व मृपावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण । ३. पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा~ सद्दा रूवा रसा गंधा फासा । ३. कामगुण/वासना पाँच प्रज्ञप्त हैं । जैसे किशब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । ४. पंच प्रासवदारा पण्णता, तं मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। ४. प्रास्रव-द्वार/कर्म-स्रोत-माध्यम पाँच प्रज्ञप्त हैं । जैसे किमिथ्यात्व | अश्रद्धान्, अविरति/ आसक्ति, प्रमाद/मूळ, कपाय/ अन्तर-विकार, योग/तादात्म्य । ५. पंच संवरदारा पण्णता, तं ५. संवर-द्वार | कर्म-अवरोधक साधन पांच प्रज्ञप्त हैं । जैसे किसम्यक्त्व, विरक्ति, अप्रमत्तता, अकपायता, अयोगता। सम्मत्तं विरई अप्पमाया प्रकसाया अजोगा। समवाय-सुत्तं १७ समवाय-५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. पंच निज्जरवाणा पण्णता, तं जहापारणाइवायानो वेरमणं मुसावायानो वेरमरणं अदिण्णादाणामो वेरमरणं मेहुरणानो वेरमरणं परिग्गहारो वेरमरणं। ६ निर्जरा-स्थान / कर्म-क्षय-साधन पांच प्रजप्त हैं। जैसे किप्राणातिपात-विरमरण, मृपावादविरमण, अदत्तादान-विरमण, मथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण । ७. पंच समिईओ पण्णतामो, तं जहाइरियासमिई मासासमिई एसणासमिई प्रायाण-मंड-मत्तनिवखेवरणासमिई उच्चार-पासवरणखेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमिई । . समिति /संयम-प्रवृत्ति पांच प्रजप्त है। जैसे किईर्या-समिति/पथदृष्टि-संयम, भाषासमिति/वाणी-संयम, एपणा-समिति/ मिक्षा-संयम, आदान-मांड-मात्रनिक्षेपणा समिति / स्थापन-संयम, उच्चार/मल प्रनवण/मूत्र श्लेष्म / कफ सिंधारण / नासिकामल जल्ल/ शरीर-मैल प्रतिष्ठापना-समिति/ परित्याग-संयम । ८. पंच अस्थिकाया पण्णता, तं जहाधम्मत्थिकाए अधम्मत्यिकाए पागासत्यिकाए जीवत्यिकाए पोग्गलत्यिकाए। ८. अस्तिकाय/प्रदेशवान् पाँच प्रजप्त हैं। जैसे किघर्मास्तिकाय/गमन, अधर्मास्तिकाय/ स्थिति, माकाशास्तिकाय/स्थान-दान, जीवास्तिकाय/चैतन्य, पुद्गलास्तिकाय/अजीव । ६. रोहिणोनक्खत्ते पंचतारे पण्णते। ६. रोहिणी-नक्षत्र के पांच तारे प्रज्ञप्त १०. पुणध्वसुनवखत्ते पंचतारे पण्णते। १०. पुनर्वसु-नक्षत्र के पाँच तारे प्रजप्त ११. हत्यनवखत्ते पंचतारे पण्णत्ते । ११. हस्त-नक्षत्र के पाँच तारे प्रज्ञप्त - १२. विसाहानक्खत्ते पंचतारे पण्णते। १२: विशाखा नक्षत्र के पांच तारे प्रज्ञप्त समवाय-मुत्तं १८ समवाय-५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. धणिट्ठानक्षत्ते पंचतारे पण्णते। १३. घनिष्ठा-नक्षत्र के पाँच तारे प्राप्त १४. इमोसे रणं रयणप्पभाए पुढवीए प्रत्थेगइयारणं नेरइयारणं पंच पलिग्रोवमाई ठिई पण्णता। १४. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरकियों की पांच पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. तच्चाए रणं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयारणं पंच सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। १५. तीसरी पृथ्वी [वालुकाप्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की पांच सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १६. असुरकुमाराणं देवारणं अत्थेगइ- याणं पंच पलिपोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १६. कुछेक असुरकुमार देवों की पांच पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १७. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्यगइ- यारणं देवाणं पंच पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १७. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की पाँच पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १८. सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थे- गइयाणं देवाणं पंच सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १८. सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में कुछेक देवों की पांच सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १६. जे देवा वायं सुवायं वातावतं वातप्पभं वातकंतं वातवरणं वातलेसं वातज्झयं वातसिंग वातसिद्धं वातकूडं वाउत्तरवडेंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पमं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिगं सूरसिद्धं सूरकूडं सूरुत्तरवडेंसगं विमारणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि रणं देवारणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई पण्णता । १६. जो देव वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृंग, वातसृष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सुसूर, सूरावर्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृंग, सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः पांच सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं समवाय-५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. ते णं देवा पंचण्हं अद्ध नासारणं पारगमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । २०. वे देव पाँच अर्धमामों/पक्षों में आन/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते है, निःश्वास छोड़ते हैं । २१. तेसि रणं देवाणं पंचहि वाससह- स्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २१. उन देवों के पाँच हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । २२. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे पंचहिं भवग्गणेहि सिन्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । २२. कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो पाँच भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिवृत होंगे, मर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-मुत्तं • समवाय-५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो समवायो छठा समवाय १. छल्लेसा पण्णता, तं जहा कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा। १. लेश्या/चित्तवृत्ति छह प्रजप्त हैं । जैसे किकृष्ण-लेश्या / संक्लेश-वृत्ति, नीललेश्या/रौद्र-वृत्ति, कापोत-लेश्या/ आर्त-वृत्ति, तेजो-लेश्या/परोपकारवृत्ति, पद्म-लेश्या/विवेक-वृत्ति, शुक्ललेश्या/निर्मल-वृत्ति । २. छज्जीवनिकाया पण्णता, त जहापुढवीकाए पाउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए। २. जीव के छह निकाय/संकाय प्रज्ञप्त हैं। जैसे किपृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय/ गतिशील । ३. छविहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहाअरणसणे प्रोमोदरिया वित्तिसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलेसो संलीगया । ३. वाह्य तपोकर्म छह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किअनशन/उपवास, ऊनोदरिका/अल्पभोजन, वृत्ति-संक्षेप/शारीरिक वृत्तिनिरोध, रस-परित्याग/स्वाद-विजय, कायक्लेश / सहिष्णुता, संलीनता/ इन्द्रिय-गोपन । ४. छविहे अभितरे तवोकम्मे पण्णते, तं जहापायच्छित्तं विरणो वेयावच्चं सज्झानो झाणं उस्सग्गो। ४. आभ्यन्तर-तप छह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किप्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य/सेवा, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग/कायोत्सर्ग। ५.छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहावेयणासमुग्घाए फसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्याए वेब्वियसमुग्घाए तेयसमुग्घाए प्राहारसमुग्याए। ५. छानस्थिक/सांसारिक समुद्घात/ प्रदेश-विस्तार छह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किवेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तेजस्-समुद्घात, आहारक-समुद्घात । समवाय-सुतं २१ समवाय--६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. धन्विहे प्रत्युग्गहे पण्णते, तं जहासोइंदिय-प्रत्युग्गहे चखिदियअत्युग्गहे धारिणदिय-प्रत्युग्गहे जिभिदिय प्रत्युग्नहे फातिदियअत्युगहे नोइदिय-प्रत्यग्गहे । ६. अर्यावग्रह अर्थ-चौव छह प्रकार का प्रनप्त है । जैसे किश्रोत्रेन्द्रिय-नावग्रह, चक्षुरिन्द्रियअर्यावाह, घ्राणेन्द्रिय-अर्यावग्रह, जिह्वन्द्रिय-अविग्रह, स्पर्शनेन्द्रियअर्यावग्रह, नोइन्द्रिय/मन प्रविग्रह। ७. कत्तियानत्वत्त छारे पण्णते। .कृत्तिका नक्षत्र के छह तारे प्राप्त ८. अतिलेसानक्तत्ते छतारे पश्यते। ८. पाश्लेषा नक्षत्र के छह तारे प्रजप्त ६. इमीते में रयणप्पहाए पुइवीए अत्येगइयाणं नेरइया छ पतिप्रोवमाई लिई पण्णत्ता। ६. इस रलपना पृथिवी पर कुचक नैरपिकों की छह पत्योपम स्थिति १०. तच्चाए नं पुनवीए प्रत्येगइयाणं नेरइया सागरोवमाई ठिई पपत्ता । १०.तीसरी पृथिवी [वालुकाप्रमा] पर कुछेक नरयिकों की यह नागरोपम स्थिति प्राप्त है। ११. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्ये- गइयाणं इ पलिग्रोवमाई डिई पम्पत्ता। ११. कुछेक असुरकुमार देवों की छह पल्योपन स्थिति प्राप्त है। १२. नोहम्मीसाणेतु कप्पेतु प्रत्यगइ- या देवा छ पलिप्रोवमाई डिई पयत्ता। १. सौधर्म-ईशान कल्म में कुछेक देवों की हह पत्योपन स्थिति प्रजप्त है। १६. सगंजुनार-माहिदेतु कप्पेतु प्रत्ये- गइयान देवाणं व सागरोवमाई ईि पपत्ता। १३. सनत्कुमार-माहन कत्ल में कुछेक देवों की छह सागरोपन स्थिति प्रनप्त है। ननवाय-नुत्तं सनवाय-६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. जे देवा सयंभु सयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोस किद्विघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेरिणयं वीरावत्तं वीरप्पमं वीरकंतं वीरवणं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिटुं वीरकूडं वीरत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, सि गं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १४. जो देव स्वयम्भू, स्वयम्भूरमण, घोप, सुघोप, महाघोप, कृप्टियोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेरिणक, वीरावर्त, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरशृग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वीरोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न है, उन देवों की उत्कृप्टत: छह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. ते णं देवा छण्हं श्रद्धमासाणं प्रारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। १५. वे देव छह अर्धमासों/पक्षों में आन/ आहार लेते हैं, पान करते है, उच्छ - वास लेते हैं, निश्वास छोड़ते हैं। १६. तेसि रणं देवाणं हि वाससह- स्सेहिं प्राहारळे समुप्पज्जई। १६. उन देवों के छह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे छहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । १७. कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो छह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्तं २३ समवाय-६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो समवायो सातवां समवाय १. सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहाइहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए प्राजीवभए मरगभए असिलोगभए । १. भयस्थान सात प्रज्ञप्त हैं। जैसे किइहलोक-भय. परलोक-भय, आदानभय, अकस्मात्-भय, आजीव-भय, मरण-भय, अश्लोक/निन्दा-भय । २. सत्त समुग्धाया पण्पत्ता, तं जहावेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणतियसमुग्धाए वेउध्वियसमुग्धाए तेयसमुग्धाए आहारसमुग्घाए केवलिसमुग्धाए। ३. समणे भगवं महावीरे सत्त रय णी उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। २. समुद्घात सात प्राप्त हैं । जैसे कि वेदना-समुद्घात, कपाय-समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, आहारक-समुद्घात, केवलि-समुद्घात । ३. श्रमण भगवान महावीर ऊँचाई की दृष्टि से सात रनिक/हाथ ऊँचे थे । ४. सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे । ४. इस जम्बुद्वीप द्वीप में वर्षधर पर्वत सात प्रज्ञप्त हैं। जैसे किक्षुल्लक, हिमवन्त, महाहिमवन्त, निषध, नीलवन्त, रुक्मी, शिखरी, मन्दर सुमेरु । ५. सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा-- भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए हेरण्णवते एरवए । ५. इस जम्बुद्वीप द्वीप में वास / क्षेत्र सात प्रज्ञप्त है । जैसे किभरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक, ऐरण्यवत, ऐरवत । ६.क्षीणमोह भगवान् मोहनीय कर्म का वर्जन कर सात कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं। ६. खोपमोहे रणं भगवं मोहणिज्ज- वज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ वेएई। समवाय-सुत्तं २४ समवाय-७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महानवखते सत्ततारे पण्णते। ८. कत्तिमाइया सत्त नक्खत्ता पुवदारिमा पण्णत्ता। ७. मघा नक्षत्र के सात तारे प्रज्ञप्त हैं। ८. कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्वद्वारिक प्रज्ञप्त हैं। ६. महाइया सत्त नवखत्ता दाहिरण दारिमा पण्णत्ता। ९. मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण द्वारिक प्रज्ञप्त हैं। १०. अणुराहाइया सत्त नक्खत्ताप्रवर दारिमा पण्णता। १०. अनुराधा आदि सात नक्षत्र अपर/ पश्चिमद्वारिक प्रज्ञप्त है। ११. षणिठाइयासतनक्खत्ता उत्तर- दारिया पण्णता। ११. धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर द्वारिक प्रज्ञप्त है। १२. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणे नेरइयाणं सत्त पलिप्रोवमाई ठिई पण्णता। १२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की सात पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १३. तच्चाए रणं पुढवीए नेरइयारणं , उक्कोसेणं सत्तसागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. तीसरी पृथिवी [वालुकाप्रभा] पर कुछेक नरयिकों की उत्कृष्टतः सात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १४. चउत्योए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णणं सत्त सागरोवमाई ठिई , पण्पत्ता। . १४. चौथी पृथिवी [पंकप्रभा] पर नरयिकों की जघन्यतः/न्यूनतः सात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. कुछेक असुरकुमार देवों की सात पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं सत्त पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ यारणं देवारणं सत्त पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की सात पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १७. सणंकुमारे कप्पे अत्थेगइयाणं देवारणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १७. सनत्कुमार कल्प में देवों की उत्कृष्टतः सात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-मुक्तं समवाय-सुतं ५ समवाय-७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. माहिदे कप्पे देवारणं उक्को सेरगं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. बंभलोए कप्पे देवारणं जहण्णेरगं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । २०. जे देवा समं समप्पमं महापमं पभासं भासुरं विमलं कंचरणकूड सकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेरणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । २१. ते गं देवा सत्तहं श्रद्धमासा आरणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । २२. तेसि गं देवारणं सतह वाससह - तेहि श्राहारट्ठे समुपज्जइ । २३. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सतह भवग्गणेहि सिज्झरसंति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंत करिस्सति । समवाय-मुक्त १८. माहेन्द्र कल्प में देवों की उत्कृष्टतः मात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १९. ब्रह्मलोक कल्प में कुछेक देवों की सात सागरोपम से अधिक स्थिति प्रज्ञप्त है। < २०. जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टत: सात सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । २१. वे देव सात अर्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । २६ २२. उन देवों के सात हजार वर्ष में चाहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । २३. कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो सात भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय-७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो समवाश्रो १. श्रट्ट मयद्वारा पण्णत्ता, तं जहाजाति मए कुलमए बलमए रूवल ए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए । २. अटु पवयणमायाम्रो पण्णत्ताश्रो, तं जहा -- इरियासमिई भासासमिई एसणासमिई श्रायारण - भंड-मत्त-निवखेवरणास मई उच्चारपासवरण-खेलजल्ल - सिंघाण पारिट्ठावरियासमिई मणगुत्ती वइगुत्ती कायगुती । ३. वाणमंतराणं देवारणं चेइयरुक्खा श्रटु जोपरगाई उड्ढं उच्चत्तरगं पण्णत्ता । ४. जंबू णं सुदंसणा श्रटु जोगाई उड्ढं उच्चत्तेगं पण्णत्ता । ५. कूडसामली णं गरुलावासे श्रट्ठ जोयणाई उड् उच्चतेणं पण्णत्ते । ६. जंबुद्दीवस्स णं जगई श्रट्ट जोयगाई उड्ढं उच्चतेगं पण्णत्ता । समवाय-सुत्तं २७ आठवां समवाय १. मदस्थान आठ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि-जाति-मद, वल-मद, रूप-मद, तपोमद, श्रुत-मद, लाभ-मद, ऐश्वर्यमद । २. प्रवचन-माता आठ प्रज्ञप्त जैसे कि ई-समिति, भाषा समिति, एपरणासमिति, प्रदान - भांड मात्र निक्षेपरणसमिति, उच्चार- प्रस्रवरण- खेल - जल्लसिंघारण - परिष्ठापना समिति, मनोगुप्ति, वचन- गुप्ति, काय-गुप्ति । ३. वान-व्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष ऊँचाई की दृष्टि से आठ योजन ऊँचे प्रज्ञप्त है । ४. जम्बु सुदर्शन वृक्ष ऊंचाई की दृष्टि से माठ योजन ऊँचा प्रज्ञप्त है । 1 ५. गरुड़ - देव का आवासभूत पार्थिव कूट - शाल्मली वृक्ष ऊँचाई की दृष्टि से ग्राठ योजन ऊँचा प्रज्ञप्त है । ६. जम्बुद्वीप की की दृष्टि से प्रज्ञप्त है । जगती / पाली ऊँचाई ग्राठ योजन ऊंची समवाय-5 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्रसामइए केवलसमुग्धाए पत्ते, तं जहा--- पढमे समए दंड करेइ । बीए समए कवाई करेइ । तइए समए मंथं करेइ । चत्थे समए संयंतराई पूरेइ । पंचमे समए मंयंतराई पडिसाहराई । छट्ठे समए मंथं पडिसाहरइ । सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ । अट्टमे समए दंडं पडिसाहरइ । तत्तो पच्छा सरीरत्ये भवइ । ८. पासस्स णं श्ररहस्रो पुरिसादानिस्स, अट्ट गरगा अठ्ठे गहरा होत्या, तं जहासुसुमघोय, वसिट्ठे नयारि य । सोमे सिरिधरे चेव, वीरभद्दे जसे इ.य. ॥ ८. श्रट्ट नक्खत्ता चंदेणं सद्धि पमद्दं जोगं जोएंति, तं जहा - कत्तिया रोहिणी पुरणन्वत महा चित्ताविसाहा श्रणुराहा जेट्ठा । १०. इमोसे गं रवणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं श्रठ्ठ पतिश्रोमाई ठिई पत्ता । समवाय-मुत्तं २८ ७. केवलि - समुद्घात अष्ट सामयिक प्रज्ञप्त है । जैसे कि - पहले समय में दण्ड किया जाता है । दूसरे समय में कपाट किया जाता है । तीसरे समय में मन्धन किया जाता है । चौथे समय में मन्यन के अन्तराल पूर्ण किये जाते है । पाँचवें समय में मन्यन के अन्तराल का प्रतिसंहार / संकोच किया जाता है | छठे समय में मन्थन का प्रतिसंहार किया जाता है । सानवें समय में कपाट का प्रतिसंहार किया जाता है । आठवें समय में दण्ड का प्रतिसंहार किया जाता है । तत्पश्चात् शरीरस्थ होते हैं । ८. पुरुपादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गण और आठ गणधर थे । जैसे कि-शुभ, शुभघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यश | ..... ६. आठ नक्षत्र चन्द्र के साथ प्रमर्द योग करते हैं । जैसे कि - कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा । १०. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछैक नैरयिकों की आठ पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । "समवाय Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. चउत्थीए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णता। ११. चौथी पृथिवी [पंकप्रभा] पर कुछेक नरयिकों की आठ सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. कुछेक असुरकुमार देवों की पाठ पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. असरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं, अट्ठ पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थे- गइयाणं देवाणं अट्ठ पलिग्रोव- माई लिई पण्णत्ता। १३. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की आठ पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १४. ब्रह्मलोक कल्प में कुछेक देवों की आठ सागरोपम स्थिति प्राप्त है । १४. बंभलोए कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णता। १५. जे देवा अच्चि अच्चिमालि वइरोयणं पभंकर चंदामं सूराम सुपइहामं अग्गिच्चामं रिकामं अरुणामं अरुणुत्तरवडेंसगं विमाणं देवताए उववण्णा , तेसि गं देवाणं उक्कोसेरणं अट्ठ सागरो वमाई ठिई पण्णत्ता. १६. ते गं देवा अट्ठण्हं प्रद्धमासाणं पारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। १५. जो देव अर्चि, अर्चिमाली, वैरोचन, प्रभंकर, चन्द्राभ, सूराम, सुप्रतिष्ठाभ, अग्नि-अाभ, रिण्टाभ, अरुणाम और अनुत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः आठ सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १६. वे देव पाठ अर्घमासों/पक्षों में आन/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । १७. उन देवों के आठ हजार वर्षों में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १७. तेसि गं देवाणं अहि वाससहस्सेहिं आहारठे. समु. पज्जइ... . . . १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे ___अहि भवग्गहणेहि सिझि• संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति पनिनिव्वाइसति सव्वदुक्खाणमंत करिस्संति। समवाय-सुत्तं १८. कुछेक भव सिद्धिक जीव हैं, जो आठ भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्वदुःखान्तं करेंगे । २४ समवाय Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां समवाय नवमो समवायो १. नव बंमचेरगुत्तीग्रो पण्णत्तानो, तं जहानो इत्योणं-पसु-पंडग-संसत्ताणि सिज्जासणाणि सेवित्ता भवइ । नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ । नो इत्योरणं ठाणाई सेवित्ता भव। नो इत्थीरणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइंपालोइत्ता निभाइत्ता भव। नो पणीयरसमोई भवइ। नो पाणभोयरणस्स अइमायं प्राहारइत्ता भवइ । नो इत्थीणं पुन्वरयाई पुवकोलियाई सुमरइत्ता भवइ । नो सहाणवाई नो रूवाणवाई नो गंधाणुवाई नो रसाणवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई। नो सायासोक्ख-पडिबद्ध यावि मवइ । २. नव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णताओ, तं जहाइत्थी-पसु-पंडग-संसत्ताणि सिज्जासरणारिण सेवित्ता मवइ । इत्योणं कह कहित्ता भवइ । इत्थीणं ठाणाई सेवित्ता भवइ । इत्योणं इंदियाई मरणोहराई मरणोरमाई आलोइत्ता निझा- - इत्ता भवइ। १. ब्रह्मचर्य-गुप्ति नौ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि[ब्रह्मचारी] स्त्री, पशु और नपुंसकसंसक्त शय्या तथा आसन का सेवन नहीं करता। स्त्रियों की कथा नहीं करता । स्त्रियों के स्थान का सेवन नहीं करता। स्त्रियों की मनोहर-मनोरम इन्द्रियों काअवलोकन-निरीक्षण नहीं करता। प्रणीत-रस-बहुल-भोजी नहीं होता । भोजन-पान का अतिमात्रा में प्राहार नहीं करता। स्त्रियों की पूर्व रति तथा पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करता । न शब्दानुवादी, न रूपानुवादी, न गन्धानुवादी, न स्पर्शानुवादी और न ही श्लोकानुवादी होता है। शाता-सुख से प्रतिवद्ध भी नहीं होता। २. ब्रह्मचर्य-अगुप्ति नौ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि[ब्रह्मचारी स्त्री, पशु और नपुसकसंसक्त शय्या तथा आसन का सेवन करता है। स्त्रियों की कथा करता है। स्त्रियों के स्थान का सेवन करता है। स्त्रियों की मनोहर-मनोरम इन्द्रियों . का अवलोकन-निरीक्षण करता है । समवाय-मुत्तं समवाय-8 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणीयरसभोई भवइ । पारणभोयरणस्स श्रइमायं आहार इत्ता भवइ । इत्यीणं पुवरयाई पुव्वकीलियाई सुमरइत्ता भवइ । सद्दाणुवाई ख्वाणुवाई गंधाणुवाई रसाणुवाई फासाणुवाई सिलोगाणुवाई | सायासोक्ख-पडिबद्धे यावि भवइ । ३. नव बंभचेरा पण्णत्ता, तं जहासत्यपरिण्णा लोगविजनो सीनोसणिज्जं सम्मत्तं । श्रावंती धुअं विमोहायणं उवहाण सुयं महपरिण्णा ॥ ४. पासे णं श्ररहा नव रयणीश्रो उड्ढं उच्चत्तेगं होत्या । ५. प्रभोजिन क्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चंदेणं सद्धि जोगं जोइए । ६. प्रमोजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहाअभीजि सवरगो धरिणट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरापोट्ठवया रेवई अस्सिणी भरणी । ७. इमीसे णं रयणप्पहार पुढवीए बहुसमरम पिज्जाश्रो भूमिभागाम्रो नव जोयरणसए उड़ढ प्रबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरड़ समवाय-सुत्त प्रणीत रस - बहुल- भोजी होता है । भोजन - पान का अतिमात्रा में आहार करता है । स्त्रियों की पूर्व रति तथा पूर्व क्रीड़ानों का स्मरण करता है । न शब्दानुवादी, न रूपानुवादी, न गन्धानुवादी, न स्पर्शानुवादी और न ही श्लोकानुवादी होता है । शाता - सुख से प्रतिबद्ध भी रहता है । ३. ब्रह्मचर्य -ग्राचारांगसूत्र के अध्ययन नौ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि -- शस्त्र - परिज्ञा, लोकविजय, शीतोणीय, सम्यक्त्व, आवन्ती, धूत, विमोह, उपधानश्रुत, महापरिज्ञा । ४. पुरुषादानीय श्रर्हत् पार्श्व ऊँचाई की दृष्टि से नौ रत्निक / हाथ ऊँचे थे । ३१ ५. श्रभिजित नक्षत्र चन्द्र के साथ नौ मुहूर्त से अधिक योग करता है । ६. अभिजित श्रादि नौ नक्षत्र चन्द्र का उत्तर से योग करते हैं । जैसे कि— अभिजित से भरणी तक । ७. इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम / अत्यधिक रमणीय भूमि-भाग से नौ सौ योजन ऊपर ऊपरीतल में तारों रूप में अवाघतः संचरण करते हैं । समवाय-ε Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जंबुहीवे..णं दीवे नवजोयणिया मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा। ८. जम्बुद्वीप में नौ योजन के मत्स्य प्रवेश करते थे, प्रवेश करते हैं और प्रवेश करेंगे। • • .... ६. विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव-नव भोमा पण्णत्ता । १०. वाणमंतराणं देवाणं सभात्रो सुधम्माओ नव जोयणई उड्ढं उच्चत्तणं पण्णत्तायो। ६. विजय-द्वार की एक-एक बाहु पर, नौ-नौ भौम भवन प्रज्ञप्त हैं। १०. वान-व्यन्तर देवों की सुवर्मा सभाएँ ऊँचाई की दृष्टि से नो योजन ऊँची प्रज्ञप्त हैं। ११. सणावरणिज्जस्स गं कम्मस्स नव उत्तरपगडीनो पण्णत्तानो, तं जहानिद्दा पयला निहानिद्दा पयलापयला थोणगिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचवखुदंसणावरणे प्रोहिदसणावरणे केवलदसणावरणे । ११. दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृ- .: तियां नौ प्रज्ञप्त हैं। जैसे किनिंद्रा/सामान्य नींद, प्रचला/शय्यारहित निद्रा, निद्रानिद्रा/प्रगाढ़ निद्रा, प्रचला-प्रचना/ शय्यारहित प्रगाढ़ 'निद्रा, स्त्यानद्धि/कार्य-समापनक, निद्रा, चक्षु-दर्शनावरण/नेत्र-यावरण, 'प्रचक्षु-दर्शनावरण / अन्य · इन्द्रिय-२ आवरण, अवधि-दर्शनावरण/मूर्तदर्शन-आवरण और केवल-दर्शनावरण/सर्व दर्शन-आवरण। १२. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं नव पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १२. इस रत्नभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की नौ पल्योपम-स्थिति प्रज्ञप्त है। ......... . .. १३. चउत्योए पुढवीए अत्थेगइयाणं . १३. चौथी पृथिवी [पंकप्रभा और कुछेक'.." नेरइयाणं नव सागरोवमाई ठिई . नरयिकों की नौ. सागरोपम-स्थिति . पण्णत्ता। १४. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं नव पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १४. कुछेक असुरकुमार देवों की नौ पल्योपम-स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसुः प्रत्येगइ. १५: सौधर्म ईशान कल्प में कुछेक देवों की याणं देवाणं नव पलिनोवमाई नौ पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त हैं। ठिई पण्णत्ता। . वाय-सुत्त : Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बंमलोए कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। १६. ब्रह्मलोक कल्प में कुछेक देवों की नौ सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १७.जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पहं पम्हकंतं पम्हवणं पम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंग पम्हसिट्ठ पम्हकूडं पम्हुत्तरवडेंसगं सुज्जं सुसुज्जं सुज्जावत्तं सुज्जपभं सुज्जकंतं सुज्जवणं सुज्जलेसं सुज्जज्झयं सुज्जसिंग सुज्जसिढें सुज्जकूडं सुज्जुत्तरवडेंसगं रुइल्लं रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पमं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुहल्लज्झयं रुइल्लसिंग रुइल्लसिट्ठं रुइल्लकूडं रुइल्लत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १७. जो देव पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मध्वज, पक्ष्मभंग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक तथा सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्यलेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृंग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट, सूर्योत्तरावतंसक, रुचिर, रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त, रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज. रुचिरशृंग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकूट और रुचिरोतरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की नौ सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १८. ते णं देवा नवण्हं श्रद्धमासाणं प्रागमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। १८. वे देव नौ अर्घमासों/पक्षों में आन/ आहार लेते है, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । १६. तेसि गं देवाणं नहिं वास- सहस्सेहि प्राहारठे समुप्पज्जइ। २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे नहि भवग्गहर्णेहि सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। १६. उन देवों के नौ हजार वर्ष में आहार __ की इच्छा समुत्पन्न होती है । २०. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो नौ भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-मुक्तं समवाय-६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो समवाश्रो १. दसविहे समरण धम्मे पण्णत्ते, तं जहा खंती मुत्ती प्रज्जवे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए वंभचेरवासे । -- २. दस चित्तसमा हिट्ठारणा पण्णत्ता, तं जहा धर्मांचा वा से श्रसमुष्ण्णपुव्वा समुप्पज्जिज्जा, सव्वं धम्मं जात्तिए । सुमिरणदंसर वा से असमुपपणपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, अहातचं सुमिणं पात्तिए । सणिनारणे वा से समुप्पणपुवे समुप्पज्जिज्जा, पुब्बभवे सुमरित्तए । देवदसरणे वा से श्रसमुध्वण्णपुब्वे समुप्पज्जिज्जा, दिव्वं देविडि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पालित्तए । श्रोहिना वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पज्जिज्जा, श्रोहिणा लोगं जात्तिए । श्रो हिदंसर वा से समुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा, श्रोहिणा लोगं पातित्तए । समवाय-सुत्तं ૪ दसवां समवाय १. श्रमण - धर्मं दस प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे किशान्ति / क्षमा, मुक्ति, प्रर्जव / ऋजुता, मार्दव / मृदुता, लाघव / लघुता, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य - वास । २. चित्त- ममावि स्थान दस प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि धर्मचिन्तन वह है, जो पूर्व में असमुत्पन्न सर्व धर्म को जानने के लिए समुत्पन्न होता है । स्वप्न-दर्शन वह है, जो पूर्व में अममुत्पन्न यथातथ्य को स्वप्न में देखने के लिए समुत्पन्न होता है । संजी-जान वह है, जो पूर्व में असमुत्पन्न पूर्व भव का स्मरण करने से समुत्पन्न होता है । देव-दर्शन वह है, जो पूर्व में असमुत्पन्न दिव्य देवधि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देवानुभाव को देखने के लिए समुत्पन्न होता है । अवि-ज्ञान वह है, जो पूर्व में श्रममुत्पन्न अवधि से लोक को जानने के लिए समुत्पन्न होता है । अवधिदर्शन वह है, जो अवधि से लोक को देखने के लिए समुत्पन्न होता है । समवाय- १० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यव-ज्ञान वह है, जो असमुत्पन्न मनोगत भाव पर्यन्त जानने के लिए समुत्पन्न होता है। मएपज्जवनाणे वा से असमुप्पपणपुग्वे समुप्पज्जिज्जा, अंतो मणुस्सवेत्ते अड्डातिज्जेसु दीवसमुद्देसु सम्णोणं पंचेंदियारणं पज्जत्तगाणं मरणोगए भावे जारिणत्तए। केवलनारणे वासे असमुप्पण्णपुवे समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोगं जारिणत्तए। केवलदंसरणे वा से असमुप्पण्णपुत्वे समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोयं पासित्तए। केवलिमरणं वा मरिज्जा, सव्व दुक्खप्पहीरणाए। ३. मंदरे एवं पवए मूले दसजोयरण सहस्साई विखंभेणं पण्यते । केवल-ज्ञान वह है, जो असमुत्पन्न केवल लोक/त्रैलोक्य को जानने के लिए समुत्पन्न होता है। केवल-दर्शन वह है, जो असमुत्पन्न केवल लोक को देखने के लिए समुत्पन्न होता है। केवलि-मरण वह है, जो सर्व दुःखों के समापन के लिए मरे। ३ मन्दर/सुमेरु-पर्वत मूल में दस हजार योजन विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त ४. अर्हत अरिष्टनेमि ऊँचाई की दृष्टि से दस धनुप ऊँचे थे। ४. अरहा णं अरिट्ठनेमी दस धणूई उड्ड उच्चत्तणं होत्था। ५. कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उड्डे उच्चत्तरणं होत्था। ५. वासुदेव कृष्ण ऊँचाई की दृष्टि से दस धनुप ऊँचे थे। ६. रामे गं बलदेवे दस धणई उड़ उच्चत्तण होत्था। ६. वलदेव राम ऊंचाई की दृष्टि से दस धनुष ऊँचे थे। ७. दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा पग्रपत्ता, तं जहामिगसिरमद्दा पुस्सो, तिणि प्र पुन्या मूलमस्सेसा। हत्यो चित्ता य तहा, इस विद्धिकराई नारणस्स ।। ७. ज्ञान-वृद्धिकर नक्षत्र दस प्रज्ञप्त हैं । जैसे किमृगशिर, आर्द्रा, पुष्य, तीन पूर्वा [पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपदा] मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा-ये दस [ नक्षत्र ] ज्ञान की वृद्धि करते हैं। समवाय-१० समवाय-सुत्त Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अकम्मभूमियाणं मणुप्राणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया पण्णत्ता, तं जहामत्तंगया य भिंगा, तुडिभंगा दीव जोय चित्तंगा। चित्तरसा मरिणअंगा, गेहागारा अणिगणा य॥ ८. अकर्मभूमि/भोगभूमि में जन्मे मनुष्यों के उपभोग के लिए उपस्थित वृक्ष दस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। जैसे किमद्यांग, भृग, तूर्याग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्न । ६. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं जहण्णणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ।। ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नरयिकों की जघन्यत: दस हजार वर्ष स्थिति प्रज्ञप्त है। १०. इमोसे णं रयणप्पाहए पुडवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं दस पलिनोवमाइं ठिई पण्णता । १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नरयिकों की दस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. चौथी पृथिवी [ पंकप्रभा ] पर दस लाख नारक-ग्रावास हैं। १२. चौथी पृथिवी की उत्कृष्टतः दस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. चउत्थीए पुढवीए दस निरया- वाससयसहस्सा पण्णत्ता। १२. चउत्थीए पुढवीए नेरइयाणं उकोसेणं दस सागरोवाइं ठिई पण्णत्ता। १३. पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णता। १४. असुरकुमाराणं देवाणं जहण्णण्णं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। १५. असुरिंदवज्जाणं भोमेज्जाणं देवाणं जहण्णणं दस वाससहस्साई ठिई पण्पत्ता। १३. पांचवी पृथिवी [ धूमप्रभा ] पर नैरयिकों की जघन्यतः/न्यूनतः दस ' सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १४. असुरकुमार देवों की जघन्यतः/न्यूनतः दस हजार वर्ष स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. असुरेन्द्रों को छोड़कर भौमिज्ज/ भवनवासी देवों की जघन्यतः दस हजार वर्ष स्थिति प्रज्ञप्त है। १६. असुरकुमारणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं दस पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. कुछेक असुरकुमार देवों की दस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । समवाय-सुत्तं समवाय-१० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. बायरवणप्फइकाइयारणं उक्को- - १७. बादर वनस्पतिकायिक की उत्कृष्टतः सेणं दस वाससहस्साई ठिई दस हजार वर्ष स्थिति प्रज्ञप्त है। पण्णत्ता। १८. वारणमंतराणं देवाणं जहणणं १८. वान-व्यन्तर देवों की जघन्यतः दस दस वाससहस्साई ठिई पण्णता । हजार वर्ष स्थिति प्रजप्त है । १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्गइ- १९. सौधर्म-ईशान-कल्प में कुछेक देवों याणं देवाणं दस पलिग्रोवमाइंठिई की दस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। पणत्ता। २०.बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं २०. ब्रह्मलोक-कल्प में देवों की उत्कृष्टतः दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । दस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । २१. लतए कप्पे देवाणं जहण्णणं दस २१. लान्तक कल्प में देवों की जघ यतः/ सागरोवमाई ठिई पण्णता। न्यूनतः दस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त २२. जो देव घोष, मुघोष, महाघोष, नन्दिघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मंगलावर्त और ब्रह्मलोकावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः दस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । २२. जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्म रम्मगं रमरिणज्जं मंगलावत्तं . बंभलोगवसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्को'सेणं दस सागरोवमाई ठिई । पण्पता। २३. ते गं देवा दसण्हं अद्धमासाणं पारगमति वा पारणमंति वा ऊस संति वा नीससंति वा। २४. तेसि गं देवाणं दसहि वाससह- ___ स्सेहि आहारठे समुप्पज्जइ। २५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे दहि भवग्गहणेहि सिभिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। २३. वे दस अर्घमासों/पक्षों में पान/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ - वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । २४. उन देवों के दस हजार वर्ष में आहार का अर्थ समुत्पन्न होता है। २५. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो दस • भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्तं ३७ समवाय-१० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमो समवानो १. एक्कारस उवासगपडिमानो पण्णतामो, तं जहादसणसावए, कयन्वयकम्मे, सामाइअकडे,पोसहोववासनिरए, दिया वंभयारी, रत्ति परिमाणकडे, दिनावि रामोवि बंभयारी, असिणाई, वियडभोई, मोलिकडे, सचित्तपरिणाए, आरंभपरिण्णाए, पेसपरिणाए, उद्दिमत्तपरिण्णाए, समणभूए यावि भवइ समणाउसो। ग्यारहवां समवाय १. श्रमणायुप्मन् ! उपासक की प्रतिमा/ अनुष्ठान ग्यारह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किदर्शन-श्रावक, कृतव्रतकर्मा, सामायिक कृत, पौषधोपवास-निरत, दिवाब्रह्मचारी, रात्रि-परिमाणकृत, दिवाब्रह्मचारी भी, रात्रि-ब्रह्मचारी भी, अस्नायी, विकट-भोजी, मौलिकृत, सचित्त-परिज्ञात, आरम्भ-परिजात, प्रेष्य-परिज्ञात, उद्दिष्ट-परिजात और श्रमणभूत पर्यन्त हैं। २. लोगंतानो रणं एक्कारस एक्कारे जोयणसए अवाहाए जोइसते पण्णत्ते। २. लोकान्त से एक सौ ग्यारह योजन पर अवाधित ज्योतिष्क प्राप्त है। ३.वहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स एक्कारस एक्कवोसे जोयणसए प्रवाहाए जोइसे चारं चरइ । ३. जम्बुद्वीप-द्वीप में मन्दर-पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन तक ज्योतिष्क संचरण करता है। ४. समणस्स रणं भगवो महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्या, तं जहा इंदभूती अग्गिभूती वायुभूति विपत्ते सुहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकपिए अयलभाया मेतज्जे पभासे। ४. श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे। जैसे किइन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य, प्रभास । ५. मूले नक्खत्तै एक्कारसतारे पण्णते। ५. मूल नक्षत्र के ग्यारह तारे प्रज्ञप्त . समवाय-सुत्तं समवाय-११ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. हेछिमगेविज्जयारणं देवाणं एक्कारसुत्तरं गेविज्जविमाणसतं : भवइति मक्खायं । ६. अधस्तन अवेयक देवों के विमान एक सौ ग्यारह है-ऐसा पाख्यात है। ७. मंदरे णं पव्वए घरणितलामो सिहरतले एक्कारसभागपरिहारणे उच्चत्तणं पण्णत्ते। ७. मन्दर-पर्वत घरणीतल से शिवरतल तक ऊँचाई की अपेक्षा ग्यारहवें भाग से परिहीन/न्यूनतर प्राप्त है। ६.इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिनोवमाई ठिई पण्णता। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर कुछेक नैरयिकों की ग्यारह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. पंचमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। ६. पांचवीं पृथिवी [ धूमप्रभा ] पर कुछेक नरयिकों की ग्यारह सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। १०. कुछेक असुरकुमार देवों की ग्यारह पल्योपम स्थिति प्रजप्त है। १०. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- यारणं एक्कारस पलिनोवमाई ठिई पण्णता। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ- याणं देवारणं एक्कारस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णता । ११. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की ग्यारह पल्योपम स्थिति प्राप्त १२. लतए कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। १२. लान्तक कल्प में कुछेक देवों की ग्यारह सागरोपम स्थिति प्राप्त है। १३. जे देवा बंमं सुबमं बंभावतं बंभप्पन बंभकतं बंभवण्णं बंभलेसं बंभज्झयं बंसिंग बंभसिलैं बंभकूर बभुत्तरवडेंसगं विमाएं देवताए उववण्णा, तेसि गं देवारणं उकोसेणं एक्कारस सागरोवमाई ठिई पण्णता। १३. जो देव ब्रह्म, मुब्रह्म, ब्रह्मावर्त, ब्रह्म प्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेग्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्माएंग, ब्रह्ममृप्ट, ब्रह्मकूट और ब्रह्मोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न है, उन देवी को उत्कृष्टतः ग्यारह नागरोपम स्थिति प्राप्त है। गमवाय-११. समवाय-सुत्तं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. ते णं देवा एक्कारसह अद्ध- मासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १४. वे देव ग्यारह अर्धमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते १५. तेसि णं देवारणं एक्कारसण्हं वास- सहस्सारणं प्राहारठे समुप्पज्जइ। १५. उन देवों के ग्यारह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एक्कारसहि भवग्गहहि सिज्झिस्संति बुझिस्सति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । १६. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो ग्यारह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-११ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो समवाओ १. बारस भिक्खुपडिमात्र पण्णत्ताश्रो, तं जहामासिश्रा भिक्खुपडिमा, दोमासिना भिक्खुपडिमा तेमासित्रा चाउमासिश्रा पंचमासिश्रा छम्मासिश्रा सत्तमासिश्रा भिक्खुपडिमा भिक्खुपडिमा भिक्खुपडिमा भिक्खुपडिमा भिक्खुपडिमा पढमा सतराइंदिया भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तरइंदिया भिक्खुपडिमा तच्चा सत्तराइंबिना भिक्खुपडिमा अहोराइया भिक्खुपडिमा, एगराइया भिषखुपडिमा । २. दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते, तं जहाउवही सुप्रभत्तपारणे अंजलीपग्गहेति दाणे य निकाए अ अन्भुट्ठाणेति श्रावरे ॥ य । कितिकम्मस्स य करणे, वैयावच्चकरणे इन । समोसरणं संनिसेज्जा य, कहाए अपबंध || समवाय-सुतं re बारहवां समदाय १. भिक्षु प्रतिमाएँ वारह प्रज्ञप्त है । जैसे कि - [एक] मासिक भिक्षु प्रतिमा- ग्रभिगृहीत एक विधि से आहार, दी मासिक भिक्षु प्रतिमा, तीन मासिक भिक्षु प्रतिमा, चार मासिक भिक्षुप्रतिमा, पांच मासिक भिक्षु-प्रतिमा, छह मासिक भिक्षु प्रतिमा, सात मासिक भिक्षु प्रतिमा, प्रथम सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा, द्वितीय सप्तरात्रंदिवा भिक्षु प्रतिमा, तृतीय सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा, अहीरात्रिक भिक्षु-प्रतिमा एकरात्रिक भिक्षु-प्रतिमा । २. सम्भोग बारह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि - उपधि / उपकरण, धुत / प्रागम, भक्तपान / भोजन-पानी, मंजली - प्रग्रह / करबद्ध नमन, दान / आदान-प्रदान, निकाचन / श्रामन्त्रण, प्रत्युत्थान/ अभिवादन, कृतिकर्म-करण / नियत वन्दन- व्यवहार, वैयावृत्यकरण / सेवाभाव, समवसरण / धर्ममना, संनिपया / संपृस्ठना, कथा-प्रवन्धन / प्रवचन । ममवाद- १२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. दुवालसावत्तै कितिकम्मे पण्णत, तं जहादुोरणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चसिरं तिगुत्त च, दुपवेस एगनिक्खमण ॥ कृति-कर्म / वन्दन-क्रिया-विधि के बारह आवर्त प्रज्ञप्त है। जैसेकि। दो अवनत, यथाजात कृतिकर्म, 'बारह प्रावत, चार शिर, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण । ४. विजया णं रायहाणी दुवालस जोयरणसयसहस्साइं आयामविखंभेणं पण्णत्ता। विजया राजधानी वारह शंत महस्र/बारह लाख योजन आयाम' विष्कम्भक/विस्तृत प्रजप्त है । ५. रामे णं बलदेवे दुवालस वाससयाइं सवाउयं पालिता देवत्तं गए। . बलदेव राम ने बारह सौ वर्ष की मम्पूर्ण आयु पालकर देवत्व प्राप्त किया। ६. मंदरस्स णं पच्चयस्स चूलिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खमेणं पणरणत्ता । 1. मन्दर-पर्वत की चूलिका का मूल। भाग वारह योजन विष्कम्भक/चौड़ा प्रज्ञप्त है। ७. जंबूदीवस्स णं दोवस्स वेइया मूले दुवालस जोयणाई विक्खभेणं पण्णत्ता। ७. जम्बुद्वीप-द्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विष्कम्भक / चौड़ी । प्राप्त है। ८. सध्वजहण्णिमा राई दुवालसमुहुत्तिना पण्णता। 5. सर्व जघन्य/सबसे छोटी रात्रि बारह । मुहूर्त की प्रज्ञप्त है। ६. सव्वजण्णिम्रो विवसो दुवालस मुहुत्तिनो पण्णत्तो। १०. सव्वसिद्धस्स गं महाविमाणस्स उवरिल्लानो भिन्नग्गामो दुवालस जोयगाई उड्ढं उम्पतिता ईसिपमारा नामं पुढवी पण्णत्ता। ६. सर्व जघन्य/सबसे छोटा दिवस बारह , मुहूर्त का प्रज्ञप्त है । ... सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपरीतल स्नूपिका से बारह योजन ऊपर ईषत्-प्राग्भार नामक पृथिवी प्रज्ञप्त समवाय-१२ समवाय-सुत्तं ४२. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ईपत्-प्राग्भार पृथिवी के बारह नाम प्रज्ञप्त हैं। जैसे कि--- ईपत्, ईपत्-प्राग्भार, तनु, तनुतरी, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोक-प्रतिपूरणा और लोकानचूलिका। ११. ईसिपम्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेज्जा पण्णता, तं जहा -- ईसित्ति वा ईसिपम्मारत्ति वा तणूइ वा तणुयतरित्ति वा सिद्धित्ति वा सिद्धालएति वा मुत्तीति वा मुत्तालएत्ति वा बभेत्ति वा वंभवडेंसएति वा लोकपडिपूरणेत्ति वा लोगग्ग चूलिपाई वा। १२. इमीसे रणं रयगप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयारणं नेरइयारणं वारस पलिप्रोवमाई ठिई पण्णता। १३. पंचमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयारणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। १४. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं बारस पलिनोवमाई ठिई पण्णता। १५. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगह याणं देवाणं वारस पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. संतए कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं वारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १७. जे देवा महिदं महिंदमयं कंबु कंबुग्गीयं पुखं सुखं महापुवं पुंडं सुपुंड महानुडं नरिदं नरिंदकंतनरिंदुत्तरयोसगं यिमाणं देवताए उपवण्णा, तेसि एं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरीवमाई ठिई पाता। १२. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर मुछक नरयिकों की बारह पल्योपम स्थिनि प्रज्ञप्त है। १३, पांचवी पृथिवी [मप्रभा ] पर कुछेक नरयिकों की बारह सागरोपम स्थिति प्राप्त है। १४. कुछेक असुरकुमार देवों की बारह पल्योपम स्थिति प्राप्त है। १५. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की बारह पत्यांगम स्थिति प्रशान १६. लान्तक कल्प में कुछक देवों को बारह सागरोपम स्थिति प्राप्त है। १७. जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, पाम्यु, कम्वुग्रीव, पुर, मुग, महापुर, पुड, सुपुट, महापुर, नगेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरायतंसक विमान में देवत्व में उपपन्न है, उन देवारी उत्कृष्टतः बारह मागपम रिशान प्राप्त है। ममवाय-मुतं ममयाव-१२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. ते णं देवा वारसण्हं श्रद्धमासाणं श्रारणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससति वा । १६. तेसि रणं देवारणं बारसहि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे बारसहिं भवग्गणेहि सिज्भिस्संति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्सति । 'समवाय-सुत्त १८. वे देव बारह अर्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । ४४ १९. उन देवों के वारह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है | २० कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो वारह् भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- १२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो समवायो तेरहवां समवाय १.तेरस किरियाणा पण्णता तं जहा अट्ठादंडे अणट्ठादंडे हिंसादंडे प्रकम्हादंडे दिविपरित्रासियादंडे मुसावायवत्तिए अदिण्णादाणवत्तिए अज्झथिए मागवत्तिए मित्तदोसत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए ईरियावहिए नामं तेरसमे। १. क्रियास्थान/हिंसा-साधन तेरह प्रज्ञप्त हैं। जैसे कि~~ अर्थ-दण्ड, अनर्थ-दण्ड, हिंसा-दण्ड, अकस्मात्-दण्ड, दृष्टि-विपर्यास-दण्ड, मृपावादवतिक, अदत्तादानवतिक, आध्यात्मिक, मानवतिक, मित्र-द्वेपवर्तिक, मायावतिक, लोभवतिक और ईपिथिक नामक तेरह । २. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस । विमाणपत्थडा पण्णत्ता। २. सौधर्म-ईशान कल्प में तेरह विमान प्रस्तर प्रज्ञप्त हैं। ३. सोहम्मवडेंसगे णं विमाणे णं अद्धतेरसजोयरसयसहस्साई पायामविक्खंभेरणं पण्णत्ते। ३. सौधर्मावतंसक विमान अर्व-त्रयोदश शत-सहन/साढ़े बारह लाख योजन आयाम-विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त ४. एवं ईसागवडेंसगे वि। ४. इसी प्रकार ईशानावतंसक भी है । ५. जलयर-पाँचदिन-तिरिक्खजोणिप्राणं अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणीपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। ५. जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की योनि की दृष्टि से अर्द्ध-त्रयोदश शतसहस्र/साढ़े बारह लाख जाति और कुल की कोटियां प्राप्त हैं। - ६. पाणाउस्स गं पुवस्स तेरस बत्यू ‘पण्णत्ता। ६. प्राणायु-पूर्व के तेरह वस्तु/अधिकार प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुतं समवाय-१३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. गभवति श्रपंचेदिति रिक्खजोरिणप्राणं तेरसविहे पोगे पण्णत्ते, तं जहासच्चमरणपओगे मोसमरणपश्रोगे सच्चामोस मरणपश्रोगे श्रसच्चामोसमणपश्रोगे सच्चवइपोगे मोसवइपोगे सच्चामोसवइपोगे असच्चामोसवइपोगे श्रोरालि सरीरकायपोगे श्रोरालि - मोससरीरकायपोगे वेडन्विन सरीरकायपोगे वेउविश्रमीससरीरकायपोगे कम्मसरीरकायपोगे । ८. सूरमंडले जोयणेणं तेरसह एगसद्विभागे हिं जोयरणस्स ऊणे पण्णत्ते । ६. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं तेरस पविमाई ठिई पण्णत्ता । १०. पंचमाए णं पुढवीए श्रत्येगइयाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ११. असुरकुमाराणं देवाणं श्रत्येगइयाणं तेरस पलिश्रोवमाई ठिई' पण्णत्ता । प्रत्थे - गइयाणं देवाणं तेरस पलि श्रीमाई ठिई पण्णत्ता । १२. सोहम्मीसाणेसु कप्पे ' १३. लंतए कप्पे प्रत्येगइयाणं देवानं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । समवाय-सुत्तं ૪૬ ७. गर्भोपकान्तिक / गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के प्रयोग / परिस्पंदन तेरह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं । जैसे किसत्यमनः प्रयोग, मृपामनः प्रयोग, सत्यमृपामनः प्रयोग, असत्यामृपामनः प्रयोग, सत्यवचनप्रयोग, मृषावचनप्रयोग, सत्यमृषावचनप्रयोग, असत्यामृपावचनप्रयोग, औदारिकशरीरकायप्रयोग, श्रदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग कार्मणशरीरायप्रयोग | और ८. सूर्यमण्डल योजन के इकसठ भागों में से तेरह न्यून अर्थात् योजन का अड़तालीसवाँ भाग प्रज्ञप्त है । C. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की तेरह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १०. पाँचवीं पृथिवी [ धूमप्रभा ] पर कुछेक नैरयिकों की तेरह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ११. कुछेक असुरकुमार देवों की तेरह पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त हैं । १२. सौधर्म - ईशान कल्प में कुछेक देवों की तेरह पत्योपम स्थिति प्रजप्त है । १३. लान्तक कल्प में कुछेक देवों की तेरह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । समवाय- १३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. जे देवा वज्ज सुवज्ज वजावत्तं वज्जप्पम वज्जतं वाजवणं वज्जलेसं वज्जज्झयं वज्जसिगं वज्जसिढ़ वज्जकूडं वज्जुत्तरवडेंसग वइर वइरावत्तं वइरप्पमं वइरकतं वइरवणं वइरलेसं वइरज्झयं वइरसिंग वइरसिद्धं वइरकूडं वइरुत्तरवडेंसग लोग लोगावत्तं लोगप्पमं लोगकंतं लोगवण्णं लोगलेसं लोगभयं लोगसिगं लोगसिढ़ लोगकडं लोगुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १४. जो देव पच, नुवच, वजावत, वज्रप्रभ, वनकान्त, बनवणं, वज्रलेध्य, वज्ररूप, वचशृंग, बच्चनृप्ट, वाट, वनोतरावतंनया, वर, वैरावर्त, वैरप्रभ, वरवान्न, वरवर्ण, वरलेश्य, वैररूप, वरशृंग, वैरसृष्ट, वरकूट, वरोत्तगवतंसक, लोक, लोकावर्त, लोकमन, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोक्शृंग, लोकमृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः तेरह सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। १५. ते गं देवा तेरसहिं प्रद्धमासेहि पारगमंति वा पाणमंति वा ऊससति वा नीससंति वा । १५. वे देव तेरह अर्घमासों पक्षों में पान/ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ् । वास लेते हैं, नि:श्वाम छोड़ते है। १६. तेसि गं देवाणं तेरसहि वाससह- सेहिं प्राहारळे समुप्पज्जइ । १६. उन देवों के तेरह हजार वर्ष में पाहार की इच्छा ममुत्पन्न होती १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे तेरसहिं नवग्गहणेहि सिभिसंति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिच्वाइस्सति सम्वदुरसारणमंतं करिस्संति । १९. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो केन्द्र भव ग्रहण कर निद्ध होगे. वृद्ध होगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्वदुःजान्त करेंगे। समवाय-सुत्त ४७ समवाय-१३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमो समवानो चौदहवां समवाय १. चउद्दस भूअग्गामा पण्णता, तं जहासुहमा अपज्जत्तया, सुहुमा पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, वादरा पज्जत्तया, बेइंदिया अपज्जत्तया, बेइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, चरिदिया अपज्जत्तया, चउरिदिया पज्जत्तया, पंचिदिया असण्णिप्रपज्जत्तया, पंचिदिया असणिपज्जत्तया, पंचिदिया सण्णिअपज्जत्तया, पंचिदिया सण्णिपज्जत्तया । १. भूतग्राम/जीव-समास चौदह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किसूक्ष्म-अपर्याप्तक/अपूर्ण, सूक्ष्मपर्याप्तक/पूर्ण, वादर अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय-संजी पर्याप्तक। २. चउद्दस पुन्वा पण्णत्ता, तं जहाउप्पायपुन्वमग्गेणियं, च तइयं च वीरियं पुव्वं ।। अत्योनत्थिपवाय, तत्तो नाणप्पवायं च ॥ सच्चप्पवायपुवं, तत्तो पायप्पवायपुव्वं च। कम्मप्पवायपुव्वं, पच्चक्खाणं भवे नवमं ।। विज्जाअणुप्पवायं, अवझपाणाउ बारसं पुवं । तत्तो किरियविसालं, पुव्वं तह बिंदुसारं च ।। २. पूर्व | दृष्टिवाद-अंग-आगम-विभाग चौदह प्रज्ञप्त है। जैसे किउत्पाद-पूर्व, अग्रायणीय-पूर्व, वीर्यपूर्व, अस्तिनास्ति प्रवाद-पूर्व, ज्ञानप्रवाद-पूर्व, सत्य-प्रवाद-पूर्व, आत्मप्रवाद-पूर्व, कर्म-प्रवाद-पूर्व, प्रत्याख्यान प्रवाद-पूर्व, विद्यानुवाद/पूर्व, अवन्ध्य पूर्व, प्राणावाय-पूर्व, क्रियाविशाल पूर्व और लोक-बिन्दुसारपूर्व। समवाय-सुत्तं ४८ समवाय-१४ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. अग्गेणीअस्स णं पुवस्स चउद्दस पत्थू पण्णत्ता। ३. अग्रायणीय-पूर्व के चौदह वस्तु/ अधिकार प्रज्ञप्त है। ४. समणस्स णं भगवनो महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सोमो उक्कोसिमा समणसंपया होत्था। ४. श्रमण भगवान् महावीर की चौदह हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा थी। ५. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहामिच्छविट्ठी सासायणसम्मदिहि सम्मामिच्छदिद्धि अविरयसम्मदिद्धि विरयाविरए पमत्तसजए अप्पमत्तसंजए नियट्टिवायरे अनियट्टिबायरे सुहुमसंपराए-- उवसमए वा खवए वा, उवसतमोहे सजोगी केवली अजोगी केवली । ५. कर्म-विशुद्धि-मार्ग की अपेक्षा मे जीवस्थान/गुणस्थान चौदह प्रज्ञप्त है। जैसे किमिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि विरताविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, निवृत्तिबादर, अनिवृत्तिवादर, सूक्ष्मसम्पराय-उपशामक या क्षपक, उपशान्तमोह. क्षीणमोह, मयोगिकेवली और अयोगिकेवली । ६. मरहेरवयाोणंजीवानो चउद्दसचउद्दस जोयणसहस्साई चत्तारि य एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगूणवोसे भागे जोयरणस्स प्रायामेणं पण्णत्तानो। .६. भरत और ऐरवत की जीवा/लम्बाई चौदह-चौदह हजार, चार सौ एक योजन और योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग कम आयाम/लम्बी प्रज्ञप्त है। ७. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतवक्क बट्टिस्स चउद्दस रयणा पण्णता, तं जहाइत्योरयणे सेणावइरयणे गाहावहरयणे पुरोहियरयणे वड्डइरयणे मासरयणे हत्यिरयणे असिरयणे बंडरयणे चक्करयणे छत्तरयणे चम्मरयणे मणिरयणे कागिणिरयणे। ७. प्रत्येक चातुरन्त/नतुर्दिक चक्रवर्ती राजा के चौदह रत्न प्राप्त है। जैसे किस्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, पुरोहितरत्न, वर्धकीरत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न, अमिरत्न, दंडरत्न, नररत्न, छत्ररत्न, चर्मरस्न, माग्न और काकिरिगरत्न । समवाय-मुत्त ममवाय-१४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जम्बुद्वीप द्वीप में चौदह महानदियाँ पूर्व तथा पश्चिम से लवण समुद्र में समर्पित होती हैं । जैसे कि-- गंगा-सिन्धु, रोहिता-रोहितांसा, हरी-हरीकान्ता सीता-सीतोदा, नरकान्ता-नारीकान्ता, सुवर्णकूला रुप्यकूला, रक्ता और रक्तवती । । ६. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की चौदह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १०. पाँचवीं पृथिवी [धूमप्रभा] पर नैरियकों की चौदह सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। . ११. कुछेक असुरकुमार देवों की चौदह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ८. जंबुद्दीवेणं दीवे चउद्दस महानईओ पुवावरेणं लवणसमुद्द समति, तं जहागंगा सिंधू रोहिया रोहिअंसा हरी हरिकंता सीना सोओदा नरकंता नारिकता सुवण्णकूला रुपकूला रत्ता रत्तवई। ६. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १०. पंचमाए णं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ११. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- याणं चउद्दस पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता । १२. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ याणं देवाणं चउद्दस पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. संतए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. महासुक्के कप्पे देवाणं जहण्णणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १५. जे देवा सिरिकंतं सिरिमहियं सिरिसोमनसं लंतयं काविळं महिंद महिंदोकतं महिंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १२. सौधर्म और ईशान कल्प में कुछेक देवों की चौदह पल्योपम स्थिति प्राप्त है। १३. लान्तक कल्प में कुछेक देवों की चौदह सागरोपम स्थिति प्रजप्त है । चादहन १४. महाशुक्र कल्प में कुछेक देवों की जघन्यत:/न्यूनतः चौदह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. जो देव श्रीकान्त श्रीमहित, श्रीसौम नस, लान्तक, कापिष्ठ, महेन्द्र, महेंद्रावकान्त और महेन्द्रोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृप्टतः चौदह सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। "मवाय-सुत्तं समवाय-१४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ते णं देवा चउद्दसह श्रद्धमासहि श्राणमति वा पाणमति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १७. तेसि णं देवाणं चउद्दसहि वाससहस्सेहि श्राहारट्ठे समुपवज्जइ । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे उद्दसह भवग्गणेह सिज्भिस्सति बुज्भिस्सति मुन्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-मुर्त ५.१ १६. वे देव चौदह अर्धमासों / पक्षों में न / आहार लेते हैं, पान करते है । उच्छवास लेते है, निःश्वास छोड़ते है | १७. उन देवों के चौदह हजार वर्ष में प्रहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १८. कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो चौदह भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे सर्वदुःखान्त करेंगे । समय- १९ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमो समवायो पन्द्रहवां समवाय १. पण्णरस परमाहम्मिश्रा पण्णत्ता, तं जहाअंबे अंबरिसी चेव, सामे सबलेत्ति यावरे । रुद्दोवरुद्दकाले य, ___महाकालेत्ति यावरे ॥ असिपत्ते धणु कुम्भे, वालुए वेयरणीति य। खरस्सरे महाघोसे, एमेते पण्णरसाहिबा ॥ १. परमाधार्मिक देव पन्द्रह प्रज्ञप्त हैं । जैसे किअम्ब, अम्बरिषी, श्याम,शवल, रुद्र, उपरुद, काल, महाकाल, असिपत्र, धनु, कुम्भ, वालुका, वैतरणी, खरस्वर और महाघोप । २. अर्हत् नमि ऊँचाई की दृष्टि से पन्द्रह धनुष ऊँचे थे। २. णमी णं परहा पण्णरस धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ३. धुवराहू णं बहुलपक्खस्स पाडिवयं पण्णरसइ भागं पण्णरसइ मागेणं चंदस्स लेसं पावरेत्ता णं चिट्ठति, तं जहापढमाए पढम भाग, बीमाए बीयं भागं, तइनाए तइयं भागं, चउत्थीए चउत्थं मागं, पंचमीए पंचम भाग, छट्ठीए छट्ठभागं, सत्तमीए सत्तमं भाग, अट्ठमीए अट्टमं भागं, नवमीए नवमं भाग, दसमीए दसमं भागं, एक्कारसीए एक्कारसमं भार्ग, बारसीए बारसमं भागं, तेरसीए तेरसमं भाग, चउद्दसीए चउद्दसमं मागं, पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं । ३. ध्रुवराहु बहुल-पक्ष/कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चन्द्र लेश्या के पन्द्रहवेंपन्द्रहवें भाग का आवरण करता है । जैसे किप्रथमा/प्रतिपदा को प्रथम भाग, द्वितीया को दो भाग, तृतीया को तीन भाग, चतुर्थी को चार भाग, पंचमी को पांच भाग, षष्ठी को छह भाग, सप्तमी को सात भाग,अष्टमी को आठ भाग, नवमी को नौ भाग, दशमी को दश भाग, एकादशी को ग्यारह भाग, द्वादशी को बारह भाग, त्रयोदशी को तेरह भाग, चतुर्दशी को चौदह भाग, पंचदशी/अमावस्या को पन्द्रह भाग का प्रावरण करता है । समवाय-सुत्तं ५२ समवाय-१५ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तं चैव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तं जहा - पढमाए पढमं भागं जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं । ५. छ णक्खता पण्णरस मुहुत्तसंजुत्ता पण्णत्ता, तं जहा सतभिसय भरणि श्रद्दा, असलेसा साइ तह य जेट्ठा य । पण्णरसमुत्तसंजुत्ता ॥ ६. चेत्तासोएस मासेसु पण्णरसमुहुत्तो दिवसो भवति । एते छष्णक्खत्ता, ७. एवं चेत्तासोएस मासेसु पण्णरसमुहुत्ता राई भवति । ८. विज्जाश्रणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पण्णरस वत्थू पण्णत्ता । ६. मणूसाणं पण्णरसविहे पनोगे पण्णत्ते, तं जहा १. सच्चमणपोगे, २. मोसमणपोगे, ३. सच्चामोसमणपश्रोगे, ४. असच्चामोसमणझोगे, ५. सच्चवइपोगे, ६. मोसवइपोगे, ७. सच्चामोसवइपोगे, ८. प्रसच्चामोतवइ-पनोगे, ६. श्रोरालियसरीरकायपनोगे, १०. प्रोरानियमोससरीरकायपद्मोगे, ११. वेडव्वियसरीरकायपद्मोगे, १२. वेडव्वियमोससरीर समवाय-लुतं ५३ शुक्ल पक्ष में ४. वही [ ध्रुव-राहु ] उपदर्शन / प्रकाशित कराता रहता है । जैसे कि - प्रथमा को प्रथम भाग से लेकर पंनदर्श / पूर्णमामी को पन्द्रह भाग पर्यन्त उपदर्शन कराता रहता है । ५. पन्द्रह मुहुर्त संयुक्त नक्षत्र छह अज्ञप्त हैं । जैसे कि शतभिपक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा -- ये छह नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त संयुक्त रहते हैं । ६. चैत्र और आश्विन माह में पन्द्रह मुहूर्त का दिवस होता है । ७. इसी प्रकार चैत्र और आश्विन माह में पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है । 5. विद्यानुवाद-पूर्व के वस्तु प्रधिकार पन्द्रह प्रजप्त हैं । ६. मनुष्यों के प्रयोग / परिस्पन्दन पन्द्रह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि१. सत्यमनः प्रयोग, २. मृपामनः प्रयोग ३. सत्यमृपामनः प्रयोग, ४. ग्रमन्यमृपामनः प्रयोग ५. सत्यवचनप्रयोग, ६. मृपावचनप्रयोग, ७. नत्यमृपावचनप्रयोग, ८. श्रसत्यमृपावचनप्रयोग, 8. श्रदारिक शरीर-कायप्रयोग, १०. श्रीवारिक मिथ शरीरकायप्रयोग, ११. चैकिय रोग्यायप्रयोग, १२. वैयमिश्र शरीरकाय समवान- १५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायपोगे, १३. आहारयसरीरकायपोगे, १४. आहारयमीससरीरकायपोगे, १५. कम्मयसरीरकायपोगे। प्रयोग, १३. आहारक शरीरकायप्रयोग, १४. पाहारकमिश्र शरीरकाय प्रयोग और १५. कार्मण शरीरकायप्रयोग। १०. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं पण्णरस पलिमोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १०. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों को पन्द्रह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. पंचमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ११. पांचवीं पृथिवी [ धूमप्रभा ] पर कुछेक नैरयिकों की पन्द्रह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं पण्णरस पलिभोवमाई ठिई पण्णता। १२. कुछेक असुरकुमार देवों की पन्द्रह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १३. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ याणं देवारणं पण्णरस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की पन्द्रह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १४. महासुक्के कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १४. महाशुक्र कल्प में कुछेक देवों की पन्द्रह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. जे देवा गंदं सुणंदं गंदावत्तं गंदप्पभं णंदकंतं गंदवण्णं णंदलेसं णंदज्झयं गंदसिंगं गंदसिट्ठ णंदकूडं णंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १५. जो देव नन्द, सुनन्द, नन्दावर्त, नन्द प्रभ, नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, नन्दशृंग, नन्दसृष्ट, नन्दकूट और नन्दोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः पन्द्रह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १६. ते णं देवा पण्णरसण्हं प्रद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। १६. वे देव पन्द्रह अर्धमासों में आन/आहार लेते हैं, पान करते है, उच्छ वास लेते है, निःश्वास छोड़ते हैं। समवाय-सुत्तं समवाय-१५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. तेसि णं देवाणं पण्णरसहि वास- सहस्सेहिं प्राहारट्टे समुप्पज्जइ। १७. उन देवों के पन्द्रह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे पण्णरसहिं भवग्गहणेहि सिम्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुयखाणमंतं करिस्संति । १८. कुछेक भवसिद्धिक जीव हैं, जो पन्द्रह भव ग्रहणकर मिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । ५५ समवाय-सुत्तं मरवाय-१६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमो समवानो सोलहवां समवाय १. सोलस य गाहा-सोलसगा पण्णत्ता, तं जहासमए वेयालिए उवसग्गपरिण्णा इत्थिपरिण्णा निरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिमासिए वीरिए धम्मे समाही मग्गे समोसरणे पाहत्तहिए गंथे जमईए गाहा । २. सोलस कसाया पण्णता, तं १. गाथा-पोडपक/सूत्रकृतांग के अध्ययन सोलह प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि१. समय, २. वैतालीय, ३. उपसर्गपरिना, ४. स्त्री-परिज्ञा, ५. नरकविभक्ति, ६. महावीरस्तुति, ७. कुशीलपरिभापित, ८. वीर्य, ६. धर्म, १०. समाधि, ११.मार्ग, १२. समवसरण, १३.याथातथ्य,१४. ग्रन्थ, १५. यमकीय और १६. सोलहवां गाथा । २. कषाय सोलह प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि अनन्तानुवन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्वी माया, अनन्तानुवन्धी लोभ, अप्रत्याख्यानकपायक्रोध, अप्रत्याख्यानकपाय मान, अप्रत्याख्यानकषाय माया, अप्रत्यास्यानकपाय लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ । अणंताणुवंधी कोहे, अणंताणुबंधी माणे, अणंताणुवंधी माया, अणंताणुबंधी लोभे, अपच्चक्खाणकसाए कोहे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अपच्चक्खाणकसाए माया, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, पच्चक्खाणावरणे माणे, पच्चक्खाणावरणा माया, पच्चक्खाणावरणे लोभे, संजलणे कोहे, संजलणे माणे, संजलणा माया, संजलणे लोभे । ३. मंदरस्स नं पव्वयस्स सोलस नामधंया पण्णत्ता, त जहामंदर-मेरु-मणोरम, सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। रयणुच्चय पियदसण, मझे लोगस्स नामी य ॥ समवाय-सुत्तं ३. मन्दर-पर्वत के सोलह नाम प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि१. मन्दर, २. मेरु, ३. मनोरम, ४. सुदर्शन, ५. स्वयम्प्रभ, ६. गिरिराज, ७. रत्नोच्चय, ८. प्रियदर्शन, ६. समवाय-१६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : - प्रत्ये अ सूरियावत्ते, सूरियावरणेत्ति । उत्तरे य दिसाई य, वडेंसे इन सोलसे ॥ लोकमध्य, १०. लोकनामि. ११. अर्थ. १२. सूर्यावर्त, १३. सूर्यावरण, १४. उत्तर, १५. दिशादि और १६. अवतंस । ४. पासस्स गं अरहतो पुरिसादाणी यस्स सोलस समणसाहस्सीमो उक्कोसिमा समण-संपदा होत्या । ४. पुरुषादानीय अहंद पार्श्व की सोलह हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा थी। ५. पायप्पवायस्स णं पुवस्स सोलस वत्सू पण्णता। . ५. प्रात्म-प्रवाद पूर्व के वस्तु/अंधिकार सोलह प्राप्त है। ६. चमरबलीणं प्रोवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साइं पायामविखंभेणं पण्णते। । ६. चमर-वली का अवतारिकालयन सोलह हजार योजन आयाम-विष्कम्भक/विस्तृत प्रजप्त है। ७. लवणे णं समुद्दे सोलस जोयण सहस्साई उस्सेहपरिवुडीए पण्णते। ७. लवण-समुद्र में उत्सेध/उफान की वृद्धि सोलह हजार योजन प्रजप्त है। ८. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिनोवमाइं ठिई पण्णता। ८. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की सोलह पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. पंचमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. पांचवीं पृथिवी [ धूमप्रभा ] पर कुछेक नैरयिकों की सोलह मागरोपम स्थिति प्राप्त है। १०. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं सोलस पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। १०. कुछेक असुरकुमार देवों की मोलह पल्योपम स्थिति प्राप्त है। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ- याणं देवाणं सोलस पलिनोवमाई ठिई पण्णता। ११. माघम-ईशान कल्प में फुदक देवों की मोलह पन्योपम स्थिति प्राप्त समवाय सत्तं ममवाय Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. महासुक्के कप्पे देवाणं प्रत्येगइ- याणं सोलस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १२. महाशुक्र कल्प में कुछक देवों की सोलह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १३. जे देवा पावत्तं वियावत्त नदिया वत्त महाणदियावत्तं अंकुसं अंकुसपलब भई सुभई महाभदं सव्वानोमदं भद्दुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। १४. ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १३. जो देव आवर्त, व्यावर्त, नन्द्यावर्त, महानन्द्यावर्त, अंकुश, अंकुशप्रलम्ब, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और भद्रोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः सोलह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १४. वे देव सोलह अर्धमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ् वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते १५. तेसि णं देवाणं सोलसवास__ सहस्सेहिं प्राहारळे समुप्पज्जइ । १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सोलसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्सति परिनिन्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। १५. उन देवों को सोलह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है। १६. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो सोलह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्तं ५८ समवाय-१६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमो समवाश्रो १. सत्तरसविहे प्रसंजमे पण्णत्ते तं जहा -- पुढवीकायप्रसंजमे, श्राउकायश्रसंजमे, ते कायश्रसंजमे, वाउकाय जमे, चणस्सइकायासंजमे, वेइंदियश्रसंजमे, तेइंदियप्रसंजमे, चरदिश्रसंजमे, पंचिदियत्रसंजमे, प्रजीवकायप्रसंजमे, पेहाश्रसंजमे, उपेहाश्रसंजमे, श्रवहट्टु श्रसंजमे, श्रप्पमज्जणा श्रसंजमे मणप्रसंजमे, वइप्रसंजमे, कायश्रसंजमे । २. सतरसविहे तं जहा - पुढवीकायसंजमे, श्राउकायसंजमे, तेउकायसंजमे, बाउकाय संजमे, वणस्सइकाय संजमे, वेइंदियसंजमे, तेइं दियसंजमे, चरदिपसंजमे, पंचिदिसंजमे, प्रजीवकायसंजमे, पेहासंजमे, उपेहासंजमे, अवहट्टुसंजमे, पमज्जणासंजमे, मणसंजमे, asसंजमे, कायतंजमे । संजमे पण्णत्ते समवाय-सुतं ५.६ सतरहवां समवाय १. असंयम सतरह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि -- १. पृथिवीकाय असंयम, २. अप्कायअसंयम, ३. तेजस्काय- श्रसंयम. ४. वायुकाय असंयम, ५. वनस्पतिकाय असंयम, ६. द्वीन्द्रिय-असंयम, ७. श्रीन्द्रियसंयम ८ चतुरिन्द्रियअसंयम, ६. पंचेन्द्रिय-संयम, १०. प्रजीवकाय असंयम, ११. प्रेक्षाअसंयम, १२. उपेक्षा-प्रसंयम, १३. अपहृत्य - प्रसंयम, १४. अप्रमार्जना - असंयम, १५. मन: असंयम, १६. वचन-प्रसंयम, १७. काय श्रसंयम | २. संयम सतरह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि- १. पृथिवीकाय-संयम, २. चप्कायसंयम, ३. तेजस्काय- संयम, ४, वायुकाय संयम, ५. वनस्पतिकाय-संयम, ६. द्वीन्द्रिय संयम, ७. श्रीन्द्रिय-संयम ८. चतुरिन्द्रिय-संयम ६. पंचेन्द्रियसंयम, १०. प्रजीवकाय-संयम ११. प्रेक्षा-संयम, १२ उपेक्षा-मंत्रम, १३. प्रपत्य-संगम, १४. प्रमार्जनासंयम, १५. मनः संयम, १६. वचनसंयम, १७. काय संयम | ममयाय- १७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. माणुसुत्तरे णं पव्वए सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए उड़ढ उच्चत्तणं पण्णत्ते | ४. सन्वेसिपि णं वेलंधर-प्रणुवेलंधरगराईणं श्रावासपव्वया सत्तरसएक्कवीसाई जोयणसयाई उड़ढं उच्चतेणं पण्णत्ता । ५. लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वगेणं पण्णत्ते । ६. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरम णिज्जाश्रो भूमिभागाश्र सारिरेगाई सत्तरस जोयणसह"स्साई उड्ढ उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणाणं तिरियं गती पवत्तति । ७. चमरस्त णं असुरिदस्स असुर रण्णो तिगिद्दिकूडे उप्पायपत्वए सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते । ८. वलिस्स णं वतिरोर्याणदस्स वतिरोयणरणो हर्यागंदे उप्पायपव्वए सत्तर एक्कवीसाइं जोयणसयाई उड़ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते । ६. सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा - श्रावीईमरणे श्रोहिमरणे श्रायंतियमरणे वलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे समवाय-सुत्तं ६० ३. मानुपोत्तर पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से सतरह सौ इक्कीस योजन ऊँचा प्रज्ञप्त है । ४. सर्व वेलन्धर और अनुवेलन्धर नागराजाओं के आवास पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से सतरह सौ इक्कीस योजन ऊँचे प्रज्ञप्त हैं । ५. लवण समुद्र का सर्वाग्र / शिखर सतरह हजार योजन प्रज्ञप्त है । ६. इस रत्नप्रभा पृथिवी में बहुसम / प्राय: रमरणीय भूमि भाग से सतरह हजार योजन से अधिक ऊपर उठकर तत्पश्चात् चारण की तिर्यक् गति प्रवर्तित होती है । ७. असुरराज असुरेन्द्र चमर का तिगिछिकूट - उत्पात - पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से सतरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा प्रज्ञप्त है । ८. सुरेन्द्र वलि का रुचकेन्द्र - उत्पात - पर्वत ऊंचाई की दृष्टि से सतरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा प्रज्ञप्त है । ६. मरण सतरह प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसे कि - अवीचि मरण / अविच्छेद - मरण, अवधि मरण / मर्यादा-मरण, प्रात्यन्तिक-मरण / अद्यतन-मरण, वलन्मरण / अव्रत-मरण, अन्तःशल्य समवाय- १७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छउमत्यमरणे केवलिमरणे वेहास- । मरणे . गिद्धपट्टमरणे भत्तपच्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पायोवगमणमरणे। मरण/संकल्पपूर्वक-मरण, · तद्भवमरण/तात्कालिक-मरण, वाल-मरणंअज्ञान-मरण,पण्डित-मरण/समाधिमरण, बाल-पण्डित-मरण/देशविरतमरण, छद्मस्थ-मरण, केवलि-मरण, वैहायस-मरण/अकाल-मरण,मृद्धपृष्ठ-मरण/गलित-मरण, भक्तप्रत्याख्यान-मरण/संलेखना, इंगिनीमरण/स्वावलम्बी-मरण, पादोपगमन-मरण/ध्यानस्थ-मरण । १०. सुहमसंपराए णं भगवं सुहुमसंप रायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीमो णिबंधति, तं जहा आभिणिवोहियणाणावरणे, सुयणाणावरणे, प्रोहिणाणावरणे, मणपज्जवणाणावरणे, केवलणाणावरणे, चक्खुदंसणावरणे, अचक्खुदंसणावरणे, प्रोहीदंसणावरणे, केवलदसणावरणे, सायावेयणिज्ज, जसोकित्तिनाम, उच्चागोयं, दाणंतरायं, लामंतरायं, भोगतरायं, उवभोगतरायं, वीरिअनंतरायं । १०. सूक्ष्म-सम्पराय-भाव में वर्तमान सूक्ष्म सम्पराय भगवान् सतरह कर्मप्रकृतियों का बन्धन करते हैं । जैसे कि१. आभिनिवोधिक-ज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्ययज्ञानावरण, ५. केवलज्ञानावरण, ६. चक्षुर्दर्शनावरण, ७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ८. अवधिदर्शनावरण, ६.योवनदर्शनावरण, १०. सातावेदनीय, ११. यशस्कीर्तिनामकर्म, १२. उच्चगोत्र, १३. दानान्तराय, १४. लाभान्तराय, १५. भोगान्तराय, १६. उपभोगान्तराय और १७. वीर्यान्तराय । ११. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं सत्तरस । पलिग्रोवमाइं ठिई पम्पत्ता । ११. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की सतरह पल्योपम स्थिति प्राप्त है। १२. पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं उक्को सेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णता। १२. पांचवी पृथिवी [घूमप्रभा] पर कुछेक नरयिकों की जघन्यतः सतरह मागरोपम स्थिति प्राप्त है। समवाय-सुत्तं ममवाय-१७ ८ " Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. छठ्ठीए पुढवीए नेरइयाणं जहणणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई १३. छठी पृथिवी [तमःप्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की जघन्यतः सतरह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। पण्णत्ता। १४. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं सत्तरस पलिनोवमाई ठिई पण्णता। १४. कुछेक असुरकुमार देवों की सतरह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १५. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ- याणं देवाणं सत्तरस पलिनोवमाई। ठिई पण्णत्ता। १५. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की सतरह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त १६. महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई १६. महाशुक्र कल्प में देवों की उत्कृष्टतः सतरह सागरोपम स्थिति प्राप्त है। पण्णत्ता। १७. सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १७. सहस्रार कल्प में देवों की जघन्यतः सतरह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १८.जे देवा सामाण, सुसामाणं, महा सामाणं, पउम, महापउम, कुमुदं, महाकुमुदं, नलिणं, महानलिणं, पोंडरीअं, महापोंडरीनं, सुक्कं, महासुक्क, सोह, सोहोकतं, सीहवी, भाविनं, विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। १८. जो देव सामान, सुसामान, महा सामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज और भावित विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः सतरह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १६. ते णं देवा सत्तरसहि अद्धमासेहिं पारगमति वा पाणमंति वा ऊससति वा नीससति वा। १९. वे देव सतरह अर्घमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं. पान करते हैं, उच्छ वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते समवाय-सुत्तं ६२ समवाय-१७ .. समवाय-१७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. तेसि णं देवाणं सत्तरसहि वास- सहस्सेहिं प्राहारळे समुप्पज्जइ । २०. उन देवों के सतरह हजार वर्ष में माहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । २१. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, ने सत्तरसहि भवग्गहणेहि सिम्झिसंति बुझिस्सति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्सति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । २१. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो सतरह भव ग्रहणकर मिद्ध होगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिवृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-१७ समवाय मुत Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमो समवाश्र १. अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं जहाप्रोरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ, नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं पि श्रणं न समणुजारगाई | श्रोरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ, नोवि अण्णं वायाए सेवावेs, वायाए सेवंतं पि श्रण्णं न समणुजागाइ 1 ओरालिए कामभोगे णेव सयं काणं सेवइ, नोवि श्रवणं कारणं सेवावे, कारणं सेवंतं पि श्र न समणुजारणाइ । दिव्वे कामभोगे व सयं मरणं सेवइ, नोवि प्रणं मरणं सेवावेइ, मरणं सेवंतं पि श्रणं न समणुजारणाइ । दिव्वे कामभोगे व सयं वायाए सेवइ, नोवि अण्णं वायाए सेवावेद, वायाए सेवतं पि श्रणं न समजाणाइ | समवाय-सुत्तं ६४ अठारहवां समवाय १. ब्रह्मचर्यं अठारह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि - श्रदारिक/ शारीरिक काम भोगों का न तो स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता 1 और न मन से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है । श्रदारिक / शारीरिक काम-भोगों का न तो स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न वचन से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है । दारिक/ शारीरिक काम-भोगों का न तो स्वयं काया से सेवन करता है, ही अन्य को काया से सेवन कराता है और न काया से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है । दिव्य / दैविक काम - भोगों का न तो स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है। और न मन से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है । दिव्य / दैविक काम भोगों का न तो स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न वचन से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है । समवाय - १८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्वे कामभोगे रणेव सर्य कारणं सेवइ, नोवि अण्णं काएरणं सेवावेइ, काएवं सेवंतं पि अण्णं न समणुजारगाइ। दिव्य /दैविक काम-भोगों का न तो स्वयं काया से सेवन करता है, न ही अन्य को फाया से सेवन कराता है और न काया से सेवन करते हुए अन्य का समर्थन करता है। २. अरहतो रणं अरिटुनेमिस्स अट्ठारस समसाहस्सोमो उक्कोसिया समणसंपया होत्या। २. अर्हत् अरिष्टनेमि की अठारह हजार साधुनों की उत्कृष्ट श्रमरण-सम्पदा थी। ३. समणेणं भगवया महावीरेणं समरणारणं रिणग्गंधारणं सखुड्डयविअत्तारणं अट्ठारस ठाणा पण्णता । तं जहावयछक्कं कायछक्क प्रकप्पो गिहिभायरएं। पलियंक निसिज्मा य, सिगाणं सोभवज्जणं ॥ ३. श्रमण भगवान् महावीर द्वारा स - द्रक-व्यक्त श्रमण निर्गन्यों के लिए प्रठारह स्थान प्रज्ञप्त हैं। जैसे किछह व्रत, छह काय, अफल्प, गृहिभाजन, पर्यक, निपया, स्नान, शोभा-वर्जन । ४. पायारस्स णं भगवतो सचूलि प्रागस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। ४. भगवान की प्राचार-चूनिकर के पठारह हजार पद प्राप्त हैं। ५. वंभीए णं लिवीए अद्यारसविहे लेखविहारणे पण्णते, तं जहा--- १.बंभी, २. जवरणालिया, ३. दोसऊरिया, ४. सरोठ्ठिया, ५. सरसाहिया, ६. पहाराइया, ७. उच्चत्तरिया, ८. अक्सरपुट्टिया ६. भोगवइया, १०.वेणइया, ११. निण्हइया, १२. अंकलियो, १३. गणियलिवी, १४. गंधयलिवी, १५. प्रायंसलिवो, १६. माहेसरी, १७. दामिली, १८.पोलिरी। ५. ब्राह्मी लिपि के लेस-विधान अठारह प्रकार के प्राप्त है। जैसे कि-- १. ब्राह्मी, २. यावनी, ३. दोपडपरिका, ४. सरोष्ट्रिका, ५. परमाविका, ६. महारातिना, ७. उन तरिका, ८. अक्षरपृष्ठिका, ६. मोगपतिका, १०. वैनतिका, ११.नि. विका, १२. अंकलिपि, १३. गणित लिपि, १४.गापर्वनिपि, १५. प्रादर्गलिपि, १६. माहेश्वरी. १७. दाविष्टी पौर १८. पोलिन्दी। ममवार-१० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. श्रत्थिनत्थिष्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्यू पण्णत्ता । ७. धूम पहा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस् बाहल्लेगं पण्णत्ता । ८. पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ सइ उक्कोसेणं अट्ठार समुहत्ता रातो भवइ । ६. इमीसे गं रयरगप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयारणं अट्ठारस पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता | १०. छट्ठी पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । ११. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं अट्ठारस पलिश्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १२. सोहम्मीसाणेसु कप्पे प्रत्येगइ - याणं देवानं अट्ठारस पलिओमाई ठिई पण्णत्ता | १३. सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेरगं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. आणए कप्पे देवारणं जहांरेंगं श्रट्ठारस नागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ममवाय-मुत्तं ૬૬ ६. ग्रस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के वस्तु / अधिकार अठारह प्रज्ञप्त हैं । ७. घुमप्रभा पृथिवी का बाहुल्य एक शत- सहस्र / एक लाख अठारह हजार योजन प्रज्ञप्त है । ८. पौष और ग्राषाढ़ माह में दिवस उत्कृष्टतः अठारह मुहूर्त का होता हैं और रात उत्कृप्टतः अठारह मुहूर्त की होती है । ६. इम रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की उत्कृष्टतः अठारह पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । .. १०. छठी पृथिवी [तमः प्रभा ] पर कुछेक नैरयिकों की अठारह पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ११. कुछेक असुरकुमार देवों की अठारह पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १२. सौधर्म - ईशान कल्प में कुछेक देवों की अठारह पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १३. सहस्रार कल्प में देवों की उत्कृष्टतः अठारह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है, १४. आनत कल्प में कुछेक देवों की जघन्यतः/न्यूनतः अठारह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है | समवाय- १८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिट्ठे सालं समारणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिएणगुम्मं पुंडरीश्रं पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववरणा, तेसि रणं देवारणं उक्कोसेरगं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. ते णं देवा अट्ठारसह श्रद्धमासेहि प्राणमंति वा पाणमति वा ऊससति वा नीससंति वा । १७. तेसि णं देवागं अट्ठारसहि वाससहस्सेहि श्राहारट्ठे समु प्पज्जइ । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे अट्ठारसह भवग्गहणेहि सिज्भिस्संति बुज्भिस्सति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सन्वदुक्खारणमतं करिस्सति । समवाय-सुत्तं १५. जो देव काल, सुकाल, महाकाल, अंजन, रिष्ट, शाल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, सुमाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुण्डरीक, पुण्डरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों को उत्कृष्टत: अठारह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १६. वे देव अठारह अर्धमासों / पक्षों में धान / श्राहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, नि.श्वास छोड़ते है । १७. उन देवों के अठारह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १८. कुछेक भव- सिद्धिक जीव है, जो अठारह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । E3 ममगाव-१ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणवीसमो समवानो उन्नीसवां समवाय १. एगरणवीसं पायजमयरणा पणत्ता, त जहाउरिखतणाए संघाडे, अडे कुम्भे ये सेलए। तु विय रोहिणी मल्ली, मागंदी चदिमातिय॥ दावद्दये उदगपाए, . मडक्के तेतलीइ य। नदीफले अवरकका, प्राइण्णे सु सुमाइ य॥ प्रवरे य पोंडरोए, गाए एगरणवीसइमे। १ ज्ञाता-सूत्र के उन्नीस अध्ययन प्रज्ञप्त हैं। जैसे कि१. उत्क्षिप्तज्ञात, २. संघाट, ३. अंड, ४. कूर्म, ५. शैलक, ६. तुम्ब, ७. । रोहिणी, ८. मल्ली, ६. माकंदी, १०. चन्द्रमा, ११. दावद्रव, १२. उदकनात, १३. मंडूक, १४. तेतली, १५. नन्दिफल, १६. अपरकंका, १७. पाकीणं, १८. सुसुमा और उन्नीसवां/१६. पुण्डरीकज्ञात ।.. २.जबुद्दीवे ण दीवे सुरिमा उवको. सेएं एगणवीसं जोयणसयाई उद्यमहो तवंति। २. जम्बुद्वीप द्वीप में सूर्य उत्कृष्टतः एक हजार नौ सौ योजन करी और अघो तपते हैं। ३. मुफ्केण महागहे प्रवरेणं उदिए समाणे एगरपवीसं पक्वत्ताई समं चार चरित्सा अमरेणं अत्यमणं उयागच्छद ३. शुक्र महाग्रह पश्चिम में उदित होकर उन्नीम नक्षत्रों के साथ सहगमन करता हुमा पश्चिम में अस्त होता ४. अबुद्दोवस्त गं दीवस कलानो एगणवीस ऐमणाम्रो पण्णतामो। ४. जम्बुढीप द्वीप की कलाएँ उन्नीस' देदक/विभाग प्रज्ञप्त हैं।' • ५. एणीसं तित्पपरा अगार- मम्भावसित्ता मुटे भविता सं अपारामोमपगारिमं पव्यापा। ५. उन्नीम तीर्थंकरों ने अगार-वास के. मध्य रहकर पश्चाद मुण्डित होकर अगार में प्रनगारित प्रव्रज्या ली। समयाय-गृतं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयारणं नेरइयाणं एगणवीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता । ६. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की उन्नीस पल्योपम स्थिति प्रजप्त है। ७. छडीए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ७. छठी पृथिवी [तमःप्रभा] पर कुदेका नरयिकों की उन्नीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ८. कुछेक असुरकुमार देवों की उन्नीस पल्योपम स्थिति प्रजप्त है। ६.असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ याणं एगणवीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइयाणं देवारणं एगरणवीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की उन्नीस पल्योपम स्थिति प्रनप्न १०. पारण्यकप्पे देवारणं उक्कोसेरणं एगरणवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १०.मानत कल्प में कुछेक देवों की उत्कृष्टतः उन्नीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. पाणए कप्पे देवारणं जहणणं एगूणवीसं सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता। ११. प्राणत कल्प में कुछेक देवों की जघन्यत:/न्यूनतः उन्नीम मागरोपम स्थिति प्रनप्त है। १२. जे देवा प्राणतं पाणतं गतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदकतं इंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि रणं देवाणं उफ्कोसेरणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। १२. जो देव मानत, प्राणत, नत, विनत, पन, शुपिर, इन्द्र, इन्द्रकान्त पौर इन्द्रोत्तरावतंसक विमान में देयन्व मे उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टत: उन्नीस सागरोपम स्थिति प्राप्त है। १३. ते णं देवा एगणवीसाए अद्ध- मासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा जससंति वा नीससति वा । १३. वे देव उनीम प्रघमामों/पक्षों में प्रान/आहार लेते हैं, पान फरते है, उन्छ वास लेते हैं, नि.ग्वाम छोड़ने ममग-१६ समवाय-सुत्त Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तेसि गं देवारणं एगणवीसाए याससहम्सेहि पाहारछे समुष्पाजद । १४. उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती १५. सतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहिं सिझिस्सति बुझिस्सति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । १५. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो उन्नीस भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। ममत्राय-१६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमो समवाओ बीसवां समवाय १. वीसं असमाहिठाणा पण्णता, तं जहा१. दवदवचारि यावि भवइ, २. अपमज्जियवारि यावि भवइ ३. दुप्पमज्जियचारि यावि भवइ, ४. अतिरित्तसेज्जासणिए, ५. रातिणियपरिभासी, ६. थेरोवघातिए, ७. भूमोवघातिए, ८. संजलणे, ६. कोहणे, १०. पिटिमंसिए, ११. अभिक्खरणं-अभिक्खणं, पोहारइत्ता भवए, १२. णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवइ, १३. पोराणाणं अधिकरणाणं खामिय-विनोसवियाणं पुणोदोरेता भवइ, १४. ससरक्खपाणिपाए, १५. अकालसम्झायकारए यावि भवइ, १६. कलहकरे, १७.सहकरे, १८. झझकरे, १६. सूरप्पमाणभोई, २०. एसणाऽसमिते प्रावि भवद । १. असमाधि के बीस स्थान प्रजप्त है। जैसे कि१. दव-दव-चारी/गीघ्रगामी होता है, २. अप्रमाजितचारी होता है, ३. दुष्प्रमाजितचारी होता है, ४. अतिरिक्त शय्या-प्रासन रखता है, ५. रलिक परिभापा/वारणी-असंयम, ६. स्थविर-उपघात/वृद्ध-उपेक्षा, ७. भूत-उपघात/स्थावर-हिमा, ८. संज्वलन, ६. कोष, १०. पृष्टिमंमा | निन्दा, ११. प्रतिक्षण प्रागेप लगाता है, १२. अनुत्पन्न नये अधिकरणों को उत्पन्न करना, १३. क्षमित और उपशान्न पुराने अधिकरणों को पुनः तैयार करता है, १४. हाथ-पैर रजमाहित रखता है, १५. अकाल/अनमय में स्वाध्याय करता है, १६. यालह करता है, १७. शब्द/गोरगुल करता है, १६. झंझट करता है, १६. सूर्य-प्रमाण भोजन/दिनभर खाते-पीते रहता है, २०. एपरणा-समिति का पालन नही करता है। २. मुणिसुब्बए पं परहा वीस धणूई उद उच्चत्तणं होत्या। २. अर्हत् मुनिमृबन नाई की दृष्टि में बीस धनुप ऊँचे थे । ममवाय-सुतं ममनाय-२० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सम्वेवि गंधणोदही वीसं जोयण- सहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता। ३. समस्त घनोदधिवातवलयों का बाहुल्य वीस हजार योजन प्रज्ञप्त ४. पाणयस्स णं देविदस्स देवरण्णो वीसं सासाणिप्रसाहस्सोमो पण्णतायो। ४. प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव वीस हजार प्राप्त है । ५. नपुंसक वेदनीय कर्म का बीस कोटा कोटि स्थिति-वन्ध प्रज्ञप्त है। ५. णपुंसयवेयणिज्जस्स णं कम्मरस वीसं सागरोवमकोडाकोडीसो बंधनो बंघठिई पण्णत्ता। ६. पच्चक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता। ७. प्रोसप्पिणि-उस्सप्पिणिमंडले वीसं सागरोवम-कोडाकोडीनो कालो पण्णत्ता। ६. प्रत्याख्यान पूर्व के वस्तु/अधिकार वीस प्रज्ञप्त है। ७. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी-मंडल/ कालचक्र बीस कोटाकोटि सागरोपम काल परिमित प्राप्त है । ८. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीस पलिपोवमाइ ठिई पण्णत्ता। ८. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की बीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. छट्ठीए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ६. छठी पृथिवी [तमःप्रभा] पर कुछेक । नरयिकों की बीस सागरोपम स्थिति। प्रज्ञप्त है। १०. कुछेक असुरकुमार देवों की बीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १०. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- याणं वीसं पलिनोवमाई लिई पण्णत्ता। ११. सौधर्म ईशान कल्प में कुछेक देवी की बीस पल्योपम स्थिति प्राप्त है। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेस प्रत्येगइ- याणं देवाणं वीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णता। १२. पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीस सागरोवमाइंठिई पण्णता। १२. प्राणत कल्प में देवों की उत्कृष्टतः बीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं ૭૨ समवाय-२० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. पारण कल्प में देवों की जघन्यतः वीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १३. पारणे कप्पे देवाणं जहणणं वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १४. जे देवा सात विसातं सुविसात सिद्धत्थं उप्पलं रुइलं तिगिच्छं दिसासोवत्थिय-वद्धमाणयं पलंवं पुष्पं सुपुप्फ पुप्फावत्तं पुप्फपमं पुप्फत पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुप्फज्झयं पुप्फसिंगं पुप्फसिट्ठ पुप्फकूडं पुप्फुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरीवमाई ठिई पण्णत्ता। १४. जो देव सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, रुचिर, तिगिछ, दिशासौवस्तिक, प्रलम्ब, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ, पुष्पकान्त, पुष्पवर्ण, · पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्प,ग, पुष्पसिद्ध, पुष्पसृष्ट और पुष्पोत्तरावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः बीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १५. ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं प्राणमति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति या। १५. वे देव बीस अर्घमासों / पक्षों में पान/आहार लेते हैं, पान करते है, उच्छ वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते १६. तेसि देवाणं वाससहस्सेहि पाहारट्टे समुप्पज्जइ । १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे वीसाए भगग्गणेहि सिज्झिस्सति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सन्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । १६. उन देवों के बीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है। १७. कुछेक भवसिद्धिक जीव है, जो बीस भव-ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्तं समवाय-२० Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कवीसइमो समवाश्रो १. एक्कवीस सबला पण्णत्ता, तं जहा १. हत्थकम्मं करेमाणे सबले, २. मेहुणं पडिसेवमाणे सबले, ३. राइभोयणं भुजमाणे सबले, ४. श्राहाकम्मं भुजमाणे सबले, ५. सागारिafts भुजमा सबले, ६. उद्देसियं, कीयं, प्रहट्टु दिज्जमाणं भुजमाणे सबले, ७. श्रभिक्खणं पडियाइक्खेत्ता णं भुजमाणे सबले, ८. अंतो छण्हं मासाणं गणाश्रो गणं सकममाणे सबले, ६. अंतो मासस्स तो दगलेवे करेमाणं सबले, १०. अंतो मासस्स तो माईठाणे सेवमाणे सबले, ११. रायपडं भुजमाणे सबले, १२. प्राउट्टिश्राए पाणाइवायं करेमाणे सबले, १३. प्राउट्टिश्राए मुसावायं वदमारणे सबले, १४. श्राउट्टिए प्रदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबले, १५. प्राउट्टिश्राए श्रणंतरहित्राए पुढवीए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १६. श्राऊट्टिश्राए चित्तमंताए पुढवीए, चित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलूए, कोलावासंसि वा दारु प्रणयरे वा तहप्पगारे समवाय-सुतं ७४ इक्कीसवां समवाय १. णवल / प्रदूषित इक्कीस प्रज्ञप्त है । जैसे कि - १. हस्त - कर्म / हस्त मैथुन करने वाला शवल, २. मैथुन प्रतिसेवन करने वाला शवल, ३. रात्रि - भोजन करने वाला गवल, ४. श्राघाकर्म / श्रपक्व भोजन करने वाला शवल, ५. सागारिक पिंड खाने वाला शबल, ६. शिक, क्रीत, प्राहृत, प्रदत्त भोजन करने वाला शवल, ७. पुनः पुनः प्रतियाचना कर भोजन करने वाला शवल, ८. छह माह के अन्तर्गत गरण से गण में संक्रमण करने वाला शवल, ६. एक माह के अन्तर्गत तीन बार द्रगलेप / प्रक्षालन करने वाला शवल, १०. एक माह के अन्तर्गत तीन वार मायी - स्थान / कपट - व्यवहार का सेवन करने वाला शबल, ११. राजपिण्ड / गरिष्ठ भोजन करने वाला शवल, १२. आवर्तक/निरन्तर प्रारणातिपात करने वाला शबल, १३. आवर्तिक / निरन्तर मृषावाद बोलने वाला शबल, १४. ग्रावर्तिक / निरन्तर प्रदत्तदान ग्रहण करने वाला शबल, १५. आवतिक / निरन्तर अनन्तर्हित / सजीव पृथिवी पर स्थान / निवास, निषद्या / शय्या का चित्तपूर्वक उपयोग करने वाला शबल, १६. आवर्तिक / निरन्तर समवाय- २१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतेमाणे सवले, १७. जीवपइठिए समंडे सपाणे सवीए सहरिए सतिगे पणग-दगमट्टीमक्कडासंताणए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सवले, १८. माउट्टियाए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा खंधभोयणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पत्तभोयणं वा पुष्फभोयणं वा फलभोयणं वा बोयभोयणं वा हरियभोयणं वा मुंजमारणे वा, १६. अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले, २०. अंतो संवच्छरस्स दस माइठाणाई सेवमाणे सबले, २१. अभिक्खणंअभिक्खणं सीतोदय-वियड-वग्धारिय-पाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुजमाणे सबले। सचित्त पृथिवी पर या प्रावतिक सचित्त शिला पर या कोलावास वृक्ष-कोठरवास या उसी प्रकार की अन्यतर लकड़ी के स्थान, शय्या, निपद्या का चित्तपूर्वक उपयोग करने वाला शवल, १७. जीव-प्रतिष्ठित, प्राणसहित, बीज-सहित, हरितसहित, उदक-सहित, पनक/सप्राण, द्रग/मिट्टी, मकड़ीजाल एवं इसी प्रकार के अन्य स्थान पर निवाम, शय्या, निपद्या करने वाला शवल, १८. प्रावर्तिक/निरन्तर मूल-भोजन, कन्द-भोजन, त्वक-भोजन, प्रवालभोजन, पुष्प-भोजन, फल-भोजन और हरित-भोजन करने वाला शवल, १९. एक संवत्सर/वर्ष में दश वार उदक-लेप करने वाला शवल, २०. एक संवत्सर/वर्ष के अन्तर्गत दश वार मायावी स्थानों का सेवन करने वाला शबल, २१. पुनः पुनः शीतल जल से लिप्त हाथों से अशन, पान, खादिम/खाद्य और स्वादिम/स्वाद्य का परिग्रहण कर खाने वाला शवल । २. मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षयकर कर्म-सत्ता के कर्माश/कर्मप्रकृतियाँ इक्कीस प्रज्ञप्त है। जैसे किअप्रत्याख्यान-कपाय क्रोध, अप्रत्याख्यान-कपाय मान, अप्रत्यास्यानकपाय माया, अप्रत्याख्यान-लोभ, प्रत्यास्यानावरण-कपाय क्रोध, प्रत्याख्यानावररण-कपाय मान, प्रत्यास्यानावरण-कपाय माया, प्रत्या २. मोहणिज्जस्स कम्मस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहाअपच्चक्खाणकसाए कोहे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अपच्चक्खारणकसाए माया, अपच्चक्खाणकसाए लोभे । पक्चक्खाणावरणे कोहे, पच्चक्खाणावरणे माणे, पच्चक्खाणावरणा माया, समवाय-२१ समवाय-मुत्तं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाणावरणे लोभे। . - ख्यानावरण-कषाय माया, संज्वलन- " संजलणे कोहे, संजलणे माणे, कपाय क्रोध; संज्वलन-कपाय मान; संजलणा माया, संजलणे लोभे, .. संज्वलन-कषाय माया, संज्वलनइस्थिवेदे, पुवेदे, नपुंसयवेदे.. . कषाय लोभ, स्त्रीवेद, पुवेद/पुरुषहासे, अरति, रति, भय, सोग वेद, नपुवेद/नपुंसक-वेद, हास्य, दुगुछा। 'अरति, रति, भय, शोक, दुगुंछा/. ' जुगुप्सा । . ३. एकमेक्काए णं. प्रोसप्णिीए ३. प्रत्येक अवसर्पिणी का पाँचवाँ-छठा पंचमछट्ठामो समानो एक्कवीसं- पारा | कालखण्ड इक्कीस-इक्कीस एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं हजार वर्ष काल का प्रज्ञप्त है। पण्णताओ, तं जहा जैसे किदूसमा दूसम-दूसमा य । . दुःषमा, दु:पम-दुःषमा। ४. एगमेगाएं णं उस्सप्पिणीए पढमबितियानो समानो एक्कवीसंएक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णताओ, तं जहादूसम-दूसमा दूसमा य । ४. प्रत्येक उत्सर्पिणी का पहला-दूसरा आरा इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष काल का प्रज्ञप्त है। जैसे किदुःषमा-दुःषमा, दु:षमा । ५. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइया नेरइयाणं एक्कवीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। ५. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की इक्कीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। . ६. छट्ठीय पुढवीए अत्थेगइयारणं नेरइयारणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. छठी पृथिवी [तमःप्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की इक्कीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ७. असुरकुमारणं देवाणं अत्थेगंइयाणं एक्कवीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। ७. कुछेक असुरकुमार देवों की इक्कीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । . ८. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवारणं एक्कवीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। ८. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की इक्कीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त '. वा. सुत्तं ' . समवाय-२१ . ७६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. प्रारणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. पारण कल्प में देवों की उत्कृष्टतः इक्कीस सागरोपम की स्थिति प्रशप्त है। १०. अच्चुते कप्पे देवाणं जहणणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १०. अच्युत कल्प में देवों की जघन्यतः} न्यूनतः इक्कीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। ११. जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामगंडं मल्लं किडिं चावोणतं प्रारण्णवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। ११. जो देव श्रीवत्स, श्रीदामकाण्ड, माल्य, कृप्ट, चापोन्नत और प्रारणावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः इक्कीस मागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. ते णं देवा एकवीसाए अद्धमासाणं प्रागमति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। १२. वे देव इक्कीस अर्धमासों/पक्षों में प्रान/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं, नि:श्वास छोड़ते १३. उन देवों के इक्कीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १३. तेसि णं देवारणं एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं प्राहारले समुप्पज्जइ । १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एक्कवीसाए भवगहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्तंति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुरखाणमंतं करिस्संति । १४. कुछेक भवसिद्धिक जीव हैं, जो इक्कीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिवृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुतं ममवाय-२१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवां समवाय बावीसइमो समवायो १. बावीसं परीसहा पण्णता, तं जहादिगिछापरीसहे पिवासापरीसहे सीतपरीसहे उसिणपरीसहे दंसमसगपरोसहे अचेलपरीसहे अरइपरीसहे इत्थिपरीसहे चरियापरीसहे निसीहियापरीसहे सेज्जापरीसहे अक्कोसपरीसहे वहपरीसहे जायणापरीसहे अलाभपरीसहे रोगपरीसहे तणफासपरोसहे जल्लपरीसहे सक्कारपुरस्कारपरीसहे नाणपरीसहे दसणपरीसहे पण्णापरीसहे। १. परीपह/सहिष्णु-धर्म वाईस प्रज्ञप्त है। जैसे कि-~दिगिछा/क्षुधा-परीपह, पिपासापरीषह, शीत-परीपह, उष्ण-परीपह, दंशमशक-परीपह, अचेल-परीषह, अरति-परीषह, स्त्री-परीषह, चर्यापरीषह, निपद्या-परीषह, शय्यापरीपह, आक्रोश-परीपह, वधपरीपह, याचना-परीपह, अलाभपरीषह, रोग-परीपह, तृण-स्पर्शपरीषह, जल्ल-परीषह, सत्कारपुरस्कार-परीपह, प्रज्ञा-परीषह, अज्ञान-परीषह, प्रदर्शन-परीपह । २. बावीसइविहे पोग्गलपरिणामे पण्णते, तं जहाकालवण्णपरिणामे नीलवण्णपरिणामे लोहियवण्णपरिणामे हालिद्दवण्णपरिणामे सुक्किलवण्णपरिणामे सुन्भिगंधपरिणामे दुन्भिगंधपरिणामे तित्तरसपरिणामे कड़यरसपरिणामे कसायरसपरिणामे अंदिलरसपरिणामे महुररसपरिगामे कक्खडफासपरिणामे मउयफासपरिणामे गरुफासपरिणामे लहुफासपरिणामे सीतफासपरिणामे उसिणफासपरिणामे गिद्धफासपरिणामे लुक्खफासपरिणामे २. पुद्गल-परिणाम वाईस प्रकार के प्रज्ञप्त है। जैसे कि१. कृष्णवर्णपरिणाम, २. नीलवर्णपरिणाम, ३. लोहितवर्णपरिणाम, ४. हारिद्रवर्णपरिणाम, ५. शुक्लवर्णपरिणाम, ६. सुरभिगन्धपरिगाम, ७. दुरभिगन्धपरिणाम, ८. तिक्तरसपरिणाम, ६. कटुकरसपरिणाम, १०. कषायरसपरिणाम, ११. आम्लरसपरिणाम, १२. मधुररसपरिणाम, १३. कर्कशस्पर्शपरिणाम, १४. मृदुस्पर्शपरिणाम, १५. गुरुस्पर्शपरिणाम, १६. लघुस्पर्शपरिणाम, १७. शीतस्पर्शपरि • समवाय-सुत्तं समवाय-२२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुलहुफासपरिणामे अगरलहुफासपरिणामे। गाम, १८. उष्णस्पर्शपरिणाम, १६. स्निग्वस्पर्शपरिणाम, २०. स्क्षस्पर्णपरिणाम, २१. अगुरुलधुस्पर्शपरिणाम और २२. गुरुलघुस्पर्णपरिणाम। ३. इमोसे णं रयसप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बावीस पलिनोवमाई ठिई पपरणत्ता । ३. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों को बाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ४. छट्ठीए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। ४. छठी पृथिवी [तमःप्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की बाईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ५. अहेसत्तमाए पुढवीए नेरयाणं जहण्णणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ५. अघस्तन सातवीं पृथिवी [महातम: प्रभा] पर कुछेक नरयिकों की जघन्यतः वाईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं वावीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. कुछेक असुरकुमार देवों की बाईस पल्योपम स्थिति प्राप्त है। ७. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अण्यगइ- याणं देवाणं वावीसं पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। ७. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की वाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ८. अच्चुते कप्पे देवागं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ८. अच्युत कल्प में देवों की वाईम सागरोपम स्थिति प्रनप्त है । ९. हेडिम हेटिमोवेज्जगाणं देवाणं जहणणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। . अघस्तन-अधोवर्ती ग्रंवेयक देवों की जघन्यतः/न्यूनतः वाईम सागरोपम स्थिति प्राप्त है। समवाय-सुत्तं ७६ नमवाय-२२ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जे देवा महितं त्रिसुतं विमलं पभासं वगमालं ग्रच्चुतवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वावोतं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ११. ते णं देवा बावीसाए अद्धमासाणं आमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नोतसंति वा । १२. ते णं देवाणं बावीसाए वाससहस्तहि आहार समुप्पज्जइ । १३. संतेगइया नवसिद्धिया जोवा, ने ardhare भवग्गणेह तिनिस्संति वुल्भिस्संति मुन्चित्संति परिनिव्वाइस्संति सत्वदुक्खाणमंतं करिस्तंति । 2 सुतं ΤΟ १०. जो देव महित, विश्रुतः विमल, प्रभाव, और वनमाल, अच्युतावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टत: वाईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त हैं । ११. वे देव वाईस अर्धमामों पक्षों में श्रान / आहार लेते हैं, उच्छवास लेते है, पान करते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । १२. उन देवों के वाईस हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है | १३. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो बाईस नव ग्रहरण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- २२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसइमो समवाश्रो १. तेवीसं सुयगडज्भयणा पण्णत्ता, तं जहासमए वेतालिए उवसग्गपरिण्गा थोपरिष्णा नरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासिए विरिए धम्मे समाही मग्गे समोसरणे श्राहतहिए गंये जमईए गाहा पुंडरीए किरियठाणा श्राहारपरिणा श्रपच्चक्खाणकिरिया अणगारसुर्य ग्रहइज्जं णालंइज्जं । २. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे श्रोसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहतसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे | ३. जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे श्रोसप्पिणीए तेवीसं तित्ययरा पुव्वभवे एक्कार संगिणी होत्या, तं जहा --- अजिए संभवे श्रमिणंदणे सुमती पउमप सुपासे चंदप्प हे सुविही सीतले सेज्जसे वासुपुज्जे विमले प्रणते धम्मे संती कुंथू अरे मल्ली मुनिसुव्वए णमो अरिट्ठणेमी पासे वद्धमाणे य । समवाय-मुक्तं ८१ तेईसवां समवाय १. सूत्रकृत के तेइस अध्ययन प्रज्ञप्त है । जैसे कि १. समय, २. वैतालिक, ३. उपसर्गपरिज्ञा, ४ स्त्रीपरिज्ञा, ५. नरकविभक्ति, ६. महावीरस्तुति, ७. कुशीलपरिभाषित, ८. वीर्य, ६. धर्म, १०. समाधि, ११. मार्ग, १२. समवसरण, १३. यथातथ्य, १४. ग्रन्थ, १५. यमकीय, १६. गाथा, १७. पुण्डरीक, १५. क्रियास्थान, १६. आहारपरिज्ञा, २०. अप्रत्याख्यानक्रिया, २२. आर्द्रकीय, २१. अनगारश्रुत, २३. नालन्दीय | २. जम्बुद्वीप द्वीप में भारतवर्ष की इसी अवसर्पिणी में तेईस जिन / तीर्थकरों को सूर्य के उदीयमान मुहूर्त में प्रवर केवलज्ञान और प्रवर केवल दर्शन समुत्पन्न हुन । ३. जम्बुद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी के तेईस तीर्थकर पूर्वभव में ग्यारह अंगधारी थे । जैसे किअजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति. पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविवि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्धु, अर मल्ली मुनिसुव्रत, नमि, श्ररिष्टनेमि, पार्श्व और वर्धमान । समवाय-२३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमे णं रहा कोसलिए चोपुवी होत्या । ४. जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे श्रोसप्पिणी तेवीसं तित्थगरा पुव्वभवे मंडलियरायाणी होत्या, तं जहा अजिए संभवे श्रमिणंदगे सुमती पउमपहे सुपासे चंदप्प हे सुविही सीतले सेज्जसे वासुपुज्जे विमले ते धम्मसंती कुंथू अरे मल्ली मुखिसुब्बए नमी श्ररिट्ठणेमी पासे वद्धमाणे य । उसमे णं रहा कोसलिए चक्क - ट्टी होत्या । ५. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । ६. श्रसत्तमाए णं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोमाई ठिई पण्णत्ता । ८. ७. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं तेवीसं पलिश्रोवमाई ठिई पण्णत्ता । सोहम्मीसाणेसु कप्पे प्रत्येगइया देवाणं तेवीसं पलिश्रवमाइं ठिई पण्णत्ता । ६. हेट्टिम - मज्झिम-विज्जाणं देवाणं जहणेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । समवाय-सुतं ८२ अर्हतु कौलिक ऋपम चौदह पूर्वी थे । سی ४. जम्बुद्वीप द्वीप में इम अवसर्पिणी के तेईस तीर्थकर पूर्वभव में मांडलिक राजा थे । जैसे कि अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर मल्ली मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्धमान | अर्हतु कौलिक ऋपम पूर्वभव में चक्रवर्ती थे । ५. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की तेईस पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ६. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी [ महातम: प्रभा ] पर कुछेक नैरयिकों की तेईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ७. कुछेक असुरकुमार देवों की तेईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ८. सौधर्म - ईशान कल्प में कुछेक देवों की तेईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ६ ६. अधस्तन - मध्यवर्ती ग्रैवेयक देवों की जघन्यतः / न्यूनतः तेईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । समवाय- २३ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जे देवा हेट्ठिम-हेट्ठिम-गेवेज्जय- विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १०. जो देव अधस्तन ग्रेवेयक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः तेईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११.ते गं देवा तेवीसाए अद्धमासेहि पारगमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। ११. वे देव तेईस अर्घमासों/पक्षों में पान/ ___ आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ् . वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते है । १२. तेसि गं देवाणं तेवीसाए वास- १२. उन देवों के तेईस हजार वर्षों में सहस्सेहिं प्राहारट्टे समुप्पज्जइ ।। ___आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १३. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे तेवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिसंति बुझिसति मुच्चिस्सति परिनिन्वाइस्सति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । १३. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो तेईस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। ८३ समवाय-२३ समवाय-सुत्त Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउव्वीसइमो समवाश्र १. चउदीसं देवाहिदेवा पत्ता, तं जहा - उसमे अजिते संभवे अभिनंद सुमती पमम्प सुपासे चंदप्प सुविही सीतले तेन्जसे वासुपुज्जे विमले अणते घम्मे संतो कुंथू अरे मल्ली मुणिसुत्वए गमी रिट्ठमी पासे वद्धमाणे । २. चल्लहिमवंतसिहरीणं वासहरपत्वयाणं जोवान चढवीतं चडवीतं जोयणतहत्साई गवबत्तीते जोयणसए एवं च प्रट्ठत्तीस नागं जोयणत्स किचिविसेसाहिश्रश्र श्रायामेणं पण्णत्तानो । ३. चडवीतं देवठाणा सइंदया पण्णत्ता, सेसा अहमिंदा -अनिंदा पुरोहिया | ४. उत्तरायणमते पं तुरिए चवोसंगुलियं पोरिसियछायं वित्तइत्ता पंगिकृति । ५. गंगातिधूम्रो नं महापईश्री पवहे सातिरेगे चडवीसं कोसे वित्वारेणं पन्नताओ । समदाय -सुतं ६४ चौबीसवां समवाय १. देवाधिदेव चौबीस प्रज्ञप्त है । जैसे कि ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, नुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्यु, अर, मल्ली मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्तमान | २. मुल्ला / हिमवन्त और शिखरी वर्षचर पर्वतों की जीवा / परिवि चौवीसचौबीस हजार नौ सो बत्तीस योजन और योजना के तीन भागों में ने एक भाग ( अर्थात् २४९३२६ योजन) से कुछ अधिक लम्बी प्रज्ञप्त है । ३. इन्द्र -सहित देवों के स्थान चौबीस प्रजप्त हैं। शेष अहमिन्द्र, इन्द्ररहित, पुरोहित-रहित हैं । ४. उत्तरायणगत सूर्य चौवीस अंगुल की पाँरुपी छाया पार कर निवृत्त होता है । ५. गंगा-सिन्धु महानदियों का प्रवाह चौवोन कोन से अधिक विस्तृत प्रज्ञप्त है। सनवाय- २४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. रत्तारत्तवतीश्र णं महाणदीश्रो पवहे सातिरेगे चडवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्ताश्रो । ७. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए श्रत्येगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । ८. श्रसत्तमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । E. असुरकुमाराणं देवानं प्रत्येग - याणं चउवीसं पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । १०. सोहम्मीसाणेसु कप्पे प्रत्येगहयाणं देवाणं चउवीसं पलिश्रोवभाई ठिई पण्णत्ता | ११. हेट्ठिम-उवरिम - गेवेज्जाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १२. जे देवा हेट्ठिप-मज्झिम- गेवेज्जयविमासु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. ते णं देवा चवीसाए श्रद्धमासाणं प्राणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १४. ते णं देवा चवीसाए वाससहस्सेहिं श्राहारट्ठे समुप्पज्जइ । समवाय-सुत्त ६. रक्ता रक्तवती का प्रवाह चोदीम कोण से अधिक प्रज्ञप्त है । ८५ ७. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की चौबीस पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ८. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातम:प्रभा ] पर कुछेक नरयिकों की चौबीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । C. कुछेक असुरकुमार देवों की चोवीस पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । सौधर्म ईशान कल्प में कुछेक देवों की चौबीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १०. ११. अधोवर्ती एवं ऊर्ध्ववर्ती ग्रैवेयक देवों की जघन्यतः / न्यूनतः चौबीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १२. जो देव श्रधस्तन - मध्यवर्ती ग्रैवेयक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः चौवीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है । १३. वे देव चोवीस अर्धमासों / पक्षों में श्रान / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । १४. उन देवों के चौबीस हजार वर्षों में प्रहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । समवाय- २४ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे चवीसाए भवग्गहणेह सिज्भिस्सति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-मुत्तं ८६ १५. कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो चौवीस भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- २४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणवीसइमो समवाओ १. पुरिमपच्छिमताणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाश्रो पण्णत्ताश्रो, तं जहा - १. इरियासमिई, २. मणगुत्ती, ३. वयगुती, ४. प्रालोय-भायणभोयणं, ५. आदारण-भंड-मत्तनिक्खेवरणासमिई, ६. श्रणुवीतिभासण्या, ७. कोहविवेगे, ८. लोभविवेगे, ६. भयविवेगे, १०. हास विवेगे, ११. उग्गह- श्रणुष्णवणता, १२. उग्गह- सीमजाणणता, १३. सयमेव उग्गहाण - गण्हणता, १४. साहम्मियउग्गहं प्रणुष्णवि परिमंजणता, १५. साधारणभत्तपाणं श्रणुष्णविय परिभुजणता, १६. इत्थी - पसुपंडग-संसत्त-सयणासणवज्जरगया १७. इत्यी - कहविवज्जणया, १८. इत्थीए इंदियारण प्रालोयण१६. पुव्वरय-पुव्ववज्जणया, काणं श्रणुसरणया, २०. परणीताहार - विवज्जणया, २१. सोइंदिरागोवरई, २२. चक्खिदियरागोवरई, २३. घाणिदियरागोवरई, २४. जिम्मिदियरागीवरई, २५. फासिदियरागोवरई । २. मल्ली णं रहा पणवीसं धणुइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या । समवाय-सुतं ८७ पचीसवां समवाय १. पूर्व-पश्चिम प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के पंचयाम की पच्चीस भावनाएँ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि-१. ईर्यासमिति, २. मनोगुप्ति, ३. वचनगुप्ति, ४. प्रलोकितपानभोजन, ५. प्रादानभांड- मात्र निक्षेपगासमिति, ६. अनुवीचिभापण, क्रोध - विवेक, ८. लोभ-विवेक, ६. भय - विवेक, १०. हास्य-विवेक ११. अवग्रह अनुज्ञापनता, १२. अवग्रहसीम-ज्ञापनता, १३. स्वयमेव श्रवग्रहग्रनुग्रहरणता, १४. साधर्मिक श्रवग्रहश्रनुज्ञापनता, १५. साधारण भक्तपानश्रनुज्ञाप्य परिभु जनता, १६. स्त्रीपशुनपुंसक- संसक्त शयन-आसन वर्ज, नता १७. स्त्रीकथाविवर्जनता, १५. स्त्रीइन्द्रिय-अवलोकनवर्जनता १६. पूर्व रतपूर्वक्रीडा - अननुस्मरणता, २०. प्रणीत प्रहार - विवर्जनता । श्रोत्रेन्द्रियगोपरति, २२. चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति, २३. घ्राणेन्द्रियरागोपरति, २४. जिह्व न्द्रिय-रागोपरति और २५. स्पर्शनेन्द्रिय-रागोपरति । २१. ७. २. तू मल्ली ऊंचाई को दृष्टि मे पच्चीस धनुप ऊंचे थे । समवाय- २५ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सव्वेवि णं दीहवेयड्डूपव्वया पणवीसं पणवीसं जोयणाणि उड्ढ उच्चतेणं, पणवीसं पणवीसं गाउयाणि उव्वेहेणं पण्णत्ता । ४. दोन्चाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । ५. श्रायारस्स णं भगवन सचूलियायस्स । तं जहासत्य- परिण्णा लोगविजश्रो सोश्रो सणी सम्मत्तं । श्रावति धुविमोह उवहाण सुयं महापरिणा ॥ पिंडेसण सिज्ज रिश्रा भासज्यणा य वत्थ पाएसा । उग्गहपडिमा सत्तिक्क सत्तया भावण विमुत्ती ॥ ६. निसीहज्भयणं पणवीसइमं । ७. मिच्छादिट्टिविगलदिए श्रपज्जत्तए संकिलिट्ठपरिणामे नामस्स कम्मस्स पणवीसं उत्तरपडीओ णिबंधति, तं जहा - तिरियगतिनामं विगलिदियजातिनामं श्रोरा लियसरीरनामं तेलगसरोरनामं कम्मगसरीरनामं हंडसठारनामं श्रोरालियसरीरंगोवगनामं सेवट्ठसंघयणनामं समवाय-त्तं णं ८५ ३. समस्त दीर्घ वैताढ्य पर्वत ऊंचाई की दृष्टि से पच्चीस धनुष ऊँचे और पच्चीस-पच्चीस गाऊ / कोप गहरे प्रज्ञप्त हैं । ४. दूसरी पृथिवी [ शर्करा प्रभा ] पर पच्चीस लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं । ५. भगवान् के चूलिका सहित आचार के पच्चीस अध्ययन प्रज्ञप्त है । जैसे कि १. स्त्री- परीक्षा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. आवन्ती ६. घूत, ७. विमोह, ६. महापरिज्ञा, ८. उपधानश्रुत, १०. पिण्डेषरणा, ११. शय्या, १२. ईर्ष्या, १३. भाषाध्ययन, १४. वस्त्रपरणा, १५. पात्रैषरणा १६. अवग्रहप्रतिमा, १७-२३. सप्तैकक [१७. स्थान, १८. निषीधिका, १६. उच्चारप्रस्रवरण, २०. शब्द, २१. रूप, २२. परक्रिया, २३. अन्योन्य क्रिया ], २४. भावना और २५. विमुक्ति । ६. निशीथ अध्ययन पच्चीसवाँ है । ७. अपर्याप्त मिध्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव संक्लिष्ट परिणाम से नामकर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियों का वन्धन करते हैं । जैसे कि-१. तिर्यग्गतिनाम, २. विकलेन्द्रिय जातिनाम, ३. श्रदारिकशरीरनाम, ४. तैजसशरीरनाम, ५. कार्मणशरीरनाम, ६. हुंडकसंस्थान नाम, ७. औदा रिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, ८. सेवा समवाय- २५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्णनामंगंधनाम रसनामं फासनामं तिरियाणुपुग्विनाम अगस्यलहुयनाम उवधायनामं तसनामं बादरनामं अपज्जत्तयनामं पत्तेयसरीरनामं अथिरनामं असुमनाम दुभगनाम अणादेज्जनाम अजसोवित्तिनामं निम्माणंनाम । संहनन नाम, ६. वर्णनाम १०. गन्धनाम, ११. रसनाम, १२. स्पर्शनाम, १३.तियंचानुपूर्वीनाम, १४.अगुरुलघुनाम,१५. उपधातनाम, १६.७सनाम, १७. वादरनाम, १८.अपर्याप्तकनाम, १६. प्रत्येकशरीरनाम, २०. अस्थिनाम, २१. अशुभनाम, २२. दुर्भगनाम, २३. अनादेयनाम, २४.अयश: कीतिनाम और २५.निर्माणनाम । ८. गंगा और सिन्धु महानदियाँ पच्चीस गन्यूति/कोश विस्तृत दो मुहे घटमुख में प्रवेश कर मुक्तावली हार के रूप में प्रपात में गिरती है। ८. गंगासिंधूनो रणं महाणदीयो पणवीसं गाउयाणि पुहुत्तेण दुहनो घटमुह-पवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएवं पवातेणं पवति । ६. रत्तारत्तवतीनो णं महाणदीयो पणवीसं गाउयाणि पुहुत्तेणं दुहयो मकरमुह-पवित्तिएणं मुत्तावलिहार-संठिएणं पवातेणं पवति । ६. रक्ता और रक्तवती महानदियां पच्चीस गव्यूति/कोश पृथुल/विस्तृत मकर-मुख की प्रवृति कर मुक्तावली हार के रूप में प्रपात में गिरती हैं। १०. लोगविदुसारस्स णं पुवस्स . पणवीसं वत्थू पण्णता। १०. लोक विन्दुसार पूर्व के वस्तु/अधिकार पच्चीस प्रज्ञप्त है। ११. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णता। ११. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की पच्चीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयारणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १२. अघोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातम: प्रभा] पर कुछेक नरयिकों को पच्चीस सागरोपम स्थिति प्राप्त है। १३. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्थेगइ- याणं पणवीस पलिमोवमाई ठिई पाणत्ता। १३. कुछेक असुरकुमार देवों की पच्चीस पल्यापम स्थिति प्राप्त है। समवाय-सुतं समवाय-२५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवाणं श्रत्येगइयाणं पणवीसं पलिवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. मज्झिम हे द्विम- गेवेज्जाणं देवाणं जहणेणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १६. जे देवा हेट्टिम-उवरिम- गेवेज्जविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १७. ते णं देवा पणवीसाए श्रद्धमासहि श्राणमंति था पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १८. तेसि णं देवाणं पणवीसाए वाससहस्सेहि श्राहारट्ठे समुप्पज्जइ । १६. संतेगइया नवसिद्धिया जीवा, जे पणवीसाए भवगाहणेह सिज्झिस्संति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-सुत्तं ६० १४. सौधर्म ईशान कल्प में कुछेक देवों की पच्चीस पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १५. मध्यम - अघस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्यतः / न्यूनतः पच्चीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १६. जो देव अधोवर्ती एवं ऊर्ध्ववर्ती ग्रैवेयक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः पच्चीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १७. वे देव पच्चीस अर्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं । १८. उन देवों के पच्चीस हजार वर्षो में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १९. कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो पच्चीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे । समवाय- २५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्वीसइमो समवायो छब्बीसवां समवाय १. छन्वीसं दस-कप्प-ववहाराणं उद्दे- सणकाला पण्णत्ता, तं जहादस दसाणं, छ कप्पस्स, दस ववहारस्स। १. दश (दशाश्रुतस्कन्ध) वृहत्कल्प और व्यवहार के छब्बीस उद्देशनकाल प्रज्ञप्त हैं। जैसे किदशा के दश, कल्प के छह और व्यवहार के दण । २. प्रभवसिद्धियारणं जीवाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स छन्वीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहामिच्छत्तमोहणिज्जं सोलस कसाया इत्यावेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं परति रति भयं सोगो दुगुंछा। . ३. इमोसे रणं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं छन्वीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णता। ४. अहेसत्तमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं छन्वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। २. अभव-सिद्धिक जीवों के मोहनीय ___ कर्म की कर्मसत्ता के कर्माश/कर्म प्रकृतियां छब्बीस प्राप्त है । जैसे किमिथ्यात्व मोहनीय, सोलह कपाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, अरति, रति, भय, शोक, दुगुछा/ जुगुप्सा । ३. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछक नैरयिकों की छब्बीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ४. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातम:प्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की छब्बीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ५. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं छव्वीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णता। ५. कुछेक असुरकुमार देवों की छब्बीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्येगइ याणं देवाणं छन्वीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की छब्बीस पल्योपम स्थिति प्राप्त ममवाय-२६ समवाय-सतं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. मज्झिम - मज्झिम - गेवेज्जयाणं देवाणं जहणणं छन्वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ७. मध्यवर्ती-मध्यम अवेयक देवों की जघन्यतः/न्यूनतः छब्बीस सागरोपम स्थिति प्राप्त है। ८. जे देवामज्झिम-हेछिम-गेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि रणं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । ८. जो देव मध्यवर्ती-अधस्तन ग्रैवेयक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः छब्बीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। ६.ते णं छच्चीसाए अद्धमासाणं प्राणमति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । ६. वे देव छब्बीस अर्घमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते १०. तेसि गं देवाणं छव्वीसाए वास- सहस्सेहिं प्राहारळे समुप्पज्जइ। १०. उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है। ११. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे छब्बीसाए भवग्गहणेहि सिम्झिस्संति वुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिन्वाइस्संति करिस्संति । ११. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो छब्बीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। 4 -सुत्तं समवाय-२६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमो समवायो सत्ताईसवां समवाय १. सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहापाणातिवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, मेहुणवेरमणे, परिग्गहवेरमणे, सोइंदियनिग्गहे, चविखदियनिग्गहे, पाणिदियनिग्गहे, जिभिदियनिग्गहे, फासिदियनिग्गहे, कोहविवेगे, माणविवेगे, मायाविवेगे, खोमविवेगे, भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे, खमा, विरागता, मणसमाहरणता, वतिसमाहरणता, कायसमाहरणता, णाणसंपण्णया, सणसंपण्णया, चरित्तसंपग्णया, वेयणहियासणया, मारणंतियअहियासणया। १. अनगार के गुण सत्ताईम हैं । जैसे कि१. प्राणातिपात-विरमण, २. मृपावाद विरमण, ३. अदत्तादान-विरमण, ४. मथुन विरमण, ५. परिग्रह विरमण, ६. श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, ७. चक्षुइन्द्रियनिग्रह, ८. घ्राणेन्द्रियनिग्रह, ६. रसनेन्द्रियनिग्रह, १०. स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह, ११. क्रोधविवेक, १२. मानविवेक, १३. मायाविवेक, १४. लोभविवेक, १५. भाव-सत्य, १६. करण-सत्य, १७. योग-सत्य, १८. क्षमा, १६. वैराग्य २०. मनसमाहरण, २१. वचन-समाहरण, २२. काय-समाहरण, २३. ज्ञानसम्पन्नता, २४. दर्शन-सम्पन्नता, २५. चरित्र-सम्पन्नता, २६. वेदनाअधिसहन और २७. मारणान्तिक अघिसहन । २. जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहि .. सत्तावीसए गक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति । २. जम्बुद्वीप द्वीप में अभिजित को छोड़ कर सत्ताईस नक्षत्रों का संव्यवहार चलता है। ३. एगमेगे गंणक्खत्तमासे सत्तावीसं राइंदियाई राईदियग्गेणं पण्णत्ते। ३. प्रत्येक नक्षत्र-माम रात-दिन की दृष्टि से सत्ताईस रात-दिन का प्रज्ञप्त है। समवाय-२७ ६३ समवाय-सुतं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई वाहल्लेणं पण्णत्ता। ४. सौधर्म-ईशान कल्प में विमान की पृथिवी का सत्ताईस सौ योजन बाहुल्य प्रज्ञप्त है। ५. वेयगसम्मतबंधोवरयस्स णं मोहणिज्जस्स कम्मरस सत्तावीस कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता। ५. वेदक सम्यक्त्व बन्ध से उपरत जीव की मोहनीय कर्म की कर्मसत्ता की सत्ताईस उत्तर प्रकृतियाँ प्रज्ञप्त है । ६. सावण-सुद्ध-सत्तमीए णं सुरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिवत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं निवड्ढेमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवड्ढेमाणे चारं चरइ। ६. श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन सूर्य सत्ताईस अंगुल की पीरुपी छाया से निवृत्त होकर दिवस-क्षेत्र की ओर निवर्तन करता हुआ रजनी-क्षेत्र की ओर प्रवर्तमान संचरण करता है । ७. इमीसे रणं रयणप्पहार पुढवीए प्रत्येगइयारणं नेरइयारणं सत्तावीसं पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। ७. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की सत्ताईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयारणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ८.अधोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातमः प्रभा] पर कुछक नैरयिकों की सत्ताईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. कुछेक असुरकुमार देवों की सत्ताईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १०. सोहम्मीसारणेसु कप्पेसु अत्थेगई- याण देवारणं सत्तावीस पलिओव- माई ठिई पण्णता। १०. सौधर्म ईशान कल्प में कुछेक देवों की सत्ताईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त, ११. मज्झिम - उवरिम - गेवेज्जयाणं देवाणं जहणेण सत्तावीसं सागरोवमाइ ठिई पण्पता। ११. मध्यवर्ती उपरिम अवेयक देवों की जघन्यतः न्यूनतः सत्ताईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं • समवाय-२७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जं देवा मज्झिम मज्झिम गेवे ज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवारणं उनकोसेरणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. ते गं देवा सत्तावीसाए श्रद्धमासारणं प्राणमति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १४. तेसि रणं देवारणं सत्तावीसाए वाससहि श्राहारट्ठ समुप्पज्जइ १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सत्तावीसाए भवग्गहह सिन्झिस्संति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्सति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । समवाय-सुतं ६५ १२. जो देव मध्यम ग्रैवेयक विमान में देवत्व से उपपन्न है, उन देवो की उत्कृष्टतः सत्ताईम सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १३. वे देव सत्ताईस अर्धमासों / पक्षो में श्रान / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ् वास लेते हैं, नि. श्वास छोड़ते है । १४. उन देवों के सत्ताईस हजार वर्ष में आहार की इच्छा ममुत्पन्न होती है | १५. कुछेक भव-सिद्धिक जीव है, जो सत्ताईम भव ग्रहणकर सिद्ध होगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होगे, मर्वदुःखान्त करेगे । समवाय- २७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठाईसवां समवाय अट्ठावीसइमो समवायो १. अठ्ठावीसविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तं जहा१. मासिया प्रारोवणा, २. सपंचरायमासिया आरोवणा, ३. सदसरायमासिया प्रारोवणा, ४. सपण्णरसरायमासिया आरोवणा, ५. सवीतइरायमासिया प्रारोवणा, ६. सपंचवीसरायमासिया आरोवणा, ७. दोमासिया प्रारोवणा, ८. सपंचरायदोमासिया प्रारोवणा, ६. सदसरायदोमासिया आरोवणा, १०. सपप्णरसरायदोमासिया प्रारोवणा, ११.सवीसइरायदोमासिया प्रारोवणा, १२. सपंचवीसरायदोमासिया प्रारोवणा, १३. तेमासिया आरोवणा, १४. सपंचरायतेमासिया आरोवणा, १५. सदसरायतेमासिया आरोवणा, १६. सपण्णरसरयतेमासिया प्रारोवणा, १७. सवीसइरायतेमासिया प्रारोवणा, १८. सपंचवीसरायतेमासिया आरोवणा, १६. चउमासियामारोवणा, २०. सपचरायचउमासिया प्रारोवणा, २१. सदसरायचउमासिया प्रारोवगा, २२. सपण्णरसरायचड मालिया प्रारोवणा, २३. सवीसने समवाय-सुतं १. प्राचार-प्रकल्प अठाईस प्रकार का प्रनप्त है । जैसे कि१. एक मास की प्रारोपणा (आरोपरगा=प्रायश्चित्त), २. एक मास पांच दिन की आरोपणा, ३. एक मास दस दिन की प्रारोपणा, ४. एक मास पन्द्रह दिन की प्रारोपणा, ५. एक मास वीस दिन की प्रारोपरा, ६. एक मास पचीस दिन की आरोपणा, ७. दो मास की प्रारोपणा, ८.दो मास पांच दिन की आरोपरगा, ६. दो मास दस दिन की प्रारोपणा, १०. दो मास पन्द्रह दिन की प्रारोपणा, ११. दो मास वीस दिन की आरोपणा, १२. दो मास पचीस दिन की प्रारोपणा, १३. तीन मास की आरोपणा, १४. तीन मास पांच दिन की प्रारोपणा, १५. तीन मास दस दिन की प्रारोपणा, १६. तीन मास पन्द्रह दिन की आरोपणा, १७. तीन मास वीस दिन की प्रारोपणा, १८. तीन मास पच्चीस दिन की आरोपणा, १६. चार मास की आरोपणा, २०. चार मास पांच दिन की प्रारोपणा, २१. चार मास दस दिन की आरोपणा, २२. चार मास पन्द्रह दिन की प्रारोपणा, २३. चार मास ममवाय-२८ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरायचउमासिया प्रारोवणा, २४. सपंचवीसरायचउमासिया प्रारोवणा, २५. उग्घातिया पारोवणा, २६. अणुग्घातिया पारोवणा २७.कसिणाप्रारोवणा २८. अफसिगा प्रारोवणा बीस दिन की प्रारोपणा, २४. चार मास पच्चीस दिन की आरोपणा, २५. उद्घातिकी प्रारोपणा-लघु प्रायश्चित्त, २६. अनुद्घातिकी प्रारोपणा-विशेष प्रायश्चित्त, २७.कृत्स्ना प्रारोपणा-पूर्ण प्रायश्चित्त, २८. अकृत्स्ना आरोपणा अपूर्ण प्रायश्चित्त । इतना ही आचार-प्रकल्प है । इतना ही आचरणीय है। एताव ताव पायारपकप्पे एत्ताव ताव पायरियध्वे । २. भवसिखिया जीवारणं प्रत्येगइयारणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स अठ्ठावीसं फम्मंसा संतफम्मा पण्णता, तं जहासम्मत्तवेअणिज्जं मिच्छत्तवेयणिज्जं सम्ममिच्छत्तवेयणिज्ज सोलस फसाया णव पोकसाया। २. कुछेक भवसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म के अट्ठाईस कर्माश-प्रकृतियाँ सत्कर्म/सत्तावस्था में प्रजप्त है, जैसे किसम्यक्त्व वेदनीय, मिथ्यात्व वेदनीय, सम्यक्-मिथ्यात्व वेदनीय, सोलह कपाय और नो नो-कपाय । ३. प्राभिणिबोहियणाणे अट्ठावीस इविहे पण्णते, तं जहासोइदिययोग्गहे चक्खिदियत्योगहे पाणिवियत्योग्गहे निम्भिदिययोग्गहे फासिदियत्थोग्गहे गोइंदियत्थोग्गहे। सोइंदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजरपोग्गहे जिमिदियवंजणोग्गहे फासिदियवंजणोग्गहे। ३. आमिनिवोधिक ज्ञान अट्ठाईस प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे किश्रोत्रेन्द्रिय-प्रर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, रसनेन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रह, नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह । श्रोत्रेन्द्रिय-व्यञ्जनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-व्यञ्वनावग्रह, रसनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-व्य जनावग्रह । श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा, चक्षुरिन्द्रिय-ईहा, घ्राणेन्द्रिय-ईहा. रसनेन्द्रिय-ईहा, स्पर्शनेन्द्रिय-ईहा, नोइन्द्रिय-ईहा । सोइंदियईहा चक्खिदियईहा धारिणदियईहा जिभिदियईहा फासिदियईहा णोइंदियईहा । समवाय-सुत्तं ६७ समवाय-२८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोइदियावाते चक्खिदिवाते फासिदियावाते णोइंदियावाते । सोइदियधारणा aftaarधाररणा घारिदियधाररणा जिभिदियधारणा फासिंदियधारणा णोइदियधारणा । ४. ईसाले गं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससथसहस्सा पण्णत्ता । ५. जीवे गं देवर्गात णिबंधमारी नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ विधति, त जहा देवगतिनामं पंचिदियजातिनाम वेउव्वियसरीरनामं तेययसरीरनामं कम्मगसरीरनामं समचउरंस संठारणनामं वेडव्वियसरीरंगोवंगनामं वण्णनामं गंधनामं रसनाम फासना देवाणुपुव्विनामं लहनाम उवघायनामं पराधायनामं ऊमासनामं पसत्यविहायगइनामं तसनामं वायरनामं पज्जत्तनामं पत्तेयसरीरनामं थिरथिराणं दोन्हमण्यरं एवं नामं रिवंध, सुभासुभाणं दोन्हमण्यरं एवं नामं णिबंधइ, सुभगनाम सुस्तरनामं, प्राएज्जपाएज्जाणं दोन्हं प्रयरं एवं नामं णिबंधइ, जसोकित्तिनाम निम्मारणनामं । मनवाय-सुतं न श्रोत्रेन्द्रिय-अवाय, चक्षुरिन्द्रियअवाय, प्राणेन्द्रिय- अवाय, रसनेन्द्रिय-वाय. स्पर्शनेन्द्रिय-प्रवाय, नो-इन्दिय-वाय | श्रोत्रेन्द्रिय-धारणा, चक्षुरिन्द्रियधारणा, घ्राणेन्द्रिय-धारणा, रसनेन्द्रिय-धारणा, स्पर्शनेन्द्रिय-धारणा, और नो-इन्द्रिय-धारणा । ४ ईशानकल्प में विमानावास अट्ठाईस शतसहस्र / लाख प्रज्ञप्त हैं । ५. जीव देवगति का बंध करता हुआ नाम कर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियों को बांधता है, जैसे किदेवगतिनाम, पंचेन्द्रिय जातिनाम, वैक्रियशरीरनाम, शरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मरणशरीरनाम, समचतुरस्रसंस्थाननाम, वैक्रियशरीरअंगोपांगनाम, वर्णनाम, गंघनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, उच्छ् वासनाम, प्रशस्तविहायोगनाम, त्रसनाम, वादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम और अस्थिरनाम - दोनों में से एक का वंघ करता है शुभनाम और अशुभनाम -- दोनों में से एक बंघ का करता है, सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम और अनादेयनामदोनों में से एक का बंध करता है यशः कीर्त्तिनाम और निर्मारणनाम | समवाय- २८ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. एवं चेव नेरइयेवि, नारणतं अप्प सत्यविहायगइनामं हुंडसंठाणनामं अथिरनामं दुभगनाम असुभनामं दुस्सरनामं प्ररणादेज्जनाम अजसोकित्तीनामं । ६ इसी प्रकार नैरयिक भी [विविध अट्ठाईस कर्म-प्रकृतियों का बंध करता है। अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयश कीत्तिनाम और निर्माणनाम । ७. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों को अट्ठाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ८. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातमः प्रभा] के कुछेक नैरयिकों की अट्ठाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ६. कुछेक असुरकुमार देवों की अट्ठाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ७. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए अत्यगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिप्रोवमाई ठिई पण्णता। ८. अहेसत्तमाए पुढचीए प्रत्येगइयाणं नेरयाणं अट्ठावीसं सागरो वमाई ठिई पण्णता। ६. असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं अट्ठावीसं पलिप्रोवमाई ठिई पण्णता। १०. सोहम्मीसाणेस कप्पेसु देवाणं अत्येगइयाणं अट्ठावीसं पलिश्रो माई ठिई पण्णता। ११. उवरिम-हेडिम-गेवेज्जगाणं देवाणं जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १२. जे देवा मन्झिम-उवरिम-गेवेज्ज- एसु विमारणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि रणं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसंसागरोवमाइं ठिई पपपत्ता। १०. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की अट्ठाईस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त ११. उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्यतः/न्यूनतःअट्ठाईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १२. जो देव मध्यम-उपरिम विमानों में उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टतः अट्ठाईस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त १३. ते णं देवा अठ्ठावीसाए अद्धमा- सेहि प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १३. वे देव अट्ठाईस अर्धमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते हैं। 88 समवाय-२८ समवाय-सुत्तं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तेसि णं देवारणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहि प्राहारट्ठे समुप्पज्जइ। १४. उन देवों के अट्ठाईस हजार वर्षों में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिन्वाइस्संति सन्वदुक्खारणमंतं करिस्संति । १५. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो अट्ठाईस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्व दुःखान्त करेंगे। पाय-मुक्त १०० समवाय-२८ समवाय-२८ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसइमो समवानो उनतीसवां समवाय १. एगणतीसइविहे पावसुयपसंगे गं पण्णत्ते तं जहाभोमे उप्पाए सुमिरो अंतलिक्खे अंगे सरे वंजणे लपखणे । भोमे तिविहे पण्णते, तं जहासुत्ते वित्ती वत्तिए, एवं एक्केयर्फ तिविहं । विकहाणुजोगे विज्जाणुनोगे मंताणुजोगे जोगाणुजोगे अण्णतित्यियपवत्ताणुजोगे। १. पाप-श्रुत के प्रसंग उनतीस प्रकार के प्रज्ञप्त है, जैसे कि१. भौम, २. उत्पात, ३. स्वप्न, ४. अन्तरिक्ष, ५. अंग, ६. स्वर, ७. व्यंजन, ८. लक्षण । भीम तीन प्रकार का प्राप्त है, जैसे किसूत्र, वृत्ति, वात्तिक । इस प्रकार एक-एक के तीन प्रकार [८४३-२४ भेद] २५. विकथानुयोग, २६. विद्यानुयोग, २७. मंत्रानुयोग, २८. योगानुयोग, २६. अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग। २. प्रासारणं मासे एगणतोससरा- इंदिपाई राइदियग्गेरणं पण्णते। २. आपाढ़ मास रात-दिन के परिमाण से उनतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त है । ३. भदवए गं मासे एगणतीसरा इंदिप्राइं राइंदियग्गेरणं पण्णते। ३. भाद्रपद मास रात-दिन के परिमाण से उनतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त है । ४. कत्तिए रणं मासे एगणतीसरा- इंदियाई राइंदियग्गेरणं पण्णते। ४. कात्तिक मास रात-दिन के परिमाण से उनतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त है। ५. पोसे रणं मासे एगणतीसराइंदि भाई राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। ५. पौष मास रात-दिन के परिमाण से उनतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त है । ६. फागुणे णं मासे एगणतीसराई दिनाई राईदियग्गेणं पण्णत्ते। समवाय-सुत्तं ६. फाल्गुन मासें रात-दिन के परिमाण उनतीस रात-दिन को प्रज्ञप्त है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. वसाहे रगं मासे एगूरणतीसराइंदिश्राइं इंदियग्गेणं पण्णत्ते । ८. चंददिणे रगं एगूरगतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ते । ६. जीवे गं पसत्थज्भवसाणजुत्ते भविए सम्मदिट्ठी तित्थयरनामसहियाओ नामस्स कम्मस्स णियमा एगूणतीसं उत्तर पगडीओो निर्वाधित्ता वैमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववज्जइ । १०. इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवीए श्रत्येगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । ११. हे सत्तमा पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १२. असुरकुमाराणं देवाखं प्रत्येगइयाणं एगूणतीसं पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. सोहम्मीसारणेसु कप्पेसु देवाणं प्रत्येगइयाणं एगूणतीसं पलिप्रोमाई ठिई पण्णत्ता । १४. उवरिम - मज्झिम - गेवेज्जयारणं देवारणं जहणणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । समवाय-तं ७. वैशाख मास रात-दिन के परिमाण से उनतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त है । ८. चन्द्र दिन मुहुर्त - परिमाण की अपेक्षा से उनतीस मुहुर्त से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है | ६. प्रशस्त श्रध्यवसाय युक्त भविक सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थकर नामसहित नामकर्म की नियमतः उनतीस प्रकृतियों का बंध कर वैमानिक देवों में देवत्व से उपपन्न होता है । १०. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की उनतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । ११. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी पर कुछेक नैरयिकों की उनतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है | १२. कुछेक असुरकुमार देवों की उनतीस पत्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १३. सौधर्म - ईशानकल्प के कुछेक देवों की उनतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १४. उपरिम- मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्यतः / न्यूनतः उनतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है | १०२ समवाय-२६ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जे देवा उवरिम- हेट्टिम - गेवेज्जय विमारणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगुणतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. ते णं देवा एगुणतीसाए श्रद्धमासेई प्रणमति वा पाणमति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १७. तेसि णं देवाणं एगूणतीसाए वाससहस्सेहि प्रहारट्ठे समुप्पज्जइ । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एगूणतीसाए भवग्गह रोहि सिज्झिति बुज्झिस्संति मुच्चि - स्संति परिनिव्वाइस्सति सव्वक्वाणमंतं करिस्संति । समवाय-सुतं १५. जो देव उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवत्व से उपपन्न होते हैं, उनदेवों की उत्कृष्टतः उनतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । १६. वे देव उनतीस श्रर्द्धमासों / पक्षों में आन / आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते है | १०३ १७. उन देवों के उनतीस हजार वर्षो में आहार करने की इच्छा समुत्पन्न होती है । १८. कुछेक भव- सिद्धिक जीव हैं, जो उनतीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्व दु:खान्त करेंगे । समवाय- २६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमो समवा १. तीसं मोहणीयठाणा पण्णत्ता, तं जहा - १. जे यावि तसे पाणे, वारिमज्भे विगाहिया । उदक्कम्म मारेइ, महामोहं पकुब्वइ ॥ २. सीसावेढेण जे केई, आवेढे श्रभिक्खणं । तिब्वासुभसमायारे, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३. पाणिणा संपिहित्ताणं, सोयमावरिय पाणिणं । अंतोनदंतं मारेई, महामोहं पकुवइ ॥ ४. जायतेयं समारम्भ, बहुं श्ररु भिया जरणं । तोधूमेण मारेई, महामोहं पकुब्वइ ॥ ५. सिस्सम्मि जे पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा । विभज्ज मत्ययं फाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ ६. पुणो पुणो पणिहिए, हणित्ता उवहसे जणं । फले अव दडेणं, महामोहं पकुवइ ॥ समवाय-सुत्तं १०४ तीसवां समवाय १. मोहनीय स्थान तीस प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि - १. जो किसी त्रस प्राणी को पानी के बीच ले जाकर पानी से आक्रमण कर मारता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २. जो तीव्र अशुभ समाचरणपूर्वक किसी के मस्तक को बन्धनों से निरन्तर बांधता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । ३. जो प्राणी को हाथ से बांधकर, बंदकर अन्तविलाप करते हुए को मारता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । ४. जो अनेक जीवों को अवरुद्ध कर, अग्नि जलाकर उसके धुंए से मारता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । ५. जो किसी प्रारिण के शीर्ष उत्तम अंग पर प्रहार करता है, मस्तक का विभाजन कर फोड़ देता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । ६. जो पुनः पुनः मनुष्य का घात करता है, दण्ड या फरशे से हनन कर उपहास करता है. वह महामोह का प्रवर्तन करता है । समवाय-३० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. गूढग्यारी निमूहेज्जा, ___ मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिहाई, महामोहं पकुव्वइ ॥ ८. धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा। अदुवा तुम कासित्ति, महामोहं पकुन्वइ । ९. जाणमारणो परिसमो, सच्चामोसारिण मासइ। अज्झीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ । १०. अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं, किच्चा णं पडिबाहिरं ॥ उवगसंतंपि पित्ता, पडिलोमाहि वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुव्वइ । ७. जो गूढाचारी माया से माया को छिपाकर असत्यवादी प्रलाप करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। ८. 'तुम कौन हो' यह कहकर जो अपने अकर्म/दुष्कर्म के कर्म का धौंस/कलंक दूसरों पर जमाता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। ६. जो कलहकारी-पुरुप परिषद को जानता हुआ सत्यमृषा/सफेद झूठ बोलता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १०. जो मन्त्री नायक/नरेश की अनुपस्थिति में धौंस जमाता है, विपुल विक्षोभ / आतंक और अधिकार जमाता है, विलोम वचनों से निकटवर्तियों का भी तिरस्कार कर उनके भोगउपभोग का विदारण कर देता है, वह महामोह का प्रवर्तत करता है। ११. जो कुवारा न होते हुए भी स्वयं को कुंवारा कहता है, पर स्त्रियों में गृद्ध रहता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । १२. जो कोई ब्रह्मचारी न होते हुए भी स्वयं को ब्रह्मचारी कहता है, उसका कहना सांडों के बीच गधे की तरह रेंकना है; अत्यधिक मायामृषा बोलने वाला अज्ञानी अपना अहित ११. अकुमारभूए जे केई, कुमारभूएत्तहं वए। इत्याहिं गिद्धे वसए, महामोहं पकुवइ ॥ १२. अभयारी जे केई, बंभयारोत्तहं वए। गद्दभेव्व गवां मझे, विस्सरं नयई नंद ॥ अप्पणो अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे । समवाय-३० समवाय-सुतं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थीविसयगेहीए, महामोहं पकुवइ । सिर १३. जं निस्सिए उव्वहइ, जससामहिमेण वा। तस्स लुब्मइ वित्तम्मि, महामोहं पकुवइ ॥ . १४. ईसरेण अदुवा गामेणं, अणिस्सरे ईसरीकए। तस्स सपग्गहीयस्स, गया। ईसादोसेण आइछे, कलुसाविलचेयसे । ने अंतरायं चेएइ, महामोहं पकुब्वइ । १५. सप्पी जहा अंडउडं, __ भत्तारं जो विहिसइ । सेरणावई पसत्यारं, महामोहं पकुव्वइ ॥ करता है और स्त्री-विपय के प्रति गृद्ध होता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १३. जो यश का लाभ होने से आश्रित जीवन व्यतीत करता है, वह धन-लुब्ध महामोह का प्रवर्तन करता है। १४ उस सम्पदाहीन के पाम अतुल श्री/धन-सम्पत्ति आती है, जो ऐश्वर्य से कम या अनैश्वर्य से ऐश्वर्य प्राप्त करता है। किन्तु जो ईर्ष्या-द्वेष से पाविष्ट/ आक्रान्त पुरुप कलुष-चित्त से अन्तराय उत्पन्न करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १५. जिस प्रकार सर्पिणी अण्डपुट/ अण्डराशि का हनन करती है. उसी प्रकार जो भर्तार, सेनापति और प्रशास्ता/प्रशासक का हनन करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १६. जो राष्ट्र-नायक, निगम-नेता और प्रमुख/नगरसेठ का हनन करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १७ जो पुरुप प्राणी-वहुल के लिए द्वीप/दीप, बाण और नेता है, उमका हनन महामोह का प्रव र्तन करता है । १८. जो धर्म-उपक्रम में उपस्थित, प्रतिविरत, संयत, सुतपस्वी का १६. जे नायगं व रटुस्स, नेयारं निगमस्स वा। सेट्टि बहुरवं हंता, महामोहं पकुवइ ॥ १७. बहुजणस्त ऐयारं, दीवं ताणं च पाणिणं। एयारिसं नरं हता, महामोहं पकुव्वइ ॥ १६. उवट्ठियं पडिविरयं, संजयं सुतवस्सियं । समवाय-सुतं समवाय-३० Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोकम्म धम्मामो भंसे, महामोहं पकुवइ ॥ १६. तहेवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिरणं। तेसि अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ । २०. नेयाउअस्स मग्गस्स, दुळे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावे, महामोहं पकुवइ ।। २१. पायरियउवज्झाएहि. सुयं विणयंच गाहिए। ते चेव खिसई बाले, महामोहं पकुवइ ॥ २२. पायरियउवझायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ। अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुवइ । भ्रंश करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। १६. अनन्त ज्ञानी, वरदर्शी/पारदर्शी जिनेश्वरों का अवर्णक/निन्दक वाल-पुरुष महामोह का प्रवर्तन करता है। २०. जो दुष्ट न्याय-मार्ग का अपकार/ उल्लंघन करता है, उसी में तृप्ति का भाव करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। २१. जो श्रुत और विनय-ग्राहित/ शिक्षित बाल-पुरुष आचार्य और उपाध्याय पर खीजता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २२. जो अप्रतिपूजक और स्तब्ध | अभिमानी व्यक्ति आचार्य उपाध्याय को सम्यक् प्रकार से परितृप्त नहीं करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। २३. जो कोई अल्पज्ञ श्रुत से आत्म प्रशंसा करता हैं, स्वयं को स्वाध्यायवादी कहता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है। २४. जो कोई अतपस्वी होते हुए भी सम्पूर्ण लोक में उत्कृष्ट तप से आत्म-प्रशंसा करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २५. जो कोई ग्लान/रुग्ण के उप स्थित होने पर साधारणतः बहुत या थोड़ी-कुछ भी सेवा नहीं करता, आत्म-प्रबोधिक २३. अबहुस्सुए य जे केई, सुएण पविकत्थइ। सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुव्वइ ।। २४. अतवस्सीए य जे केई, तवेण पविकत्यइ । सवलोयपरे तेणे, महामोहं पकुवइ । २५. साहारणट्ठा जे केई, गिलाणम्मि उवहिए। पहू ण कुणई किच्चं, ___ मझपि से न कुवइ ॥ समवाय-३० १०७ समवाय-सुत्त Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स नियडीपणा, कलुसाउलचेयसे बोही, महामोहं पकुव्वइ ॥ २६. जे कहा हिगरणाई, संपरंजे पुणो पुणो सव्वतित्याण भेयाय, महामोहं पकुव्व ॥ २७. जे य श्राहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो | सही हेजं, महामोहं पकुव्व ॥ सहाहे २८. जे य माणुस्सए भोए, 1 अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयइ, महामोहं पकुव्व ॥ २६. इड्डी जुई जसो वण्णो, देवाणं तेस श्रवण्णवं वाले, बलवीरियं । महामोहं पकुब्वइ ॥ ३०. अपस्समाणो पस्तामि, देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णारिण जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्व ॥ २. येरे णं मडियपुत्ते तीसं वासाइ सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे मुते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पही । समवाय-सुतं १०८ शठ-पुरुष कलुष-लिप्त चित्त से स्वयं की नियति को प्रजापूर्ण कहता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २६. जो समस्त तीर्थो / धर्मो के [ गुप्त ] भेदों / रहस्यों को कथानों के माध्यम से संप्रयुक्त करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २७. जो प्रथामिक योग को श्लाधा या मित्रगण के लिए पुनः पुनः सम्प्रयुक्त करता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २०. जो अतृप्त मानुषिक और पारलौकिक भोगों का आश्रय लेता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २६. जो बाल-पुरुष देवों के बल-वीर्य, ऋद्धि, द्युति, यश और वर्ण का अवक/ निन्दक है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । ३०. जो अज्ञानी जिन की तरह स्वयं की पूजा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और गुह्यक को न देखता हुआ भी 'देखता हूँ' कहता है, वह महामोह का प्रवर्तन करता है । २. स्थविर मंडितपुत्र तीस वर्ष तक श्रामण्य - पर्याय पाल कर सिद्ध, वुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और मर्व दुःख रहित हुए । समवाय-३० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. एगमेगे णं अहोरते तीसं मुहुत्ता मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ते । एएसि गं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेज्जा पण्णता, तं जहारोहे सेते मित्ते वाऊ सुपीए अभियंदेमाहिदे पलंबे बंभे सच्चे प्राणदे विजए वीससेणे वायावच्चे उवसमे ईसाणे तिळे भावियप्पा वेसमणे वरुणे सतरिसभे गंधवे अग्गिवेसायणे प्रातवं प्रावधं तवे भूमहे रिसमे सन्वट्ठसिद्ध रक्खसे। ३. प्रत्येक अहोरात्र मुहूर्त के परिमाण से तीस मुहूर्त का होता है। इन तीस मुहूर्तों के तीस नाम प्रज्ञप्त हैं। जैसे किरौद्र, श्रेयान्, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, प्रलम्ब, सत्य, आनन्द, विजय, विश्वसेन, प्राजापत्य, उपशम, ईशान, त्वष्टा, भावितात्मा, वैश्रमण, वरुण, शतऋषभ, गन्धर्व, अग्निवश्यायन, आतप, पाव्यध, तष्टप, भूमह, ऋपभ, सर्वार्थसिद्ध, राक्षस । ४. अरे णं परहा तीसं घणुइं उड्ढे उच्चत्तणं होत्या। ४. अर्हत् अर ऊंचाई की दृष्टि से तीस धनुष ऊँचे थे। ५. सहस्सारस्स णं देविदस्स देवरण्णो तीसं सामाणियसाहस्सीमो पण्णतायो। ५. सहस्रार के देवेन्द्र देवराज के तीस हजार सामानिक देव प्रज्ञप्त थे। ६. पासे गं अरहा तीसं वासाई अगार मज्झे वसित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए। ६. अर्हत पार्श्व ने तीस वर्ष तक अगार मध्य रहकर, अगार से अनगारप्रव्रज्या ली। ७, समरणे भगवं महावीरे तीसं वासाइं प्रागारमज्झे वसित्ता अगारामो अणगारियं पन्वइए। ७. श्रमण भगवान महावीर ने तीस वर्ष तक अगारमध्य रहकर, अगार से अनगार प्रव्रज ८. रयरगप्पहाए णं पुढवीए तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ८. रत्नप्रभा पृथ्वी पर तीस शत-सहस्र/ लाख नरकावास प्रशप्त हैं। ६. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं तीसं पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की तीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं १०६ ममयाय-३० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यंगइ- याणं नेरइयाणं तीसं सागरो- वमाइं ठिई पण्णत्ता। १०. अघोवर्ती सातवीं पृथिवी [महातम: प्रभा] पर कुछेक नैरयिकों की तीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. कुछेक असुरकुमार देवों की तीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ११. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- याणं तीसं पलिअोवमाइं ठिई। पण्णत्ता। १२. उवरिम - उवरिम - गेविज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १३. जे देवा उवरिम-मज्झिम-गेवेज्ज- एसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १२. ऊर्ध्ववर्ती ऊपरी अवेयक देवों की जघन्यतः/न्यूनतः तीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १३. जो देव ऊपरी मध्यम अवेयक विमानों में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की उत्कृष्टत: तीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। १४. ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं पारणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १४. वे देव तीस अर्धमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ वास लेते है, निःश्वास छोड़ते १५. तेसि णं देवाणं तीसाए वास- __ सहस्सेहिं आहारळे समुप्पज्जइ । १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे तीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्सति सन्वदुक्खारणमंत करिस्संति । १५. उन देवों के तीस हजार वर्षों में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है। १६. कुछेक भव-सिद्धिक जीव है, जो तीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। ___ मनवाय-मुक्त ममवाय-सुत्त समयाय-१० समवाय-३० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कतीसइमो समवाश्रो १. इक्कतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, श्रभिणिबोहियणाणा तं जहा -- खीरणे वरणे सुयणाणावरगे, खीणे श्रोहिणारणावरणे, खीणे मरणज्जवरगाणावरले, खोखे केवलणाणावर से, खीले चक्खुदंसणावरणे, खीणे श्रोहिदंसणावरणे, खोगे केवलदंसणावर, खोरगा निद्दा, खोणा गिद्दाणिद्दा, खीणा पयला, खीरणा पयलापयला, खीणा थोणगिद्धी, खीरो सायावेयरिगज्जे, खीले प्रसायावेय णिज्जे, खीले दंसरणमोहरिणज्जे खीगे चरितमोहणिज्जे, खोगे नेरइयाउए, खी तिरियाउए, खोले मगुस्सा उए, खीणे देवाउए, खोगे उच्चागोए खोणे नियागोए, खीणे सुभरणामे, खीरो असुभणामे, खीगे दाणंतराए, खोगे लाभंतराए, खीये मोगंतराए, खीले उवभोगंतराए, खोये वीरियंतराए । समवाय-तं १११ इकतीसवां समवाय १. सिद्ध आदि के गुण इकतीस प्रज्ञप्त हैं, जैसे कि- १. प्रभिनिवोधिक ज्ञानावरण का क्षय, २. श्रुतज्ञानावरण का क्षय, ३. अवधि ज्ञानावरण का क्षय, ४. मनःपर्याय ज्ञानावरण का क्षय, ५. केवल ज्ञानावरण का क्षय, ६. चक्षु दर्शनावरण का क्षय, ७. चक्षु दर्शनावरण का क्षय, ८. अवधि दर्शनावरण का क्षय, ९. केवल दर्शनावरण का क्षय, १०. निद्रा का क्षय, ११. निद्रा-निद्रा का क्षय, १२. प्रचला का क्षय, १३. प्रचलाप्रचला का क्षय, १४. स्त्यानगृद्धि का क्षय, १५. सात वेदनीय का क्षय, १६. सात वेदनीय का क्षय, १७. दर्शन मोहनीय का क्षय, १८. चरित्र मोहनीय का क्षय, १६. नैरयिक का क्षय, २०. तिर्यञ्च आयुष्य का क्षय, २१. मनुष्य श्रायुप्य का क्षय, २२. देवायु का क्षय, २३. उच्चगोत्र का क्षय, २४. नीचगोत्र का क्षय, २५. शुभनाम का क्षय, २६. अशुभनाम का क्षय, २७. दानान्तराय का क्षय, २८. लाभान्तराय का क्षय, २९. भोगान्तराय का क्षय, ३०. उपभोगान्तराय का क्षय, ३१. वीर्यान्तिराय का क्षय । समवाय- ३१ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.मंदरे णं पवए धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए किंचिदेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते। २. मंदर पर्वत की धरणीतल पर इकतीस हजार छः सौ तेवीस योजन से कुछ कम परिधि प्रज्ञप्त है। ३. जया णं सुरिए सव्वबाहिरियं मंडलं उवसंकमित्ताणं चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि अहि य एक्कतीहि जोयणसएहि तीसाए सटिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ। ३. जव सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल में उप संक्रमण कर विचरण करता है, तब इस पृथिवीपर मनुष्य को इकतीस हजार आठ सौ इकतीस और एक योजन के साठ भागों में से तीस भाग (३१८३१३ योजन) दूर से आँखों से दिखाई दे जाता है। ४. अभिवडिए णं मासे एक्कतीसं सातिरेगाणि राइंदियाणि राईदियग्गेणं पण्णत्ते। ४. अभिवद्धित मास रात-दिन के परिमारण से इकतीस रात-दिन का प्रज्ञप्त हैं। ५. प्राइच्चे णं मासे एक्कतीसं राईदियाणि किंचि विसेसूणाणि राइंदियग्गेणं पण्णत्ते । ६. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं इक्कतीसं पलिनोवमाई लिई पण्णता । ७. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयारणं इक्कतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। . ८. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं इकतीसं पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। ६. सोहम्मीसारणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं जहण्णेणं इक्कतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। ५. सूर्यमास रात-दिन के परिमाण से कुछ-विशेष-न्यून इकतीस दिन-रात का प्रज्ञप्त है। ६. इस रत्नप्रभा पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की इकतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ७. अधोवर्ती सातवीं पृथिवी पर कुछेक नरयिकों की इकतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ८. कुछेक असुरकुमार देवों की इकतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ६. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों की इकतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त समवाय-सुत्तं ११२ समवाय-३१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. विजय - वेजयंत - जयंत - अपरा- जियाणं देवाणं जहण्पेणं इक्कतीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा जित देवों की जघन्यतः इकतीन सागरोपम स्थिति प्राप्त है । ११. जे देवा उवरिम-उवरिम-गेवेज्जय- विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं इक्कतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । ११ जो देव ऊर्ध्ववर्ती ग्रैवेयक विमानों में देवत्व से उपपन्न हैं. उन देवों की उत्कृप्टतः इकतीस सागरीपम स्थिति प्रजप्त है। १२. ते णं इक्कतीसाए अद्धमासाणं माणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १२. वे देव इकतीस अर्धमासों पक्षों में आन/आहार लेते है, पान करते हैं, उच्छवास लेते है और नि:श्वाम छोड़ते हैं। १३. तेसि गं देवाणं इक्कतीसाए वास- सहस्सेहिं प्राहारट्टे समुप्पज्जइ । १३. उन देवों के इकतीस हजार वर्षों में पाहार की इच्छा समुत्पन्न होती १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे इक्कतीसाए भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्सति करिस्संति । १४. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो इकतीस भव ग्रहण कर मिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनित होंगे, सर्व दुःखान्त करेंगे। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमो समवायो बत्तीसवां समवाय . १. बत्तीसं लोगसंगहा पण्णत्ता, १. योग-संग्रहं बत्तीस प्रजप्त हैं, तं जहा जैसे कि१.आलोयणा निरवलावे, १. आलोचना, २.निरपलाप, ३. प्रावईनु दढधम्मया। "आपत्ति में बढ़वर्मता, ४. अनिश्रितोअणिस्सिनोवहाणे य, पधान/अनाधित तप. ५. शिक्षा, . . सिक्खा निप्पडिकम्मया ॥ निप्प्रतिकर्मता, ७. अजातता,' . २. अण्णतता अलोमे य, अलोभ, ६. तितिक्षा, १०.आर्जव, तितिक्खा प्रज्जवे सुती। ११. शुचि, १२. सम्यग्दृष्टि, १३. सम्मदिट्ठी समाही य, समावि, १४.प्राचार,१५.विनयोपग/. आयारे विणग्रोवए । निरहंकारिता, १६. तिमति, १७. ३. घिईमई य संवेगे, संवेग, १८. प्रणिधि, १६. सुविधि, पणिही सुविहि संवरे। . . २०. संवर, २१. प्रात्मदोपोपसंहार, अत्तदोसोवसंहारे, .. . २२. सर्वकामविरक्तता, २३: प्रत्या सन्बकामविरत्तया ॥ त्यान, २४.. व्युत्लग, २५. अप्रमाद, ४. पच्चक्साणे विउस्सग्गे, २६. लवालव-समय प्रेक्षा, २७. अप्पमादे लवालवे । ध्यान, २८.संवर योग, २६..मारणामाणसंवरजोगे य, तिक उदय, ३०. संग-परिक्षा, उदए मारणंतिए ॥ ३१. प्रायश्चित्तकरण, ३२. ५. संगाणं च परिग्णा, . मारमान्तिक आरावना। . पायच्छित्तकरणेत्ति य। -ये बत्तीस योग-संग्रह हैं। राहणा य मरणते, वत्तीतं जोगसंगहा ॥ २. वत्तीतं देविदा, पण्णता, तं २. देवेन्द्र बत्तील प्रज्ञप्त हैं, जैसे किजहा चमर, वली, वरण, भूतानन्द, देणुचमरे बली धरणे भूयाणंदे वेणु- __ देव, वेदाली, हरि, हरिस्तह, अग्निदेवे वेणुदाली हरि हरिस्सहे . जिल, अग्निमाणव, पूर्ण, विशिष्ट, अग्गिसिहे अग्गिमाणवे पुणे जलकान्त, जलप्रभ, अमितगति, ..., समत्राय जुत्तं । समवाय . . . . . समवाय-३२ । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसिळे जलकते जलप्प अमियगती अमितवाहणे वेलवे पनजणे घोसे महाघोसे चंदे सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे माहिदे वंभे लंतए महासुक्के सहस्सारे पाणए अच्चुए। अमितवाहन, बैलंब, प्रभंजन, घोप, महाघोष, चन्द्र, सूर्य, शा. शान, सनत्कुमार, माहेन्द्र. यहा, 'नान्तक. महाशुक्र. सहस्रार, प्रारगत पोर अच्युत । ३. कुथुस्स णं अरहो बत्तीसहिया बत्तीसं जिरणसया होत्या । ३. अर्हत् कुन्थ के बत्तीम मो बत्तीम जिन थे। ४. सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । ४. सौधर्मकल्प में वत्तीम शत-महत्व लाख विमान प्राप्त है। वत्तीसइतारे ५. रेवती नक्षत्र के वत्तीम तारं प्राप्त ५. रेवइणवखते पण्णते। ६. बत्तीसतिविहे गट्टे पण्णते। ६. नाट्य बत्तीस प्रकार का प्राप्त है। ७. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णता। ७ इस रत्नप्रभा नैरयिकों की वत्तीम पल्योगम स्थिति प्रजप्त है। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ८ अधोवर्ती मानवी पृथिवी के कुछक नरयिकों की बत्तीस मागगेगम स्थिति प्राप्त है। ६.असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइ- याणं वत्तीसं पलिग्रोवमा लिई पण्णत्ता। कुछेक अनरकुमार देवों की बनीम पल्यापम स्थिति प्राप्त है। १०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेतु प्रत्येगइ. याणं देवाणं बत्तीसं पलिमोव- माडं ठिई पपणता। १०. नोधर्म-शान काल में कुश देवों की प्रतीम पल्योपन स्थिति प्रमाप्त ममत्रायः ३२ समवाय-सुत्त Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जे देवा विजय - वेजयंत - जयंत अपराजियविमारणेसु देवत्ताए। उववण्णा, तेसि गं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ११. जो देव विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की बत्तीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। १२. ते णं देवा वत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १२. वे देव वत्तीस अर्घमासों/पक्षों में आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते १३. ते णं देवाणं वत्तीसाए वास सहस्सेहि आहारळे समुप्पज्जइ । १३. उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा समुत्पन्न होती १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे वत्तीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिसंति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्तंति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति। १४. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो बत्तीस भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे। समवाय-सुत्त समवाय-३२ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तेत्तीसइमो समवायो तेतीसवां समवाय १. तेत्तीसं प्रासायणानो पण्णत्तानो, १. आशातनाएं तेतीस हैं, जैसे कि १. शैक्ष (शिक्षित | नवदीक्षित) . १. सेहे राइणियस आसन्नं रालिक/पर्याय-ज्येष्ठ से सटगंता भवइ-पासायणा कर चलता है, यह शैक्ष-कृत सेहस्स।' आशातना है। २. सेहे राइणियस्स पुरनो गंता २. शैक्ष रानिक से आगे भवइ~~-पासायणा सेहस्स। चलता है, यह शैक्ष-कृत आशा तना है। ३. सेहे राइणियस्स सपक्वं गंता ३. शैक्ष रालिक के बराबर • भवइ-पासायणा सेहस्स। चलता है, यह शैक्ष-कृत प्राशा तना है। ४. सेहे राइणियस्स आसन्न ४. शैक्ष रालिक से सटकर ठिच्चा भवइ-पासायणा खड़ा रहता है, यह शैक्ष-कृत सेहस्स। आशातना है। ५. सेहे राइणियस पुरो ५. शैक्ष रात्निक के आगे ठिच्चा भवइ~आसायणा खड़ा रहता है, यह शैक्ष-कृत ___- सेहस्स। आशातना है। ६. सेहे राइणियस्स सपक्वं ६. शैक्ष रानिक के बराबर ठिच्चा भवइ-पासायणा खड़ा रहता है, यह शैक्ष-कृत सेहस्स। आशातना है। ७. सेहे राइणियस्स आसन्नं ७. शैक्ष रानिक से सटकर निसीइत्ता भवइ-प्रासा बैठता है, यह शैक्ष-कृत आशायणा सेहस्स । तना है। ८. सेहे राइणियस्स पुरनो ८. शैक्ष रानिक के आगे ... निसीइत्ता भवइ-पासा बैठता है, यह शैक्ष-कृत आशायणा सेहस्स। तना है। समवाय-सुत्तं . ११७ समवाय-३३ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सेहे राइणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवइ-आसा यणा सेहस्स। १०. सेहे राइणिएण सद्धि बहिया वियारभूमि निक्खंते समारणे पुवामेव सेहतराए पायामेइ पच्छा राइरिणएप्रासायणा सेहस्स। ११. सेहे राइणिएण सद्धि बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निवखते समारणे तत्थ पुवामेव सेहतराए पालोएति, पच्छा राइणिएप्रासासणा सेहस्स । ६. शैक्ष रानिक के वरावर वैठता है, यह शैक्ष-कृत आशा तना है। १०. शैक्ष रात्निक के साथ वाहर विचार-भूमि/शौच-भूमि जाने पर शैक्ष पहले ही पाचमन/शौच कर लेता है, किन्तु रालिक उसके पश्चात्, यह शैक्ष-कृत आशातना है। ११. शैक्ष रालिक के साथ वाहर विहार-भूमि (स्वाध्यायभूमि) या विचार-भूमि जाने पर शैक्ष पहले (गमनागमन विषयक) आलोचना कर लेता है, किन्तु रात्निक उसके पश्चात्, यह शैक्ष-कृत आशा तना है। १२. शैक्ष को रात्निक द्वारा रात्रि या विकाल में यह पूछे जाने पर--'आर्य! कौन सोया है और कौन जगा है ?' शैक्ष जागृत होते हुए भी अनसुना कर देता है, यह शैक्ष कृत आशातना है। १३. रात्लिक को किसी से कुछ कहना है, किन्तु शैक्ष उससे पहले ही कह देता है, यह शैक्ष-कृत पाशातना है। १४. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर पहले शैक्षतर के सामने [आहार-चर्या विषयक] बालोचना करता है, फिर १२. सेहे राइणियस्स रातो वा विधाले वा वाहरमाणस्स अज्जो के सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमारणे राइणियस्स अपडिसुरणेत्ता भवति-पासायणा सेहस्स। १३. केइ राइणियस्स पुव्वं संल वित्तए सिया, तं सेहे पुवत रागं पालवेति, पच्छा राइणिए-पासायणा सेहस्स। १४. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुत्वमेव सेहतरागस्स पालोएइ, पच्छा ममवाय-सुत्तं ११८ समवाय-३३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्निक के सामने, यह शैक्ष कृत आशातना है। १५. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर पहले शैक्षतर को दिखाता है, पश्चात् रात्निक को, यह शैक्ष-कृत पाशातना है। राइणियस्स - पासायणा सेहस्स। १५. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुत्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेति, पच्छा राइरिणयस्स-पासायणा सेहस्स। १६. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुन्वमेव सेहतरागं उवणिमंतेइ, पच्छा राइणियं प्रासायणा सेहस्स। १७. सेहे राइणिएण सद्धि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं राइणियं प्रणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्सतस्स खद्धं-खद्धं दलयइ आसायणा सेहस्स। १८. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता राइणिएण सद्धि आहरेमारणे तत्थ सेहे खद्धंखद्धं डायं-डायं ऊसढं-ऊसद रसितं-रसितं मणुण्णं-मणुvणं मणाम-मणामं निद्धनिद्धं लुक्खं-लुक्खं प्राहरेत्ता भवइ-प्रासायणा सेहस्स। १६. सेहे राइणियस्स वाहर माणस्स अपडिसुरणेत्ता भवइ-पासायणा सेहस्स । १६. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर पहले शैक्षतर को निमंत्रित करता है, फिर रालिक को, यह शैक्ष-कृत आशातना है। १७. शैक्ष रात्निक के साथ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर उनसे बिना पूछे, जिस-जिस को चाहता है उस-उस को 'खामो-खाओं' कहता हुआ देता है, यह शैक्ष-कृत प्राशा तना है। १८. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर रात्निक के साथ आहार करता हुआ उच्छित रसित, मनोज्ञ, मनोनुकूल, स्निग्ध और रूक्ष-उत्तम भोज्य पदार्थों को डाय-डाय | जल्द-जल्दी खद्ध-खद्ध/बड़े-बड़े कवलों से खाता है, यह शैक्ष कृत पाशातना है। १६. शैक्ष रात्निक के वचन-व्यवहार को अनसुना कर देता है, यह शैक्ष-कृत प्राशातना है । समवाय-३३ ११ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सेहे राइणियस्स खर्द्ध-खद्धं वत्ता भवति - आसायणा सेहस्स । २०. २१. सेहे राइणियस्स 'कि' ति वइत्ता भवति श्रसायणा सेहस्स । २२. सेहे राइणियं 'तुम'ति वत्ता भवति - श्रसायणा सेहस्स । २३. सेहे राइणियं तज्जाएण पडिभणित्ता तज्जाएण भवइ - आसाणा सेहस्स । २४. सेहे राइणियस्स कहं कहे माणस्स ' इति एवं 'ति वत्ता भवति - श्रासायणा सेहस्स । न २५. सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्स 'नो सुमरसी 'ति वत्ता भवत्ति - श्रसायणा सेहस्स । २६. सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं श्रच्छदित्ता भवति - श्रसायणा सेहस्स । २७. सेहे राइणियस्स कहं कहे परिसं माणस्स भेत्ताभवति - प्रसारणा सेहस्स । २८. सेहे राइणियस्स कहं कहे माणस्स तीसे परिसाए अणुट्ठिताए अभिन्नाए प्रवृच्छिनए अव्वगडाए दोच्चं पि तमेव कहं कहित्ता भवति - आसाणा सेहस्स । समवाय-मुत्तं १२० २०. शैक्ष रालिक को 'खाओ-खाओ' ऐसी उपेक्षरणीय बात बोलता है, यह शैक्ष-कृत प्राशातना है । २१. शैक्ष रानिक को 'क्या है' शैक्ष- कृत ऐसा बोलता है, यह आशाता है । २२. शैक्ष रानिक को 'तू' कहता है, यह शैक्ष-कृत प्राशातना है । २३. शैक्ष रात्निक को उन्हीं के कहे में कह देता यह शैक्ष- कृत हुए को प्रत्युत्तर है - चिड़ाता है, प्रशातना है । २४. शैक्ष रात्निक कथा को 'ऐसा ही है, नहीं कहता', यह शैक्षकृत प्राशातना है । २५. शैक्ष रान्निक को कथा कहते समय 'यह भी स्मरण नहीं है'ऐसा कहता है, यह शैक्ष-कृत आशाता है । २६. शैक्ष रात्निक द्वारा कही जा रही कथा को रोकता है, यह शैक्ष-कृत प्रशातना है । २७. शैक्ष रात्निक द्वारा कथा कहते समय परिषद् को भंग करता है, यह शैक्ष-कृत शातना है । २८. शैक्ष रानिक द्वारा 'कथा कहते समय परिषद् के अनुत्थित, अमित्र, अव्यवच्छिन्न, अव्याकृत अभंग रहने पर दूसरी बार उसी कथा को कहता है, यह शैक्ष- कृत प्राशातना है । समवाय- ३३ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. सेहे राइणियस्स सेज्जा संथारगं पाएणं संघट्टित्ता, हत्येणं अणगुण्णवेत्ता गच्छति-पासायणा सेहस्स। ३०. सेहे राइरिणयस्स सेज्जा संथारए चिट्ठित्ता वा निसीइता वा तुयट्टित्ता वा भवइ-सायणा सेहस्स। ३१. सेहे राइणियस्स समासरणे चिद्वित्ता वा निसीइत्ता वा तुयद्वित्ता वा भवति प्रासायणा सेहस्स। ३२. सेहे राइणियस्स समासणे चिट्टित्ता वा निसीइत्ता वा तुट्टित्ता वा भवति प्रासायणा सेहस्स। ३३. सेहे राइणियस्स आलव माणस्स तत्थगते चिय पडिसुणित्ता भवइ-पासायणा सेहस्स। २६. शैक्ष रात्निक के शय्या-संस्तारक (विछौना) का पांवों से संघट्टन कर हाथ से अनुज्ञापित किये बिना जाता है, यह शैक्ष-कृत आशातना है। ३०. शैक्ष रानिक के शय्या-संस्तारक पर खड़ा होता है, बैठता है या सोता है, यह शैक्ष-कृत आशा तना है। ३१ शैक्ष रालिक से ऊंचे आसन पर खड़ा रहता है, वैठता है या सोता है, यह शैक्ष-कृत आशा तना है। ३२. शैक रात्निक के वरावर आसन पर खड़ा रहता है, बैठता है या सोता है, यह शैक्ष-कृत आशातना है। ३३. शैक्ष रात्निक के वक्तव्य का अपने आसन पर बैठे-बैठे ही प्रतिश्रोता होता है, यह शैक्ष-कृत आशातना है। २. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररणो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्के वारे तेत्तीसंतेत्तीसं भोमा पण्णत्ता। २. चमर असुरेन्द्र असुरराज की चमर चंचा राजधानी के प्रत्येक द्वार पर तेतीस-तेतीस भौम/भवन हैं । ३. महाविदेहे णं वासं तेत्तीसं जोयणसहस्साई साइरेगाई विक्खभेणं पण्णत्ते। ३. महाविदेह-वर्ष/क्षेत्र तेतीस हजार योजन से कुछ अधिक विष्कम्भ/ विस्तृत प्रज्ञप्त है। ४. जया णं सुरिए वाहिराणं अंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं ४. जव सूर्य बाह्य-मंडल से अन्तर्वर्ती तीसरे मंडल में उपसंक्रमण कर समवाय-सुत्त समवाय-३३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारं चरइ, तया गं इहगयस्त पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहि किचिविसेसूर्णेहिं चक्खुप्फासं हवमागच्छइ। विचरण करता है, तब भरतक्षेत्रगत मनुष्य को 'वह कुछ विशेष न्यून तेतीस हजार योजन की दुरी से चक्षु-स्पर्श होता है। .... ५. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेत्तीसं पलिनोवमाइं ठिई पण्णत्ता। . ५. इस रत्नप्रभा पृथिवी के कुछेक नैर यिकों की तेतीस पल्योपम स्थिति प्रजप्त है। . . ६. अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महा- काल - रोख्य - महारोरएसु नेर- याणं तेत्तीसं सागरोवमाई लिई पण्णत्ता। ६.अबोवर्ती सातवीं पृथिवी के काल,' . महाकाल, रोल्क और महारोरुक- . नरकावासों के नैरयिकों की उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। : ७. अप्पइट्ठाणनरए नेरइयाणं अजह- . ७. अप्रतिष्ठान-नरक के नरयिकों की पणमणुक्कोसणं तेत्तीसं सागरो- अजधन्यतः-अनुत्कृष्टतः/सामान्यतः । वमाई ठिई पण्णत्ता। ... तेतीस सागरोपम स्थिति प्रशंप्त है।'' . ८. असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइ- ८. कुछेक असुरकुमार देवों की तेतीस याणं तेत्तीसं पलिग्रोवमाइं पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ठिई पण्णत्ता। ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं . ६. सौधर्म-ईशान कल्प में कुछेक देवों अत्थेगइयाणं तेत्तीसं पलियो- की तेतीस पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। माई ठिई पण्णत्ता। १०. विजय-वेजयंत जयंत-अपराजि- १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा एसु विमाणेसु उक्कोसणं तेत्तीसं . जित विमानों में उत्कृष्टत: तेतीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। , सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है।' ११. जे देवा सव्वदृसिद्ध महाविमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि एं देवाणं अजहण्णमणुक्कोसणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पप्णत्ता। . . . . ११. जो देव सवार्थसिद्ध महाविमान में . देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की अजघन्यतः अनुत्कृष्टतः अर्थात सामान्यतः तेतीस सागरोपम स्थिति . . प्रज्ञप्त है। .. समवाय-सुत्तं . . . १२२ समवाय-३३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. ते णं देवा तेत्तीसाए श्रद्धमासेहि प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊमसंति वा नोससंति वा । १३. तेसि णं देवारणं वाससहस्से हि समुप्पज्जइ । तेत्तीसाए श्राहारट्ठे १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे तेत्तीसre भवग्गहहिं सिज्भिस्सति वुज्झिस्संति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खारणमंतं करिस्सति । समवाय नुस १२. वे देव तेतीस १:३ मास / पक्ष मे ग्रान / ग्राहार लेते है, पान करते है, उच्छवास लेते है, निःश्याम छोड़ते है । १३. उन देवों के तेतीस हजार क्यों न ग्राहार की इच्छा समुत्पन्न होती है । १४. कुछेक भव-सिद्धिक जीव है, जो तेतीस भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःशान्त करेंगे | समवाय-३३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोत्तीसइमो समवाओ १. चोत्तोस बुद्धाइसेसा पण्णत्ता, तं जहा १. श्रवट्टिए केसमंसुरोमनहे । २. निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी । ३. गोक्खीरपंडुरे मंमसोगिए । ४. पउमुप्पलगंधिए उस्तातनित्सा | ५. पच्छन्ने आहारनोहारे, श्रद्दिस्ते मंतचक्खुरणा । ६. आगासगयं चक्कं । ७. आगातयं छत्तं । 5. आगासियाओ सेयवरचामराम्रो । 8. श्रागासफालियामयं सपायपीढं सोहासरणं । १०. आगातगस्रो कुडनीतहस्सपरिमंडिनाभिरामो इंदभन्नो पुरनो गच्छइ । समवाय-नुतं १२४ चौतीसवां समवाय १. बुद्ध / तीर्थकर के अतिशेष /अतिशय चौतीम प्रज्ञप्त हैं, जैसे कि - १. केश, श्मश्रु / दाड़ी मूछ, रोम, नत्र अवस्थित रहते हैं । २. निरामय / रोगरहित और निरुपलेप / मल- स्वेद रहित शरीर होता है । - ३. मांस और शोणित / रक्त दूध के समान पाण्डुर / श्वेत होता है । ४. पद्मकमल की तरह सुगन्वित उच्छ् वास निःश्वास होते हैं । ५. आहार और नीहार प्रच्छन्न होते हैं, मांस-चक्षु द्वारा अदृश्य रहते हैं " आकाशगत [ धर्म ] चक्र चलता है । ७. आकाशगत छत्र होता है । 5. ग्राकाश में श्रेष्ठ श्वेत चामर दुलते हैं । ९. आकाशवत्, स्फटिकमय पादपीठ सहित सिंहासन होता है । १०. आगे-आगे आकाश में हजारों लघुपताकाओं से अभिमण्डित सुन्दर इन्द्रध्वज चलता है । समवाय-३४ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जत्थ जत्थवि य णं परहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थवि य णं तक्खरणादेव संछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झयो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ। ११. जहां-जहां अर्हन्त भगवन्त ठहरते या बैठते हैं, वहां-वहां तत्क्षण समाच्छादित पुष्प और पल्लव से व्याकुल, छत्र-सहित ध्वज-सहित, घंट-सहित पताकासहित अशोकवृक्ष उत्पन्न हो जाता है। १२. ईसि पिटुनो मउडठाणंमि तेयमंडलं अभिसंजायइ, अंधकारेवि य गं दस दिसामो पभासेइ। १३. बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे। १२. मुकुट-स्थान से कुछ पीछे तेज मंडल/आभामंडल होता है जो अन्धकार में भी दसों दिशाओं को प्रभासित करता है। १३. भूमिभाग विशेष सम और रमणीय होता है। १४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। १५. ऋतुएँ अविपरीत अनुकूल और सुखस्पर्शी/सुखदायी हो जाती १४. अहोसिरा कंटया भवंति । १५. उडुविवरीया सुहफासा भवंति। १६. सीयलेणं सुहफासेणं सुर भिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वो समंता संपमज्जिज्जति । १६. शीतल, सुखदायी, सुरभित वायु द्वारा एक योजन तक परिमण्डल/पर्यावरण का सर्व ओर से सम्प्रमार्जन होता है । १७. जुत्त-फुसिएण य मेहेण निहय-रय-रेणुयं कज्जइ। १८. जल-थलय - भासुर-पभूतेणं विट्ठाइणा दसद्धवण्णणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाण• मिते पुप्फोवयारे कज्जइ। १७. विन्दु-पात युक्त मेघ द्वारा रज रेणु को निहत/उपशान्त किया जाता है। १८. जलज,स्थलज, प्रभूत/प्रस्फुटित, वृन्त-स्थायी/पत्रपूरित, पंचवर्णी कुसुमों द्वारा घुटने जितने प्रमाण तक पुष्पोपचार होता समवाय-सुत्तं १२५ समवाय-३४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. श्रणुष्णाणं सह-परिस-रसस्व-गंधाणं श्रवकरिसो भवइ । २०. मणुगाणं सह-फरिस - रसरुव-गंधाणं पाउब्भावो भवइ । २१. पच्चाहरओवि य णं हिययगमणोश्रो जोयणनोहारी सरो । २२. भगवं च णं श्रद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । २३. सावि य णं श्रद्धमागही भासा भासिज्जमाणो तसि सव्वेंस श्ररियमणारियागं दुप्पय- चउप्पय मिस-पसुपक्खि- सिरी-सिवाणं श्रप्पणी हिय-सिव - सुहदाभासत्ताए परिणमइ । · २४. पुव्वबद्धवेरावि य णं देवा सुर-नाग - सुवरण - जक्खरक्खस - किसर किपुरिसगरुल - गंधव्व-महोरगा अरहम्रो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति । - २५. अण्णउत्थिय - पावयणियावि य रंग मागया वंदति । २६. श्रागया समाणा श्ररहश्रो पायमूले निष्पडिवयणा हवंति | समवाय-सुत्तं २७. जन जनोवि य णं श्ररहंतो भगवंतो विहरंति तस्रो १२६ १६. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध का अपकर्ष होता है । २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध का प्रादुर्भाव होता है । २१. प्रत्याहर/ उपदेश के समय योजनगामी हृदयंगम और स्वर होता है । २२. भगवान् श्रर्द्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं । २३. वह भाष्यमारण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले प्रार्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है । २४. पूर्ववद्ध वैर वाले भी और देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुप, गरुड, गन्धर्व और महोरग अर्हत के समीप प्रशांत चित्त और प्रशान्त मन से धर्म को श्रवण करते हैं । २५. अन्ययूथिक / तीर्थिक प्रावचनिक भी आकर वन्दन करते हैं । २६. अर्हत् के सामने समागत [अन्यतीर्थक] निरुत्तर हो जाते हैं । २७. जहां-जहां अर्हत् भगवान् विहरण करते हैं, वहां-वहां पचीस समवाय-३४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनोवि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ । २८. मारी न भवइ । २६. सचक्कं न भवइ । ३०. परचक्कं न भवइ । ३१. इवुट्ठी न भवइ । ३२. श्ररणावुट्ठी न भवइ । ३३. दुभिवखं न भवइ । ३४. पुप्पण्णावि य णं उप्पाइया वाही खिप्पामेव उवसमंति । २. जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्क - वट्टविजया जहा - बत्तीसं पण्णत्ता, दो भररवए । महाविदेहे, ३. जंबुद्दीवे गं दीवे चोत्तीसं दीवेयड्डा पण्णत्ता । ४. जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थंकरा समुप्पज्जति । ५. चमरस्स णं सुरिंद असुररण्णो चोत्तीसं भवणावासराय सहस्सा पण्णत्ता । ६. पढमपंच मछट्टीसत्तमासु - चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावास -सयसहस्सा पण्णत्ता । समवाय-सुतं १२७ योजन में ईति / भीति नहीं होती । २८. मारी नहीं होती । २६. स्वचक्र / सैन्य- विद्रोह नहीं होता । ३०. परचक्र / परकीय विद्रोह नही होता । ३१. अतिवृष्टि नहीं होती । ३२. अनावृष्टि नहीं होती । ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता । ३४. पूर्वं उत्पन्न प्रौत्पातिक व्याबियां शीघ्र शान्त हो जाती हैं । २. जम्बुद्वीप - द्वीप में चौतीस चक्रवर्तीविजय प्रज्ञप्त है । जैसे किमहाविदेह में वत्तीस, दो भरत और ऐरवत एक ३. जम्बूद्वीप द्वीप में चौतीस दीर्घवताढ्य प्रज्ञप्त है । ४. जम्बूद्वीप द्वीप उत्कृष्टत: चौंतीस तीर्थकर समुत्पन्न होते हैं । ५. चमर असुरेन्द्र असुरराज के भवनावास चौतीस शन - सहस्र / लाख प्रज्ञप्त हैं ! ६. पहली, पांचवीं छठी और मातवींइन चार स्वियों में चौतीस शतसहस्र / लोस नरकावास प्रज्ञप्त है । समवाय-३४ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीसवां समवाय पणतीसइमो समवायो १. पणतीसं ___सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। १. सत्य-वचन के अतिशेप / अतिशय पैतीस प्रजप्त हैं। २. कुंथू णं अरहा पणतीसं घणई उड्ढं उच्चत्तणं होत्था। २. अर्हत् कुन्यु ऊँचाई की दृष्टि से पैतीस धनुप ऊंचे थे। ३. दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूई उड्ढे उच्चत्तणे होत्था। ३. वासुदेव दत्त ऊंचाई की दृष्टि से पैंतीस धनुप ऊँचे थे। ४. नंदणे यं बलदेवे पणतीसं धण्इं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। ४. वलदेव नन्दन ऊंचाई की दृष्टि से पैतीस धनुप ऊँचे थे। ५. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेठा उरि घ अद्धतेरस-बद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पणतीसं जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण-सकहानो पण्णताओ। ५. सौधर्म कल्प की सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यस्तम्भ के नीचे और ऊपर साढ़े बारह योजनों को छोड़कर मध्य के पैंतीस योजन में वज्रमय गोलवृत्त में जिन/अर्हत की अस्थियां ६.वितियचउत्थीसु-दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ६. दूसरी और चौथी-इन दो पृथ्वियों में पैतीस शत-सहस्र / लाख नरकावास है। समवाय-तुक्त १२१ समवाय-३५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमो समवायो १. छत्तीत्तं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाविणयसुयं परीसहो चाउरंगिज्जं असंखयं अकाममरणिज्जं पुरिसविज्जा उरभिज्जं काविलिज्ज नमिपन्वज्जादुमपत्तयं बहुसुयपूया हरिएसिज्जं चित्तसंभूयं उसुकारिज सभिक्खुगं समाहिठाणाई पावसमणिज्जं संजइज्जं मिगचारिया अणाहपव्वज्जा समुद्दपालिज्ज रहणेमिज्ज गोयमकेसिज्ज समितीमओ जण्णइज्जं सामायारी खलुकिज मोक्खमग्गगई अप्पमाओ तवोमग्गो चरणविही पमायठारपाइं कम्मपगडी लेसज्झयणं अणगारमग्गे जीवाजीवविभत्ती य । २. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररणो समा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। ३. समणस्स णं भगवो महावीरस्स छत्तीसं अज्जाणं साहस्सीओ होत्था। ४. चेत्तासोएसु णं मासेसु सइ छत्तीस- गुलियं सूरिए पोरिसीछायं निव्वत्तई। छत्तीसवां समवाय १. उत्तर के अध्ययन (उत्तराध्ययन-सूत्र के अध्ययन) छत्तीस प्रज्ञप्त हैं। जैसे किविनयश्रुत, परीपह, चातुरंगीय, असंस्कृत, अकाममरणीय, पुरुपविद्या, उरभ्रीय, कापिलीय, नमिप्रव्रज्या, द्रुमपत्रक, बहूश्रुतपूजा, हरिकेशीय, चित्रसंभूत इपुकारीय, सभिक्षुक, समाधिस्थान, पापश्रमणीय, संयतीय, मृगचारिका, अनाथप्रव्रज्या, समुद्रपालीय, रथनेमीय, गौतमकेशीय, समिति, यज्ञीय, सामाचारी, क्षुल्लकीय, मोक्षमार्गगति, अप्रमाद, तपोमार्ग, चरणविधि, प्रमादस्थान, कर्मप्रकृति, लेश्याध्ययन, अनगारमार्ग तथा जीवाजीवविभक्ति। २. असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा ऊँचाई की दृष्टि से छत्नीस योजन ऊँची है। ३. श्रमण भगवान् महावीर के छत्तीस __ हजार आर्याएँ थीं। ४. चैत्र-आश्विन मास में सूर्य एक वार छत्तीस अंगुल की पौरुपी छाया निष्पन्न करता है। ममवाय-३६ १२६ समवाय-सुत्तं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीसवां समवाय सत्ततीसइमो समवायो १. कुंथुस्स णं अरहो सत्ततीसं गणा, सत्ततीसं गणहरा होत्या । १. अर्हत् कुन्यु के सैतीस गण और सैतीस गणधर थे। २. हेमवय-हेरण्णवइयाओणं जीवानो सत्ततीसं-सत्ततीसंजोयणसहस्साई छच्च चोवत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किचिविसेसूणाम्रो आयामेणं पण्णत्तायो। २. हैमवत और हैरण्यवत की जीवाओं का सैतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से सोलह भाग विशेष न्यून (३७६७४ १६) आयाम प्रज्ञप्त है । ३. सव्वासु णं विजय-वेजयत - जयत अपराजियासु रायहाणीसुपागारा सततीसं-सत्ततीसं जोयणाणि उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ३. विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित-इन सभी राजधानियों के प्राकार ऊँचाई की दृष्टि से सैंतीससैतीस योजन ऊँचे प्रज्ञप्त है। ४. खुड्डियाए णं विमाणप्पविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। ४. क्षुद्रिका-विमान-प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में सैंतीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त हैं। ५. कत्तियवहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वत्तइत्ता णं चार चरइ। ५. कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैतीस अंगुल की पौरुषी छाया का निवर्तन कर संचरण करता है। - समवाय-सुत्तं १३० समवाय-३७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रट्ठतीसइमो समवाश्रो १. पासस्स णं प्ररहश्रो पुरिसादाणीयस्स श्रद्वतीसं अज्जियासाहस्सोप्रो उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्या । २. हेमवत - हेरण्णवतियाणं जीवाणं धणुपट्ठे श्रद्वतीसं जोयर सहसाइं सत्तय चत्ताले जोयणसए दस एगुणवीसइभागे जोयणस्स किचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ३. प्रत्यस्स णं पव्वयण्णो वितिए कंडे प्रतीसं जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ते । ४. खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए fare वग्गे प्रतीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । समवाय-सुत १३१ अड़तीसवां समवाय १. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व की साध्वीसम्पदा अड़तीस हजार साध्वियों की थी । २. हैमवत और हैरण्यवत की जीवा के धनुःपृष्ठ का अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और योजन के उन्नीस भागों में से दस भाग ( ३८७४०१ योजन ) से कुछ विशेष न्यून प्रज्ञप्त है । ३. पर्वतराज अस्त / मेरु का द्वितीय काण्ड ऊँचाई की दृष्टि से अड़तीस हजार योजन ऊँचा है । ४. क्षुद्रिका - विमान - प्रविभक्ति के द्वितीय वर्ग में अड़तीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त हैं । समवाय-३८ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूरणचत्तालीसइमो समवात्रो १. नमिस्स णं श्ररहश्रो एगुणवत्तालीसं आहोहियसया होत्या । २. समयखेत्ते णं एगुणवत्तालीसं कुलपव्वया पण्णत्ता, तं जहातीसं वासहरा, पंच मंदरा, चत्तारि उसुकारा । ३. दोन्चच उत्थपंचमसत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगुणचत्तालीस निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता । ४. नाणावर णिज्जस्स मोहणिज्जस्स गोत्तस्स श्राउस्स--1 - एयासि रणं aroj कम्मपगडीणं एगुणवत्तालोसं उत्तरपगडीनो पण्णत्ताओ । उनतालीसव समवाय १. अतः नमि के उनतालीस सो अवधिज्ञानी थे । २. समय-क्षेत्र में उनतालीस कुल पर्वत प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि. तीस वर्षधर, पांच मंदर और चार इपुकार 1, • ३. दूसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं-इन पांच पृथ्वियों में उनतालीस शत-सहस्र / लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं । ४. ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र और आयुष्य - इन चार की उनतालीस प्रज्ञप्त हैं । : कर्म - प्रकृतियों. उत्तर - प्रकृतियां Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालीसवां समवाय चत्तालीसइमो समवायो १. अरहो णं अरिटुनेमिस्स चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ होत्या। १. अहंत अरिष्टनेमि के चालीस हजार आयिकाएँ/साध्वियां थी। २. मंदरचूलिया णं चत्तालीसं जोय णाई उड्ढे उच्चत्तणं पण्णत्ता। २. मन्दरपर्वत की चूलिका ऊँचाई की दृष्टि से चालीस योजन ऊँची है। ३. संती परहा चत्तालीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। ३. अर्हत् शान्ति ऊँचाई की दृष्टि से चालीस धनुप ऊँचे थे। ४. भूयाणंदस्स णं नागरण्णो चत्ता- लीसं भवणावास-सयसहस्सा पण्यगत्ता। ४. नागराज भूतानंद के चालीस शत___ सहस्र/एक लाख भवनावास प्रज्ञप्त ५. खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। ५. क्षुद्रिका-विमान-प्रविभक्ति के तीसरे ___ वर्ग में चालीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त ६. फग्गुणपुणिमासिरणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वट्टइत्ता णं चार चरइ। ६. फाल्गुन-पूर्णिमा को सूर्य चालीस अंगुल की पौरुषी छाया निष्पन्न कर संचरण करता है । ७. एवं कत्तियाएवि पुण्णिमाए । ७. इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा को । ८. महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। ८. महाशुक्रकल्प में चालीस हजार विमानावास प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्तं समवाय-४० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कचत्तालीस मो समवाश्र १. नमिस्स गं रहो एक्कचत्तालीसं अज्जियासाहस्सोश्रो होत्या । २. चउसु पुढवीतु एक्कवत्तालोसं निरयावास तयसहस्सा पण्णत्ता, तं जहा रयण पहाए पंकपहाए तमाए तमतमाए । ३. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एककचत्तालीसं उद्देसरण काला पण्णत्ता । समवाय-सुतं १३४ इकतालीसवां समवाय १. ऋतु नमि के इकतालीस हजार प्रायिकाएं / साध्वियां थीं । २. चार पृथिवियों में इकतालीस शतसहस्र / लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि - रत्नप्रभा, तमतमा । पंकप्रभा, तमा और ३. महती -विमान- प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में इकतालीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त हैं । समवाय- ४१ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बायालीसइमो समवाश्रो १. समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाई साहियाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे-बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वडे सन्वदुक्खवहीणे । २. जंबुद्दीवस्स गं दीवस्स पुरस्थि - मिल्लाश्रो चरिमंताओ गोथूभस्स रणं आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते, एस गं वायालीसं जोयणसहस्साइं प्रवाहए अंतरे पत्ते । ३. एवं चउद्दिसि पि दोभासे संखे दयसीमे य । ४. कालोए गं समुद्दे वायालीसं चंदा जोईसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा वायालीसं सूरिया भासिसु वा पभासिति वा पभासिस्संति वा । ५. संमुच्छिमभूयपरिसप्पारणं उक्को - सेणं बायालीसं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता । ६. नामे णं कस्मे वायालीसविहे पण्णत्ते, तं जहा ---- गइनामे जाइनामे सरीरनामे समवाय-सुतं १३५ बयालीसवां समवाय १. श्रमरण भगवान् महावीर बयालीस से कुछ अधिक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखरहित हुए । २. जम्बूद्वीप- द्वीप के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का अन्तर अवाधतः वयालीस हजार योजन प्रज्ञप्त है । ३. इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी उदकभास-शंख और उदकसीम का [ अन्तर ज्ञातव्य है । ] ४. कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्रमात्र ने उद्योत किया था, करते हैं और करेंगे । इसी प्रकार बयालीस सूर्यो ने प्रकाश किया था, प्रकाश करते है और प्रकाश करेंगे । ५. सम्मूच्छिम भुजपरिसर्प की उत्कृष्टतः वयालीस हजार वर्ष की स्थिति प्रज्ञप्त है । ६. नाम कर्म बयालीस प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि --- गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, समवाय- ४२ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीरंगोवंगनामे सरीरबंधणनामे सरीरसंघायणनामे संघयणनामे संठाणनामे वणनामे गंधनामे रसनामे फासनामे अगरयलहुयनामे उवधायनामे पराघायनामे आणुपुन्वीनामे उस्सासनामे प्रातवनामे उज्जोयनामे विहगगइनामे तसनामे थावरनामे सुहुमनामे बायरनामे पज्जत्तनामे अपज्जत्तनामे साधारणसरीरनामे पत्तेयसरीरनामे थिरनामे अथिरनामे सुभनामे असुभनामे सुभगनामे दूभगनामे सुस्सरनामे दुस्सरनामे प्राएज्जनामे अणाएज्जनामे जसोकित्तिनामे अजसोकित्तिनामे निम्माणनामे तित्थकरनामे । शरीरांगोपांगनाम, शरीरवंधननाम, शरीरसंघातनाम, संहनननाम; संस्थाननाम, वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम,पानुपूर्वीनाम, उच्छ वासनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, विहगगतिनाम, सनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, वादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यश:कीर्तिनाम, अयशः कीर्तिनाम, निर्माणनाम, तीर्थङ्करनाम । ७. लवणे णं समुद्दे वायालीसं नागसाहस्सीओ अमितरियं वेलं धारति । ७. लवरणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला के बयालीस हजार नाग धारण करते हैं । ८. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे वायालीसं उद्देसण- काला पण्णत्ता। ८. महती-विमान-प्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में बयालीस हजार उद्देशन-काल प्रज्ञप्त हैं। ६. एगमेगाए प्रोसप्पिणीए पंचमछट्ठीओ समाप्रो बायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तानो। ६. प्रत्येक अवसर्पिणी का पांचवां और छठा आरा बयालीस हजार वर्ष के कालमान का प्रज्ञप्त है। १०. एगमेगाए उस्सप्पिणीए पढम- वीयानो समानो बायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णतायो। १०. प्रत्येक उत्सर्पिणी का पहला और दूसरा आरा वयालीस हजार वर्ष के कालमान का प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं १३६ समवाय-४२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेयालीसइमो समवाओ १. तेयालीसं कम्म विवागज्भयणा पण्णत्ता । २. पढमच उत्थपंचमासु -- तीसु पुढवीसु तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता | ३. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरत्थि - मिल्लाओ चरिमंताओ गोथूभस्स णं श्रावासपव्वयस्स पुरत्थि मिल्ले चरिमंते, एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते । ४. एवं चउद्दिसपि दोभासे संखे दयसोमे । ५. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए ततिये वग्गे तेयालीसं उद्देसण काला पण्णत्ता । समवाय-सुतं १३७ तेयालीसवां समवाय १. कर्मविपाक के तेयालीस अध्ययन प्रज्ञप्त हैं । २. पहली, चौथी और पांचवीं - इन तीन पृथिवियों में तेयालीस शतसहस्र / लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं । ३. जम्बूद्वीप द्वीप के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त का अन्तर अवाघतः तेयालीस हजार योजन का प्रज्ञप्त है । ४. इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी उदकावभास, शंख और उदकसीम का [ अन्तर ज्ञातव्य है । ] ५. महती -विमान- प्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में तेयालीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त हैं । समवाय--४३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोयालीसइमो समवायो १. चोयालोसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुयाभासिया पण्णत्ता। चौवालीसवां समवाय १. देवलोक से च्युत / अवतरित [ऋपियों] द्वारा भापित 'ऋपिभापित' के चवालीस अध्ययन प्रज्ञप्त हैं। २. विमलस्स णं अरहतो चोयालीसं पुरिसजुगाई अणुपट्टि सिद्धाई बुद्धाई मुत्ताई अंतगडाइं परिणिन्वुयाई सन्वदुक्खप्पहीणाई। २. अर्हत् विमल के चौवालीस पुरुपयुग अनुक्रमशः सिद्ध, बुद्ध, मुक्त,अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दु:ख-रहित हुए। ३. धरणस्स णं नागिदस्स नागरण्णो चोयालीसं भवरणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ३. नागराज नागेन्द्र धरण के चौवालीस शत-सहस्र/लाख भवनावास प्रज्ञप्त ४. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ते । ४. महती-विमान-प्रविभक्ति के चौथे वर्ग में चीवालीस उद्देशन-काल प्रज्ञप्त समवाय-सुत्तं १३८ समवाय-४४ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणयालीसइमो समवा १. समयखेत्ते णं पणयालीस जोयणसयसहस्साइं श्रायामविवखंभेणं पण्णत्ते । २. सीमंतए णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं श्रायामविवखंमेणं पण्णत्ते । ३. एवं उडुविमाणे पण्णत्ते । ४. ईसिप भारा गं पुढवी पण्णत्ता एवं चैव । ५. धम्मे णं अरहा पणयालीसं घणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या । ६. मंदरस्स णं पव्वयस्स चउदिसिपि पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । ७. सन्वेवि णं दिवड्ढखेत्तिया नक्खत्ता पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्ध जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा । तिन्नेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता, पणयाल- मुहुत्त - संजोगा ॥ समवाय-सुतं १३६ पैंतालीसवां समवाय १. समयक्षेत्र / ढ़ाई द्वीप पैंतालीस शत- सहस्र / लाख योजन आयामविष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त है । २. सीमंतक नरक पैंतालीस शत-सहस्र / लाख योजन आयाम-विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त है | ३. इसी प्रकार उडविमान प्रज्ञप्त है । ४. और इसी प्रकार ईपत् प्राग्भारा पृथिवी प्रज्ञप्त है । ५. अर्हत् धर्म ऊंचाई की दृष्टि से पैंतालीस धनुष ऊंचे थे । ६. मन्दर पर्वत का चारों दिशाओं में पैंतालीस - पैंतालीस हजार योजन का अवाघत: अन्तर प्रज्ञप्त है । के ७. द्वघर्धक्षेत्र ( डेढ़ समक्षेत्र ) सर्व नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त्त तक चन्द्र के साथ योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे । तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी, और विशाखा- ये छह नक्षत्र चन्द्र के साथ पैंतालीस मुहूर्त्त तक संयोग करते हैं । समवाय- ४५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. महालियाए णं विमाणपविभ- त्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसणकाला पण्णता। ८. महती-विमान-प्रविभक्ति के पांचवें वर्ग में पैंतालीस उद्देशन-काल प्रजप्त हैं । समवाय-सुत्तं १४० समवाय-४५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छायालीसइमो समवाश्रो १. दिट्टिवायरस णं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता । २. बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पण्णत्ता । ३. पमंजणस्स णं वातकुमारिदस्स छायालीसं भवणावाससय सहस्सा पण्णत्ता । समवायत्तं १४१ छियालीसवां समवाय १. दृष्टिवाद के मातृकापद छियालीस प्रज्ञप्त हैं । २. ब्राह्मी लिपि के मातृकाक्षर छियालीस प्रज्ञप्त हैं । ३. वायुकुमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस शत- सहस्र / लाख प्रज्ञप्त हैं । भवनावास समवाय- ४६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तचालीसइमो समवायो सैंतालीसवां समवाय १. जया णं सुरिए सवन्तरमंडलं उवसंकमित्ता णं चार चरइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स सत्तचत्तालोसं जोयणसहस्सेहि दोहि य तेवहिं जोयणसएहि एक्कघीसाए य सद्विभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छइ । १. जव सूर्य सर्व-ग्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर सचरण करता है तव भरतक्षेत्रगत मनुष्य को वह सैतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजन के साठ भागों में से इक्कीस भाग (४७२६३ ३१ योजन) की दूरी से दिखाई देता है। २. थेरे णं अग्गिभूई सत्तालीसं वासाई अगारमझा वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए। २. स्थविर अग्निभूति सैतालीस वर्ष तक अगार-मध्य रहकर मुंड हुए और अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। ____ संमचाय-पुतं सेमवाय-सुत्तं १४२ समवाय-४० समवाय-४७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडयालीसइमो समवाश्रो १. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्क वट्टिस्स डयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता | २. घम्सस्स णं अरहो अडयालीसं गणा डाली गहरा होत्या । ३. सूरमंडले णं अडपालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स पण्णत्ते । विक्खंभेरगं समवाय-सुतं १४३ अड़तालीसवां समवाय १. प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती के अड़ता लीस हजार पत्तन प्रज्ञप्त हैं । २. अर्हत् धर्म के अड़तालीस गरण और ड़तालीस गणधर थे । ३. सूर्यमण्डल का एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-परिमित (योजन ) विष्कम्भ / विस्तार प्रज्ञप्त है । समवाय- ४८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूरणपण्णासइमो समवायो उनचासवां समवाय १. सत्तसत्तमिया गं भिक्खुपडिमा एगणपण्णाए राईदिएहिं छन्नउएरणं भिक्खासएणं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्म कारण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया प्राणाए प्राराहिया याचि भवइ। १. सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा उनचास रात-दिन में एक सौ छियानवे भिक्षा[-दत्तियों से सूत्र के अनुरूप, कल्प के अनुरूप, मार्ग के अनुरूप तथा तथ्य के अनुरूप काया से सम्यक् स्पृष्ट, पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और आज्ञा से आराधित होती है। २. देवकुरु-उत्तरकरासु णं मणुया एगणपण्णाए राइदिएहि संपत्तजोवरणा भवंति । २. देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुज उनचास रात-दिन में यौवन-सम्पन्न हो जाते हैं। ३. तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगणपण्णं । राइंदिया ठिई पण्णत्ता। ३. त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति उनचास रात-दिन की प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं समवाय-४६ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णासइमो समवाओ पचासवां समवाय १. मुणिसुब्वयस्स गं अरहनो पंचासं अज्जियासाहस्सोलो होत्या। १. अर्हत् मुनिसवत के पचास हजार आर्यिकाएँ/साध्वियां थीं। २.अणते गं अरहा पण्णासं धई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। २. अर्हत् अनन्त ऊँचाई की दृष्टि से पचास धनुप ऊँचे थे। ३. पुरिसोत्तमे णं वासुदेवे पण्णासं धणई उड्ढे उच्चत्तणं होत्या। ३. वासुदेव पुरुषोत्तम ऊँचाई की दृष्टि से पचास धनुप ऊँचे थे। ४. सव्वेवि णं दोहयेयड्ढा मूले पण्यासं-पण्णासं जोयरपाणि धिक्संभणं पण्णत्ता। ४. सर्व दीर्घ-वैताढ्य पर्वत मूल में पचास-पचास योजन विष्कम्भक/ चौड़े प्रज्ञप्त हैं। ५. लतए कप्पे पण्णासं विमाणावाससहस्सा पण्पत्ता। ५. लान्तक कल्प में पचास हजार विमानावास प्रशप्त हैं। ६. सन्वानो णं तिमिस्सगुहाखंड गप्पवायगुहानो पण्णासं-पण्णासं जोयणाई प्रायामेणं पण्णत्ता । ६. सर्व तमिस्रगुफाएँ एवं खंडप्रपातगुफाएं पचास-पचास योजन आयाम की लम्बी प्रज्ञप्त हैं। ७. सव्वेवि णं कंचणगपव्वया सिहर तले पण्णासं• पण्णासं जोयणार्ड विक्खंभेणं पण्णत्ता। ७. सभी कांचनक-पर्वत शिखरतल पर पचास-पचास योजन विष्कम्भक/ चौड़े प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुतं १४५ समवाय-५० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगपणासमो समवाप्र १. नवहं बंभचेराणं एकावण्णं उद्देणकाला पण्णत्ता | २. चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो सभा सुधम्मा एकावण्णभसयसंनिविट्ठा पण्णत्ता । ३. एवं चेव बलिस्सवि । ४. सुप्पमे णं बलदेवे एकावण्णं वासस्यसहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्धे वुद्धे मुत्ते तगडे परिणित्वडे सव्वदुक्ख होणे । ५. दंसरणावरणनामाणं - दोण्हं कम्माणं एकावरण उत्तरपगडीनो पण्णताओ । समवाय- सुत्त इक्यावनवां समवाय १. नो ब्रह्मचर्य [ अध्ययनों ] के इक्यावन उद्देशन - काल प्रज्ञप्त है । २. प्रमुरराज असुरेन्द्र चमर की सुधर्मा सभा इक्यावन सौ स्तम्भों पर मन्निविष्ट है । ३. इसी प्रकार वली की [ सभा भी ।] ४. वलदेव सुप्रभ इक्यावन शत- सहस्र / लाख वर्ष की परम प्रायु पाल कर मिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सर्व दुःख-मुक्त हुए । १४६ ५. दर्शनावरण और नाम- इन दो क्रमों की इक्यावन उत्तर- प्रकृतियाँ प्रज्ञप्त हैं । समवाय- ५१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावण्णइमो समवायो बावनवां समवाय १. मोहणिज्जस गं कम्मरस वापन्न नामधेज्जा पण्णता, तं जहाफोहे कोये रोसे छोसे प्रखमा संजलणे फलहे चंडिपके भंडणे विवाए; माणे मदे दप्पे थभे अत्तुपकोसे गव्वे परपरिवाए उपकोसे प्रवक्कोसे उन्नए उन्नाम; माया उवही नियटी पलए गहणे णमे करके कुरुए वंभे फडे जिम्हे किदिवसिए अणायरणया ग्रहणया पंचरण्या पलिकंचणया सातिजोगे; लोभे इच्छा मुच्छा फंखा ही तिण्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदी रागे। १. मोहनीय कर्म के वावन नाम प्रजप्त हैं। जैसे किफ्रोध, कोप, रोप, अक्षमा, संज्वलन, फलह, चांडिपय, मंडन, विवाद मान, मद, दर्प, स्तंभ, प्रारमोत्कर्ष, गर्ष, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम; माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, फुरुक, दंभ. कूट, जैह्म, किल्विपिक, अनाचरण, गृहन, वंचन, परिकुचन, सातियोग; लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी, राग । २. गोयूभस्स णं आवासपचयरस पुरथिमिल्लानो चरिमंतामो मलयामुहस्स महापायालस्स पक्ष. चथिमिले चरिमंते, एस 4 बावन्न जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णता । २. गोस्तूप प्रावास-पर्वत के पूर्वी चर मान्त से वडवामुख महापाताल के पश्चिमी चरमान्त को अबाधतः अन्तर बावन हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ३. एवं दोभासस्स णं केउकस्स संखक्स जयकस्स, दयमीस्स ईसरस्स। ३. इसी प्रकार दकभास केतुक को, शंख यूप का और दकसीम ईश्वर महा. पाताल का [अन्तर ज्ञातव्य है ।] समवाय-सुत्त १४७ समवाय-५२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. नाणावर णिज्जस्स नामस्स अंतरातियस्स - एतासि णं तिन्हं कम्मपगडीणं वावन्तं उत्तरपयडीओ पण्णत्ताओ । ५. सोहम्म - सणकुमार - माहिदेसुतिसु कप्पे वावन्नं विमाणावास सय सहस्सा पण्णत्ता । समवाय-सुत्तं १४८ ४. ज्ञानावरणीय, नाम एवं अंतराय - इन तीन कर्म-प्रकृतियों को बावन उत्तर - प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं । ५. सीधमें, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन तीन कल्पों में बावन शतसहस्र / लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं । समवाय- ५२ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवर इमो समवात्रो १. देवकुरुउत्तरकुरियातो णं जीवाओ तेवन्नं - तेवन्नं जोयणसहस्साई साइरेगाई श्रायामेणं पण्णत्ताओ । २. महाहिमवं तरुप्पीणं वासहरपदवयाणं जीवाश्रो तेवन्नं तेवन्नं जोयरणसहस्साइं नव य एगतीसे जोयरस छच्च एक्कूणवीसइभाए जोure श्रायामेणं पण्णताम्रो । • ३. समणस्स णं भगवश्रो महावीरस्स तेवन्नं प्रणगारा संवच्छर परियाया पंचसु श्रणुत्तरेस महइमहालएसु महाविमारणेसु देवत्ताए उववन्ना । ४. संमुच्छिम - उरपरिसप्पारगं उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई पण्णत्ता । समवाय-सुतं १४ε तिरपनवां समवाय १. देवकुरु और उत्तरकुरु की जीवा तिरपन- तिरपन हजार योजन से कुछ अधिक श्रायाम की-लम्बी प्रज्ञप्त है । २. महाहिमवान और रुक्मी वर्षंघर पर्वतों की जीवाएँ तिरपन- तिरपन हजार नौ सौ इकत्तीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग कम (५३९३१ ६ योजन) आयाम की - लम्वी प्रज्ञप्त है । ३. श्रमण भगवान् महावीर के एक संवत्सर / एक वर्षीय श्रमण-पर्याय वाले तिरपन अनगार प्रति विशिष्ट पांच अनुत्तर महाविमानों में देवत्व से उपपन्न हुए । ४. सम्मूच्छिम उरपरिसृप जीवों की उत्कृष्टतः तिरपन हजार वर्ष की स्थिति प्रज्ञप्त है | समवाय- ५३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवण्णइमो समवायो चौपनवां समवाय १. भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए प्रोसप्पिणीए एगमेगाए उस्सप्पिणीए चउप्पण्णं चउप्पण्णं उत्तम. पुरिसा उपज्जिस वा उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्सति वा, तं जहाचउवीसं तित्थकरा, बारस चषकवट्टी, नव बलदेवा, नव वासुदेवा । १. भरत-ऐरवत वर्षों/क्षेत्रों में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में चौपनचौपन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए थे उत्पन्न होते है और उत्पन्न होंगे। जैसे किचौवीस तीर्थकुर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव । २. अरहा णं अरिटुनेमी चउप्पण्णं राईदियाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सवण्णू सव्वभावदरिसी। २. अर्हत् अरिष्टनेमि चौपन रात-दिन तक छमस्थ-पर्याय पालकर जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हुए । ३. समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसेज्जाए चउप्पण्णाई वागरणाई वागरित्या। ३. श्रमण भगवान् महावीर ने एक दिन में एक ही आसन पर बैठे हुए चौपन व्याकरण कहै। ४. अणंतस्स गं अरहो चउप्पण्णं गणा चउप्पण्णं गणहरा होत्था। ४. अर्हत् अनन्त के चौपन गण और चौपन गणधर थे । समवाय-पुत्तं १५० १५० समत्राय-५४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणपण्णइमो समवायो पचपनवां समवाय १. मल्ली गं अरहा पणपण्णं वास सहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे । २. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लानो चरिमंतानो विजयदारस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं पणपणं जोयणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्पते । १. अर्हत् मल्ली पचपन हजार वर्ष की परम-आयु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत्त और सर्व दुःखमुक्त हुए। २. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त का अबाधत: अन्तर पचपन हजार योजन प्रज्ञप्त है। ३. एवं चउहिसिपि विजय-वेजयंत- जयंत-अपराजियंति। ३. इसी प्रकार चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित [द्वारों का अन्तर ज्ञातव्य है।] ४. समणे भगवं महावीरे अंतिमराइ यंसि पणपण्णं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई, पणपण्णं अज्झयणारिण पावफलविवागाणि वागरिता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुड़े सव्वदुक्खप्पहोणे। ४. श्रमण भगवान् महावीर अंतिम रात्रि में कल्याणफलविपाक के पचपन अध्ययन और पापफलविपाक के पचपन अध्ययनों की देशना देकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिवृत और सर्व दुःख-मुक्त हुए। ५. पढमविइयासु-दोसु पुढवीसु पणपण्णं निरयावाससयसहस्सा ५. पहली और दूसरी-इन दो पृथ्वियों में पचपन शत-सहस्र/लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। पण्णत्ता। ६. दसरणावरणिज्जनामाउयारणं तिण्हं कम्मपगडीणं परएपण्णं उत्तरपगडीनो पण्णत्तानो। ६. दर्शनावरणीय, नाम तथा आयुष्यइन तीन कर्म-प्रकृतियों की पचपन उत्तर-प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं। ममवाय-५५ समवाय-सुत्तं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पर इमो समवा १. जंबुद्दीवे रणं दीवे छप्पण्णं नक्खत्ता चंदेरण सद्धि जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा । २. विमलस्स गं अरहश्रो छप्पण्णं गरणा छप्पण्णं गणहरा होत्या । समवाय-सुत्त छप्पनवां समवाय १. जम्बूद्वीप द्वीप में छप्पन नक्षत्रों ने चन्द्रमा के साथ योग किया था, योग करते हैं और योग करेंगे । ( जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा प्रत्येक चन्दमा के साथ अट्ठाईस नक्षत्रों का योग २८x२= ५६ ) २. प्रत् विमल के छप्पन गरण और छप्पन गणधर थे । १५२ समवाय- ५६ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावरणइमो समवाश्रो १. तिन्हं गरिणपिडगाणं श्रायारचूलियावज्जाणं सत्तावणं श्रयणा पण्णत्ता, तं जहा -- श्रायारे सूयगडे ठाणे | २. गोथूभस्स णं श्रावासपव्वयस्स पुरथिमिल्लाश्रो चरिताश्रो वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्भसभाए, एस गं सत्तावणं जोयणसहस्साइं प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते । के यस्स य, संखस्स जूयकस्स य दयसीमस्स ईसरस्स य । ३. एवं दत्रोभासस्स ४. मल्लिस णं श्ररहन सत्तावण्णं मणपज्जवनाणिसया होत्था । ५. महाहिमवंतरुप्पीणं वासधरपव्वया जीवाणं धणुपट्टा सत्तावण्णंसत्तावणं जोयणसहस्साइं दोणि य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परि खेवेणं पण्णत्ता | समवाय-सुतं १५३ सत्तावनवां समवाय १. आचारचूलिका को छोड़ कर तीन गरिपिटकों के सत्तावन अध्ययन हैं, जैसे कि- आचार, सूत्रकृत, स्थान । [ -तीन गणिपिटक ] २. गोस्तूप आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त से वडवामुख महापाताल के वहुमध्यदेशभाग का अवाघतः अन्तर सत्तावन हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ३. इसी प्रकार दकभास केतुक का, शंख ग्रूप का और दकसीम ईश्वर का [ अन्तर ज्ञातव्य है । ] ४. अर्हत् मल्ली के सत्तावन सौ मनः पर्यवज्ञानी थे । ५. महाहिमवान और रुक्मोवर्षधर पर्वतों की जीवा के धनुःपृष्ठ का सत्तावन हजार दो सौ तेरानत्रे योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दश भाग परिमित (५७२९३१) का परिक्षेप (परिधि ) प्रज्ञप्त है । समवाय-५७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाण्णइमो समवाश्रो १. पढमदोच्च पंचमासु - तिसु पुढवोसु अट्ठावण्णं निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता | २. नाणावरणिज्जस्स वेयणिज्जस्स य------ श्राउयनामअंतराइयल्स एयासि णं पंचहं कम्मपगडीणं अट्ठावण्णं उत्तरपगडीग्रो पण्णताश्रो । ३. गोयूभस्स णं श्रावासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्लाश्रो चरिमंताश्र वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमदेसमाए, एस णं अट्ठावण्णं जोयरणसहस्साइं प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ४. एवं दश्रीमासस्स णं केउकस्स संखस्स जूयकस्स दयसीमस्स ईसरस्स | समवाय-सुत्तं ૫૪ अट्ठावनवां समवाय १. पहली, दूसरी एवं पांचवीं - इन तीनों पृथिवियों में अट्ठावन शतसहस्र / लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं । २. ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और अन्तराय - इन पांच कर्मप्रकृतियों की अट्ठावन उत्तरप्रकृतियां प्रज्ञप्त है । ३. गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से वडवामुख महापाताल के बहुमध्यदेशभाग का प्रबाधतः अन्तर अट्ठावन हजार योजन प्रज्ञप्त है । ४. इसी प्रकार दकावभास केतुक का, शंख यूप का और दकसीम का भी [ अन्तर ज्ञातव्य है । ] • समवाय-५८. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसट्ठिम समवा १. चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उ एगूणस राइंदियाणि राईदिग्गेणं पण्णत्ते | २. संभवे णं अरहा एगूणसट्ठि पुत्वसय सहस्साई श्रगारमज्झावसित्ता णं श्रगारानो अपगारिश्र पव्वइए । ३. मल्लिस णं श्ररहश्रो एगूणसट्ठ मोहिनाणिसया होत्या । समवाय-सुत्तं 5 १५५ उनसठवां समवाय १. चन्द्र-संवत्सर की प्रत्येक ऋतु रातदिन की दृष्टि से उनसठ रात-दिन की प्रज्ञप्त है । २. श्रर्हत् संभव ने उनसठ शत - सहस्र / लाख पूर्व तक अगार-मध्य रहकर प्रगार से अनगार प्रव्रज्या ली । ३. अत् मल्ली के उनसठ सौ अवधिज्ञानी थे । समवाय- ५६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सट्ठिमो समवायो १. एगमेगे णं मंडले सूरिए सहिए- सहिए मुहुत्तहि संघाएइ । २. लवणस्त णं समुहल्स सर्टि नाग साहस्सोयो अग्योदयं धारेंति । साठवां समवाय १. मूर्य एक-एक मंडन को साठ-साठ मुहूत्तों से संघात पूर्ण करता है। २. लवरण-समुद्र के अनोदक/जलशिता को साठ हजार नाग धारण करते ३. विमले णं अरहा सट्टि धणूई उड्डं उच्चत्तणं होत्या। ४. बलिस्स णं वइरोणिदस्स सढि सामाणियसाहस्सीग्रो पण्णत्तानो। ३. अर्हत् विमल ऊंचाई की दृष्टि से ना० धनुष ऊँचे थे। ४. वैरोचनेन्द्र बली के साठ हजार नामानिक देव प्राप्त हैं। ५. देवराज देवेन्द्र ब्रह्म के साठ हजार सामानिक देव प्रजप्त हैं। ५. बंभस्स णं देविदास देवरणो ठि सामाणियसाहस्सीनो पण्णत्तानो। ६. सोहम्मीसाणेसु-दोसु कप्पेतु सढि विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ६. सौधर्म व ईशान-दो कल्पों में साठ शत-सहस्र/लाख विमानावात प्रज्ञप्त ___समवाय-सुत्त समवाय-सुत्त १५६ १५६ समवाय-६० समवाय-६० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगसट्ठिमो समवाश्रो १. पंचसवच्छ रियस णं जुगस्स रिदुमासेणं मिज्जमाणस्स एगसट्ठि उदुमासा पण्णत्ता । २. मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे एगसट्ठिजोयणसहस्साइं उच्चणं पण्णत्ते । उड़ ३. चंदमंडलेगं विमाइए समंसे पण्णत्ते । ४. एवं सूरस्सवि । एगसट्ठिविभाग समवाय-सुतं इकसठवां समवाय १. ऋतुमास के परिमाण से पंचसांवत्सरिक युग के इकसठ ऋतुमास प्रज्ञप्त हैं । १५७ . २. मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड ऊँचाई की दृष्टि से इकसठ हजार योजन ऊँचा प्रज्ञप्त है । ३. चन्द्रमण्डल योजन के इकसठवें भाग से विभाजित होने पर समांश प्रज्ञप्त है । ४. इसी प्रकार सूर्य भी [ ज्ञातव्य है । ] समवाय - ६१ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावट्ठमो समवाश्रो १. पंचसवच्छरिए णं जुगे बावट्ठ पुणिमात्र वाट्ठि श्रमावसान पण्णत्ताओ । २. वासुपुज्जस्स णं रहो बावट्ट गणा बार्वा गहरा होत्था । ३. सुक्कपक्खस्स णं चंदे बावट्ठ भागे दिवसे दिवसे परिवडइ, ते चेव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायइ | ४. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बावट्ठ-बावट्ठ विमाणा पण्णत्ता । ५. सव्वे · विमाणपत्est पण्णता । समवाय-सुत्तं वैमाणियाणं बावट्ठ पत्थडग्गेणं १५८ बासठवां समवाय १. पच सांवत्सरिक युग में वासठ पूर्णिमाएँ और वासठ श्रमावस्थाएँ प्रज्ञप्त हैं । २. प्रत वासुपूज्य के वासठ गरण और बासठ गणधर प्रज्ञप्त थे । ३. शुक्लपक्ष का चन्द्र दिन-प्रतिदिन वासठ भाग बढ़ता है और बहुलपक्ष / कृष्णपक्ष में चन्द्र दिन-प्रतिदिन वासठ भाग घटता है । ४. सौधर्म - ईशान कल्प के प्रथम प्रस्तर की प्रथम आवलिका की एक-एक दिशा में वासठ - वासठ विमान प्रज्ञप्त है ५. सर्व वैमानिकों के प्रस्तर की दृष्टि से विमान प्रस्तर बासठ प्रज्ञप्त हैं । समवाय- ६२ · Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरसठवां समवाय तेंवट्ठिमो समवायो १. उसमे णं अरहा कोसलिए तेसर्टि पुव्वसयसहस्साई महारायवासमज्भावसित्ता मुंडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पच्वइए । १. अर्हत् कौशलिक ने ऋषभ तिरसठ शत-सहस्र/लाख पूर्वो तक महाराज के रूप में गृहवास में रहकर मुड होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। २. हरिवासरम्मयवासेसु मणुस्सा तेवहिए राइंदिएहि संपत्तजोवणा भवंति। ३. निसहे णं पदवए तेवढि सूरोदया पण्णत्ता। २. हरिवर्ष एवं रम्यकवर्ष के मनुष्य तिरसठ रात-दिन में यौवन-दशा को प्राप्त होते हैं। ३. निषघ पर्वत पर तिरसठ सूर्योदय प्रज्ञप्त हैं। ४. इसी प्रकार नीलवंत पर भी [ ज्ञातव्य है ।] ४. एवं नीलवतेवि। समवाय-सुत्तं १५९ समवाय-६३ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसठिमो समवायो चौसठवां समवाय १. अटुट्टमिया णं मिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहि भिक्खासएहिं अहासुत्तं महाकप्पं अहामगं अहातच्चं सम्मं काएरण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए पाराहिया यावि भवइ । १. अष्टअष्टमिका भिक्षु-प्रतिमा चौसठ रात-दिन में दो सौ अठासी भिक्षा [-दत्तियों] से सूत्र के अनुरूप, कल्प के अनुरूप, मार्ग के अनुरूप और तथ्य के अनुरूप काया से सम्यक् स्पृष्ट, पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और आज्ञा से आराधित होती है। २. असुरकुमारावास चौसठ शत-सहस्र/ लाख प्रज्ञप्त हैं। २. चउट्टि असुरकुमारावाससय सहस्सा पण्णत्ता। ३. चमरस्स रणं रणो चउछि सामाणियसाहस्सीमोपण्णत्तायो। ३. राजा चमर के चौसठ हजार सामानिक प्रज्ञप्त हैं। ४. सव्वेवि णं दधिमुहा पन्वया पल्ला-संठाण-संठिया सन्वत्थ समा दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, उस्सेहेणं, चउछिचउछि जोयरणसहस्साई पण्णत्ता। ४. समस्त दधिमुख पर्वत पल्य-संस्थान से संस्थित हैं, सर्वत्र सम हैं, दस हजार योजन विष्कम्भक/चौड़े हैं, उनका उत्सेध (ऊँचाई) चौसठचौसठ हजार योजन प्रज्ञप्त है । ५. सोहम्मीसाणेसु बंभलोए यतिसु कप्पेसु चउछि विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ५. सौधर्म, ईशान और ब्रह्मलोक-इन तीनों कल्पों में चौसठ शत-सहस्र/ एक लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं। ६. सव्वस्सवि य णं रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउसलिट्ठोए महग्धे मुत्तामणिमए हारे पण्णत्ते। ६. समस्त चातुरन्त चक्रवर्ती राजाओं के चौसठ लड़ियों वाला महार्थ्य/ बहुमूल्य मुक्तामरिणयों का हार प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं समवाय-६४ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणसठिमो समवायो पैंसठवां समवाय १. जंबुद्दीवे णं दौवे पणसदि सूर. मंडला पण्णत्ता। १. जम्बूद्वीप-द्वीप में पैंसठ सूर्यमण्डल प्रज्ञप्त हैं। २. थेरे णं मोरियपुत्ते पणसहिवासाइं प्रगारमझावसित्ता मुंडे भविता अगारामओ अणगारियं पव्वइए। २. स्थविर मौर्यपुत्र ने पैसठ वर्ष तक अगार-मध्य रहकर, मुंड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। . ३. सोहम्मवडेंसयस्स गं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणदि-पणसट्टि भोमा पण्णत्ता। ३. सौधर्मावतंसक विमान की प्रत्येक बाहु/दिशा में पैसठ-पैसठ भौम प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुतं समवाय-सुतं १६१ १६१ समवाय-६५ समवाय-६५ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छावठिमो समवाश्र १. दाहिणड्ढमगुस्सखेत्ता णं छा चंदा पमासु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, छाट्ठ सूरिया विसु वा तवेंति वा तविस्संति वा । २. उत्तरड्ढमणुस्तखेत्ता णं छाट्ठ चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, छावट्ठ सूरिया विसु वा तवेंति वा तविस्संति वा । ३. सेज्जंसस्स णं श्ररहन छाट्ठ गरणा छाट्ठ गणहरा होत्या । रणं ४. आभिणिबोहियनाणस्स उक्कोसेरगं छाट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता | समवाय-सुत्त १६२ छासठवां समवाय १. दक्षिणार्द्ध मनुष्य क्षेत्र को छासठ चन्द्र प्रकाशित करते थे, प्रकाशित करते हैं और प्रकाशित करेंगे । इसी प्रकार छासठ सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे । २. उत्तरार्द्ध मनुष्य-क्षेत्र को छासठ चन्द्र प्रकाशित करते थे, करते हैं और प्रकाशित करेंगे । इसी प्रकार छामठ सूर्य तपते थे, तपते हैं और पेगे । ३. प्रत् श्रेयांस के छासठ गण और छासठ गणधर थे । ४. आभिनिवोधिक ज्ञान की उत्कृष्टतः छासठ सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है । समवाय-६६ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सडसठवां समवाय सत्तसट्ठिमो समवायो १. पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्त नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स सत्तसहि नक्खत्तमासा पण्णत्ता। १. नक्षत्रमास की गणना से पंच सांवत्सरिक युग के सड़सठ नक्षत्रमास प्रज्ञप्त हैं। २. हेमवत-हेरण्णवतियानो णं बाहाम्रो सत्तसहि-सत्तसहिजोयणसयाइं पणपण्णाई तिणि य भागा जोयणस्स आयामेणं पण्णताओ। २. हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र की वाहुएँ/भुजाएं सड़सठ-सड़सठ सौ पचपन योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से तीन भाग (६७५५३ योजन) आयाम कीलम्बी प्रज्ञप्त है। ३. मंदरस्स णं पन्वयस्स पुरत्थिमिल्लायो चरिमंताओ गोयमस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते, एस णं सत्तसहि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ३. मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गौतम द्वीप के पूर्वी चरमान्त का अवाधतः अन्तर सड़सठ हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ४. सर्वसिपि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खंभेणं सत्तसद्धिं भागं विभाइए समंसे पण्णत्ते। ४. समस्त नक्षत्रों का सीमा-विष्कंभ/ विस्तार सड़सठ भागों से विभाजित करने पर समांश प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं १६३ समवाय-६७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असठिमो समवायो अड़सठवां समवाय १. धातकीखंड द्वीप में अड़सठ चक्रवर्तीविजय और अड़सठ राजवानियां प्रज्ञात हैं। १. घायइसंडे णं दोवे अढि चक्क वट्टिविजया अट्ठसद्धिं रायहाणीनो पण्णत्तायो। २. घायइसंडे णं दोवे उक्कोसपए अछि अरहंता समुप्पज्जिसु वा समुप्पजेंति वा समुप्पज्जिस्संति वा। ३. एवं चक्कवट्टी वलदेवा वासुदेवा। २. घातकीखंड द्वीप में उत्कृष्टतः अड़मठ अर्हत् उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। ४. पुक्खरवरदीवड्ढे णं अट्ठसट्ठि चक्कवट्टिविजया अट्ठि रायहाणीनो पण्णत्ताओ। ३. इसी प्रकार चक्रवर्ती, वलदेव और वासुदेव भी [ज्ञातव्य हैं। ४. अर्द्धपुष्करवरद्वीप में अड़सठ चक्रवर्तीविजय और अड़सठ राजधानियां प्रजप्त हैं। ५. अर्द्धपुष्करपरद्वीप में उत्कृष्टतः अड़सठ अर्हत् उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। ५. पुक्खरवरदीवड्ढे णं उक्कोसपए अट्ठठि परहंता समुपज्जिसु वा समुप्पजेति वा समुप्पज्जिस्संति वा। ६. एवं चक्कवट्टी वलदेवा वासुदेवा। ७. विमलस्स णं अरहलो अछि समणसाहस्सोमो उक्कोसिया समणसंपया होत्या। ६. इसी प्रकार चक्रवर्ती, वलदेव और वासुदेव भी [ज्ञातव्य हैं। ७. अर्हत् विमल के अड़सठ हजार श्रमणों की उत्कृप्ट श्रमण-सम्पदा थी। - १६४ समवाय-६८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगरणसत्तरिमो समवायो उनहत्तरवां समवाय १. समयखेते णं मंदरवज्जा एगण- सतरि वासा वासघरपव्वया . पण्णत्ता, तं जहापणतीसं वासा, तीसं वासहरा, वत्तारि उसुयारा। १. समयक्षेत्र/अढ़ाई द्वीप में उनहत्तर वर्प/क्षेत्र और मेरुवर्जित उनहत्तर वर्षधर पर्वत प्रज्ञप्त हैं, जैसे किपैंतीस वर्प, तीस वर्षधर और चार इपुकार । २. मंदरस्स पन्वयस्स पच्चत्थिमिल्लानो चरिमंतानो गोयमदीवस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं एगणसरि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। २. मन्दर-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप के पश्चिमी चरमान्त का अबाधतः अन्तर उनहत्तर हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ३. मोहणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं एगणसत्तरि उत्तरपगडीओ पण्णताओ। ३. मोहनीय-वजित शेप सात कर्मो की उनहत्तर उत्तर-प्रकृतियां प्रज्ञप्त है । समवाय-सुतं समवाय-सुतं १६५ समवाय-६६ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरिमो समवायो सत्तरवां समवाय १. समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वीतिक्कते सत्तरिए राईदिएहि सेसेहि वासावासं पज्जोसवेइ । १. श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा ऋतु के पचास रात-दिन बीत जाने तथा सत्तर रात-दिन शेष रहने पर वर्षावास के लिए परिवास किया। २. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तर वासाई वहुपडिपुण्णाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्धुडे सम्वदुक्खप्पहीणे। २. पुरुपादानीय अर्हत् पार्श्व सम्पूर्ण सत्तर वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पाल कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःख-मुक्त हुए। ३. वासुपुज्जे गं अरहा सत्तरं धणूई उड्ढं उच्चत्तणं होत्था। ३. अर्हत् वासुपूज्य ऊंचाई की दृष्टि से सत्तर धनुष ऊँचे थे। ४. मोहणिज्जस्त णं कम्मस्स सरि सागरोवमकोडाकोडीओ अवाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते। ४. मोहनीय कर्म की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की अवाधतः कर्मस्थिति एवं कर्म-निषेक/कर्म-उदयकाल प्रज्ञप्त है। ५. माहिदस्स देविवस्स देवरण्णो सरि सामाणियसाहस्सोमो पण्णत्ताओ। ५. देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सत्तर हजार सामानिक प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्त १६६ समवाय-७० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कसत्तरिमो समवात्रो १. चउत्यस्स णं चंदसंयच्छरस्स हेमंताणं एमफलत्तरीए राइदिएहि ursesafe सव्ववाहिरात्रो मंडलाओ सूरिए घाउट्ठि फरेइ । २. वोरियप्पवायस्स णं एक्कसर्त्तार पाहूटा पण्णत्ता | ३. प्रजिते रणं अरहा एक्कसर्त्तार पुव्वसयसहस्साइं श्रगारमभावसित्ता मुंडे नवित्ता णं श्रगाराश्री श्रगारिश्रं पव्वइए । ४. सगरे णं रामा चाउरतचपकवट्टी एक्कसर्त्तार पुव्यय सहस्साई प्रगारमभावसित्ता मुंडे भवित्ता णं श्रगाराम्रो प्रणगारिश्रं पव्वइए । समवाय-सुतं १६७ इकहत्तरवां समवाय १. चतुर्थ चन्द्र-संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सर्व बाह्यमण्डल से प्रवृति ( दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर गमन) करता है । २. वीर्यप्रवाद के इकहत्तर प्रज्ञप्त हैं । प्राभृत/धिकार ३. श्रर्हत् श्रजित ने इकहत्तर शत- सहस्र / लाय पूर्वो तक श्रगार-मध्य रहकर मुंड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली । ४. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा सगर ने इकहत्तर गत सहस्र / लाख पूर्वी तक गार-मध्य रहकर, मुंड होकर, श्रगार से अनगार प्रव्रज्या लो । समवाय-७१ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावत्तरिमो समवाश्रो १. बावर्त्तारं सुवण्णकुमारावास सयसहस्सा पण्णत्ता । २. लवणस्स समुद्दस्स वावर्त्तार नागसाहस्सीश्रो बाहिरियं वेलं धारति । ३. समणे भगवं महावीरे बावर्त्तार वासाई सव्वायं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिगिव्वुडे सव्वदुक्ख होणे । ४. थेरे णं श्रयलभाया बावर्त्तार वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे सुत्ते अंतगडे परिणिन्वडे सव्वदुक्खप्पही । ५. श्रमंतर पुक्खरद्धे णं बावर्त्तार चंदा पभासिसु वा पभार्सेति वा पभासिस्संति वा, बावतर सूरिया तविसु वा तर्वेति वा तविस्संति वा । ६. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स बावर्त्तार पुरवर: साहसी पण्णत्ता । ७. बावर्त्तारं कलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. लेहं, २. गणियं, ३. रूवं, • नटं, ५. गीयं, ६. वाइयं, ४. समवाय-सुतं १६८ बहत्तरवां समवाय १. सुपर्णकुमार देवों के वहत्तर शतसहस्र / लाख आवास प्रज्ञप्त हैं । २. लवरण - समुद्र की बाहरी वेला को वहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। ३. श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष की सर्वायु पाल कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखरहित हुए। ४. स्थविर अचल भ्राता वहत्तर वर्ष की सर्वायु पाल कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखरहित हुए । ५. आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में बहत्तर चन्द्र प्रभासित हुए थे, प्रभासित होते हैं, प्रभासित होंगे । आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में बहत्तर सूर्य तपे थे, तपते हैं, तपेंगे। ६. प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार उत्तम पुर / नगर प्रज्ञप्त हैं । ७. कलाएँ बहत्तर प्रज्ञप्त हैं, जैसे कि--- १. लेख, २. गणित, ३. रूप, ४. नाट्य, ५. गीत, ६. वाद्य, ७. स्वरगत / स्वर, ८. पुष्करगत / वाद्य समत्राय - ७२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सरगयं, ८. पुक्खरगयं, . समतालं, १०. जूयं, ११. जणघायं, १२. पोरेकग्वं, १३. अट्टावयं, १४. दगमट्टियं, १५. अण्ण. विहि. १६. पाणविहि, १७. लेणविहि, १६. सयणविहि, १६. अज्ज, २०. पहेलियं, २१. मागहियं, २२. गाहं, २३. सिलोगं, २४. गंधत्ति, २५. मधुसित्यं, २६. पाभरणविहि, २७. तरुणोपडिकम्म, २८. इत्थीलक्खणं, २६. पुरिसलक्खणं, ३०. हयलवखरणं, ३१. गयलक्खणं, ३२. गोलक्खणं, ३३. कुक्कुडलक्खणं, ३४. मिढय. लक्खणं, ३५. चक्कलक्खणं, ३६. छत्तलक्खणं, ३७. दंडलक्खणं, ३८. असिलक्खरणं, ३६. मरिणलक्खणं, ४०. काकणिलक्खणं, ४१. चम्मलक्खणं, ४२. चंदचरियं, ४३. सूरचरियं, ४४. राहुचरियं, ४५. गहचारियं, ४६. सोभाकर, ४७. दोभाकर, ४८. विज्जागयं, ४६. मंतगयं, ५०. रहस्सगयं, ५१. सभासं, ५२. चारं, ५३. पडिचार, ५४. बूह, ५५. पडिवूह, ५६. खंधाधारमाणं, ५७. नगरमाणं, ५८. वत्थुमाणं, ५६. खंधावारनिवेसं, ६०. नगरनिवेसं, ११. वत्थुनिवेसं, ६२. ईसत्थं, ६३. छरुप्प विशेप, ६. समताल, १०. धूत, ११. जनवाद/जनश्रुति, १२. पुरःकाव्य/ प्राशु, कवित्व १३.अण्टापद/शतरंज, १४ दकमृत्तिका/संयोग, १५. अन्नविधि, १६. पानविधि, १७. लयनविधि गृह-निर्माण. १८. शयनविधि, १६. आर्या/छन्द-विशेप, २०. प्रहेलिका/पहेली-रचना, २१. मागधिका/छन्द-विशेष, २२. गाथा, २३ श्लोक, २४. गंधयुक्ति, २५. मधुसिक्थ, २६. आभरण विधि, २७. तरुणीप्रतिकर्म/सौन्दर्य प्रसाधन, २८. स्त्रीलक्षण, २६. पुरुपलक्षण, ३० हयलक्षण/अश्व-विद्या, ३१. गजलक्षण, ३२. गोलक्षण, ३३. कुक्कुटलक्षरण, ३४. मेपलक्षण, ३५. चक्रलक्षण, ३६. छत्रलक्षण, ३७. दंडलक्षण, ३८. असिलक्षण/शस्त्रकला, ३६. मरिणलक्षण, ४०. काकिणी (रत्न-विशेष) लक्षण, ४१. चर्मलक्षण, ४२. चन्द्रचर्या, ४३. सूर्यचर्या, ४४. राहुचर्या, ४५. गृहचर्या, ४६. सौभाग्यकर, ४७.दौर्भाग्यकर, ४६. विद्यागत/कला-विद्या ४६. मंत्रगत, ५०. रहस्यगत, ५१. सभास/वस्तु-वृत्त, ५२. चार/यात्राकला ५३. प्रतिचार/सेवा/ग्रहगति, ५४. व्यूह, ५५. प्रतिव्यूह, ५६. स्कन्धावामान/सैन्य प्रमाण ज्ञान, ५७. नगरमान, ५८. वस्तुमान, ५६. स्कन्धावारनिवेश / सैन्यसंस्थानरचना, ६०. नगरनिवेश, ६१. वास्तुनिवेश, ६२. इण्वस्त्र/दिव्यास्त्र, ६३. समवाय-७२ समवाय-सुत्तं १६६ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्य, ६४. अस्समिक्ख, ६५. हत्यितिक्त, ६६. बगुबे, ६७. हिरनमा सुवप्नपार्ग भगिरा बानुपाग, ६८. बाहजुई दण्डजुद्धं मुट्टिनु अहिजुद्धं बुद्धं निजुद्धं बुद्धातिवं. ६६. सुत्तखेड्डं, नालियावेड्ड वेड्ड ७०. पत्तन्छन्नं कलगन्छेलं पत्तगच्छन्नं ७१. सन्नी निजी ७२. सरगर लन्प्रगत खगनास्त्र, ६४. अश्वजिज्ञा, ३५. हन्तिगिना, ६६. बनुवद, ६७.हिरण्यपाक/रजन-सिद्धि, मृवर्णपाकवर्ग-निद्धि, गरिपाक. पानुपाक, ३. वाहयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, अस्थियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध, . युद्धानियुद्ध, ६६. ढेलोड़ा, नातिकावेल, वृत्तखेल पत्र-छेत्र, कटक-हेच, पत्रक-वेच, . सजीद, दिर्जीव,७२. मकुनन्त शकुनगास्त्र । ८. सम्नुच्छिमखयरपरिदिय निरि खतोपियानं उक्कोसेरो बावतरि वासनहत्ताई लिई पत्ता। ८. उन्नच्छिम-वेचर-पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च-योनिक जीवों की उत्कृष्टतः बहत्तर हजार वर्ष स्थिति प्राप्त Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवत्तरिमो समवायो १. हरिवासरम्मययासियानो णं जीवानो तेवतरि-तेवतरि जोयणसहस्साई नव य एक्कुत्तरे जोयरएसए सत्तरस य एगणवीसदमागे जोयणस्स प्रद्धभाग च। पायामेणं पण्णतायो। तिहत्तरवां समवाय १. हरिवर्प और रम्यक वर्ष की जीवा/ परिधि तेहत्तर-तेहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सतरह भाग प्रमाण (७३९०११४३ योजन) आयाम की लम्बी प्रज्ञप्त है। २. विजए गं बलदेवे तेवतरि वास सयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध युद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिध्वुडे सध्यदुरुषप्पहीणे । २. बलदेव विजय तिहत्तर शत-सहस्र | लाख वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत तथा सर्व दुःख-रहित हुए। समवाय-७३ १७१ समवाय-सुत्तं Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवत्तरिमो समवायो १. थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोव तरि वासाई सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिरिण व्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे । २. निसहाओ णं पासहरपत्वयानो तिगिछिदहापो सीतोतामहानदी चोवतरि जोयणसयाइं साहियाई उत्तराहुत्ति पवहिता वतिरामतियोए जिभियाए चउजोयणायामाए पण्णासजोयणविक्खमाए वइरतले कुंडे मया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहार संठाणसंठिएण पवाएणं महया सद्देणं पवडइ। ३. एवं सीतावि दक्खिणहुत्ति भणि- चौहत्तरवां समवाय १. स्थविर गणधर अग्निभूति चौहत्तर वर्प की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत तथा सर्व दुःखरहित हुए। २. निषध वर्षघर पर्वत के तिगिछिद्रह से शीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन उत्तरमुखी वह कर चार योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी वज्रमय जिह्वा से महान् घटमुख से प्रवर्तित,मुक्तावलिहार के संस्थान से संस्थित प्रपात से महान् शब्द करती हुई वञतल कुण्ड में गिरती है। ३. इसी प्रकार शीता भी दक्षिणमुखी कथित है। यस्वा । । ४. चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोव तरि निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ४.चाथी पृथिवी को छोड़कर शेष छह पृथिवियों में चौहत्तर शत-सहस्र लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। ___ समवाय-नुत्तं समवाय-सुत्तं १७२ ' समंवाय-७४. . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णतरिमो समवाओ पचहत्तरवां समवाय १. सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स परहो पण्णरि जिणसया होत्या। १. अर्हत सुविधि पुष्पदन्त के पचहत्तर सौ केवली थे। २. सोतले णं अरहा पण्णरि पुव सहस्साई प्रगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता रणं अगाराम्रो अरणगारिनं पन्वइए। २. अर्हत् शीतल ने पचहत्तर हजार पूर्वो तक अगार-मध्य रहकर, मुड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। ३. संती वं परहा पण्णतरि वाससहस्साई अगारवासमझावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अरणगारियं पच्वइए। ३. अर्हत् शान्ति ने पचहत्तर हजार वर्षों तक अगार-मध्य रह कर, मुड हो कर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। समवाय-सुत्तं १७३ समवाय ७५ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छावत्तरिमो समवाओ छिहत्तरवां समवाय १. छावरि विज्जुकुमारावाससय. सहस्सा पण्णत्ता। १. विद्यतकुमार देवों के छिहत्तर शत सहस्र/लाख आवास प्रज्ञप्त हैं। २ एवं दीवदिसाउदहीणं, विज्जुकुमारिदणियमग्गीणं । छण्हपि जुगलयारणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ २. इसी प्रकार द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार-इन छह देव-युगल के छिहत्तर-छिहत्तर शत-सहस्र । लाख आवास प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्तं १७४ समवाय-७६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तत्तरिमो समवानो सतहत्तरवां समवाय १. भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तरि पुवसयसहस्साई कुमारवासमझावसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते। १. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत सतहत्तर शत-सहस्र/लाख पूर्वो तक कुमार-वाम में रहने के बाद महाराजाभिषेक को सम्प्राप्त किया। २. अंगवंसानो णं सत्तरि रायाणो मुंडे भवित्ता णं अगारामो अण. गारिनं पव्वइया। २. अंग वंश के सतहत्तर राजानों ने मुड होकर अगार से अनगार प्रवज्या ली। ३. गद्दतोयतुसियाणं देवारणं सत्तत्तरि देवसहस्सा परिवारा पण्णत्ता।। ३. गर्दतोय और तुपित दो देवों का परिवार सतहत्तर हजार देवों का प्रज्ञप्त है। ४. एगमेगे णं मुहत्ते सत्तर लवे लवग्गेणं पण्णत्ते। ४. प्रत्येक मुहर्त लव की दृष्टि से सतहत्तर लव का प्रजप्त है। समवाय-मुत्त समवाय-सुत्त १७५ समवाय-७७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठसत्तरिमो समवायो १. सक्कस्त गं देविदास देवरप्पो वेतमणे महाराया अळसत्तरीए सुवागकुमारदीवकुमारावाससयसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्वं भट्टितं तापित्तं महारायत्तं प्रापा-ईसर-सेणावच्चं कारेवाणे पालेनाणे विहर। अठत्तरवां समवाय १. देवेन्द्र देवराज शक्र के महाराज वैश्मण सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार के अउत्तर जत-सहनलान आवासों का प्राषिपत्य, पौरपत्य, भर्तृत्व, स्वामित्व, महाराजत्व तथा आना, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए विचरण करता है। २.स्थविर अपित अठत्तर वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखरहित हुए। २. धेरे में अकंपिए अतत्तरि वाताई सघाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्डे सबदुत्तप्पहीणे । ३. उत्तरायणनिय? णं सूरिए पढमानो मंडलानो एगणचत्तालोसइने मंडले अहत्तरि एगसदिभाए दिवसखेत्तस्स निवड्वेत्ता रचरिणतेत्तस अभिनियुत्ता णं चारं चरइ । ३. उत्तरायण से निवृत सूर्य प्रथम मंडल से उनतालीसवें मंडल में दिवस-क्षेत्र को एक मुहुर्त के इकलठवें अत्तर भाग (६ मुहत) प्रमाण न्यून और रजनी-क्षेत्र को इसी प्रमाण में अविक करता हुया संचरण करता ४. एवं दक्षिणायणनियटटेदि। ४. इसी प्रकार दक्षिणायन से निवृत सूर्य भी। समवाय-फुत्त समवाय-सुत्त १७६ समवाय-७८ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्यासिवां समवाय एगरणासीइमो समवायो १. वलयामुहस्स णं पायालस्स हेछिल्लानो चरिमंतानो इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए हेठिल्ले चरिमंते, एस णं गगूणासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। १. वडवामुख पाताल के अधस्तन चर मान्त से इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अधस्तन चरमान्त का अवाघत: अन्तर उन्यासी हजार योजन प्रज्ञप्त है। २. एवं केउस्सवि जूयस्सवि ईसर- स्सवि। २. इसी प्रकार केतु, यूप और ईश्वर का भी। ३. छठ्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाो छठ्ठस्स घणोदहिस्स हेठिल्ले चरिमंते, एस णं एगणासीति जोयणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णते। ३. छठी पृथ्वी के बहुमध्यदेशभाग से छठे घनोदधि के अधस्तन चरमान्त का अवाधतः अन्तर उन्यासी हजार योजन प्रज्ञप्त हैं। ४. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स य एस गं एगणासीई जोयणसहस्साई साइरेगाई अबाहाए अंतरे पण्णते। ४. जम्बूद्वीप-द्वीप के प्रत्येक द्वार का अवाधतः अन्तर उन्यासी हजार योजन से कुछ अधिक प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुसं. समवाय-७४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीइइमो समवाश्रो १. सेज्जंसे णं अरहा श्रसीइं घणूई उड़ढं उच्चत्तेणं होत्या । २. तिविट्ठू णं वासुदेवे असीइं घणूई उड़ढं उच्चत्तेणं होत्या । ३. अयले णं बलदेवे असीई धणूई उड्ढं उच्चत्तेगं होत्या । ४. तिविट्टू गं वासुदेवे असोई वासस सहसाई महाराया होत्या । ५. श्राउबहुले गं कंडे प्रसीदं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । ६. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरणी सीई सामाणि साहसी पण्णत्ताश्री | ७. जंबुद्दीवे नंदीवे सोउत्तरं जोयणसयं श्रोगाहेता सूरिए उत्तरकट्ठीवगए पढमं उदयं करेई । अस्सिवां समवाय १. अर्हत् श्रेयांस ऊंचाई की दृष्टि अस्सी धनुष ऊँचे थे। २. वासुदेव त्रिपृष्ठ ऊंचाई की दृष्टि से अस्सी धनुष ऊँचे थे । ३. बलदेव अचल ऊँचाई की दृष्टि असी धनुष ऊँचे थे । ४. वासुदेव त्रिपृष्ठ ऊँचाई की दृष्टि से अस्सी शत-सहस्र/लाख वर्ष तक महा• राज रहे थे । ५. [ रत्नप्रभा का ] अप्कायवहुल-काण्ड' अस्सी हजार योजन बाहल्य / मोटा प्रज्ञप्त है । ६. देवेन्द्र देवराज ईशान के अस्सी हजार सामानिक प्रज्ञप्त हैं । ७. जम्बूद्वीप- द्वीप में एक सौ अस्सी: हजार योजन का अवगाहन कर सूर्य उत्तर दिशा को प्राप्त हो, प्रथम मण्डल में उदय करता है Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कासीइइमो समवाश्रो १. नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासी राइदिएहि चहि य पंचत्तह भिक्लास एहि श्रहासुतं महाकप्पं अहामग्गं ग्रहातच सम्मं कारण फालिया पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया प्राणा राहिया यावि भवइ । २. कुस्तणं अहो एक्कासीति मणपज्जवनाणिसया होत्या । ३. विमाहपण्णत्तीए एक्कासीति महाजुम्मसया पण्णत्ता | समवाय-सुतं १७६ इक्यासिवां समवाय १. नव नवमिका भिक्षु प्रतिमा इक्यासी रात-दिन में चार सौ पांच भिक्षा [ - दत्तियों ] से सूत्र के अनुरूप, कल्प के अनुरूप, मार्ग के अनुरूप और तथ्य के अनुरूप, काया से सम्यक् स्पृप्ट पालित, शोषित, पारित, कीर्तित और आज्ञा से प्रारावित होती है । २. अर्हतु कुन्यु के इक्यासी सो मनःपर्यवज्ञानी थे । ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति में इक्यासी महायुग्मशत प्रज्ञप्त हैं । समदाय - =१ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... बासीतिइमो समवाश्रो १. जंबुद्दीवे दोवे बासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरइ, तं जहा - निक्खममाणे य पविसमाणे य । २. समणे भगवं महावीरे बासीए राइदिएहि वोक्कतेहि गन्भाओ. गमं साहरिए । ३. महाहिमवंतस्सं णं वासहरपन्च - यस्स उवरिल्ला चरिताश्रो सोगंधियस्त कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं बासीइं जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ४. एवं रुप्पिस्सव | बयासिवां समवाय १. जंम्बूद्वीप-द्वीप में मण्डल हैं । सूर्य : उनमें संक्रमण कर संचार जैसे कि निष्क्रमरण करता हुआ' और प्रवेश करता हुआ ! यासी २. श्रमण भगवान् महावीर बयासी रात-दिन व्यतीत हो जाने पर [ एक ] गर्म से [दूसरे] गर्भ में संहृत हुए, ३: महाहिमवान् वर्षघर पर्वत के ऊपरी चरमान्त से सौगन्धिक काण्ड ...अधस्तन चरमान्त का अवाघतः अन्तर- बयासी सौ योजन प्रज्ञप्त है । • ४. इसी प्रकार रुक्मी का भी । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेयासिइइमो समवायो तिरासिवां समवाय १. समणे भगवं महावीरे बासीइ राइदिएहिं वीइक्कतेहिं तेयासीइमे राइदिए वट्टमाणे गम्भानो गन्मं साहरिए। २. सीयलस्स गं अरहो तेसीति गणा तेसीति गरगहरा होत्था। ३. थेरे गं मंडियपुत्ते तेसोई वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुड़े सव्व दुपखप्पहीणे। ४. उसमे एं अरहा कोसलिए तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारामो अणगारिनं पन्वइए। ५. भरहे रणं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीइं पुन्वसयसहस्साई प्रगारमझावसित्ता जिणे जाए केवली सवण्णू सव्वभावदरिसी। १ श्रमण भगवान् महावीर बयामी रात-दिन व्यतीत होने पर तिरासिवें रात-दिन के वर्तने पर [एक] गर्भ से [दूसरे] गर्भ में संहृत हुए। २. अहव शीतल के तिरासी गण और तिराणी गणधर थे। ३. स्थविर मंडितपुत्र तिरासी वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दु:खरहित हुए। ४. कौशालिक अर्हत ऋषभ ने तिरासी शत-सहस्र/लाख पूर्वो तक अगारवास मध्य रहकर, मुड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। ५. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत तिरासी शत-सहस्र/लाख पूर्वो तक अगार-मध्य रहकर जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी हुए। समवाय-सुत्तं १८१ समवाय-८. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउरासिइइमोसमवानो चौरासिवां समवाय १. चउरासीई निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। १. नरकावास चौरासी शत-सहस्र/ लाख प्रज्ञप्त हैं । २. उसमे णं अरहा कोसलिए चउ रासीइं पुष्वसयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते प्रतगडे परिणिन्वुड़े सव्वदुक्खपहोणे। २. कौशलिक अर्हत् ऋपभ चौरासी शत-सहस्र/लाख पूर्वो की पूर्ण आयु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत तथा सर्व दुःख-रहित हुए। ३. एवं भरहो बाहुबली बंभी सुन्दरी । ४. सेज्जसे गं अरहा चउरासीई वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे । ३. इसी प्रकार भरत, वाहुवली, ब्राह्मी और सुन्दरी [हुए] । ४. अर्हत् श्रेयांस चौरासी शत-सहस्र/ लाख वर्षों की पूर्ण आयुपालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनित और सर्व दुःख-रहित हुए। ५. तिविदिळू णं वासुदेवे चउरासीई वाससयसहस्साइं सवाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरए नेरइयताए उववण्णे। ५. वासुदेव त्रिपृष्ठ चौरासी शत-सहस्र/ लाख वर्षों की पूर्ण आयु पालकर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिकत्व से उपपन्न हुए। ६. सक्कस्स णं देविवस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणियसाहस्सीमो पण्णत्तानो। ६. देवेन्द्र देवराज शक्र के चौरासी हजार सामानिक प्रज्ञप्त हैं। ७. सम्वेवि गं बाहिरया मंदरा चउ- . रासोई-चउरासीइं जोयणसहसाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ७. सभी बाह्य मन्दरपर्वत ऊंचाई की दृष्टि से चौरासी हजार योजन ऊँचे प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्तं १८२ समवाय-८४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सब्वेवि णं अंजणगपव्वया चउ रासीइं-चउरासीइं जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तणं पण्णत्ता । ८. समस्त अजनक पर्वत ऊँचाई को दृष्टि से चौरासी-चौरासी हजार योजन ऊँचे प्रज्ञप्त हैं। ६. हरिवासरम्मयवासियाणं जीवाणं घणुपट्टा चउरासीई-चउरासीई जोयणसहस्साइं सोलस जोयपाई चत्तारि य भागा जोयरपस्स परिक्खेवेणं पण्णता। ६. हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवा के धनुःपृष्ठ का परिक्षेप (परिधि) चौरासी हजार सोलह योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से चार भाग प्रमाण ८४०१६ योजन प्रज्ञप्त हैं। १०. पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरि- ल्लामो चरिमंतानो हेदिल्ले चरिमंते, एस जं चोरासीई जोवणसयसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। १०. पंचबहुलकांड के उपरितन चरमान्त मे अधस्तन चरमान्त का अवाधतः अन्तर चौरासी शत-सहस्र लाख योजन प्राप्त है। ११. वियाहपण्णतीए णं भगवतीए चउरासीई पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। ११. भगवती . व्याख्याप्रज्ञप्ति के पद परिमाण की दृष्टि से चौरासी हजार पद प्रज्ञप्त हैं। १२. चोरासीइं नागकुमारवाससय- सहस्सा पण्णत्ता। १२. नागकुमार के आवास चौरासी शत सहस्र /लाख प्रज्ञप्त हैं। पइण्णगसहस्सा १३. प्रकीर्णक चौरासी हजार प्रज्ञप्त हैं। १३. चोरासीइं पण्णत्ता। १४. चोरासीइं जोणिप्पमुहसय- सहस्सा पण्णता। १४. योनि-प्रमुख/योनि-द्वार चौरासी शत-सहस्र/लाख प्राप्त हैं। १५. पुटवाइयाणं सीसपहेलियापज्जव- साणाणं सडाणट्ठाणंतराणं चोरासीए गुणकारे पण्णता। १५. पूर्व (संख्यावाची) से लेकर शीर्प प्रहेलिका-अन्तिम महासंख्या पर्यन्त स्वस्थान और स्थानान्तर चौरासी लाख गुणाकार वाले प्रज्ञप्त हैं। समवाय-८४ समवाय-सुतं Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. उसमस्स णं अरहो कोसलि- यस्स चउरासीइं गरण चउरासीई गरगहरा होत्या। १६. कौशालिक अर्हत ऋषभ के चौरासी गण और चौरासी गणधर थे। १७. उसमस्स णं कोसलियस्स उसभ- सेणपामोक्खायो चउरासीई समणसाहस्सीनो होत्था। १७. कोशलिक अहंत ऋषभ के ऋषभ सेन प्रमुख चौरासी हजार श्रमण थे। १५. सम्वेवि चउरासीइं विमाणा- वाससयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खायं । १५. सभी विमानवासी/वैमानिक देवों के चौरासी लाख सतानवे हजार, तेईस विमान है, ऐसा आख्यात है। समवाय-सुत्तं १८४ समवाय-८४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचासीइइमो समवानो पचासिवां समवाय १.पायारस्स णं भगवश्नो सचूलिया- गस्स पंचासीइं उद्देसरणकाला पण्णत्ता। २. धायइसंडस्स णं मंदरा पंचासीई जोयणसहस्साई सवग्गेण पण्णत्ता। १. चूलिका सहित भगवद् आचार/ आचारांग-सूत्र के पचासी उद्देशनकाल प्रज्ञप्त हैं। २. धातकीखंड के [दोनों] मेरु पर्वतों का सर्व परिमाण पचासी हजार योजन प्रज्ञप्त है। ३. रुचक मांडलिक पर्वत का सर्व परिमाण पचासी हजार योजन प्रज्ञप्त ३. रुयए णं मंडलियपवए पंचासीई जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। ४. नंदणवणस्स णं हेडिल्लानो चरिमंतानो सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते, एस णं पंचासीई जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ४. नन्दनवन के अधस्तन चरमान्त से सौगन्धिक काण्ड के अधस्तन चरमान्त का प्रवाधतः अन्तर पचासी सौ योजन का प्रज्ञप्त है। सेमवाय-सुत्त समवाय-५ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छलसीइइमो समवाओ छियासिवां समवाय १. अर्हत् सुविधि पुष्पदन्त के छियासी ___ गण और छियासी गणघर थे। २. अर्हत सुपार्श्व के छियासी सौ वादी थे। १. सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स पर हो छलसोई गणा छलसोई गणहरा होत्था। २. सुपासस्स णं अरहमो छलतीई वाइसया होत्या । ३. दोच्चाए णं पुढवीए बहुमझ देसभागानो दोच्चस्स घणोदहिस्स हेडिल्ले चरिमंते, एस णं छलतीइं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णते। ३. दूसरी पृथ्वी के बहुमध्यदेशभाग से दूसरे घनोदधि के अघस्तन चरमान्त का अवाघतः अन्तर छियासी हजार योजन का प्रजप्त है। समवाय-सुत्तं १८६ समवाय-५६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तासीइइमो समवायो सत्तासिवां समवाय १. मदरस्स णं पव्वयस्स पुरस्थिमिल्लामो चरिमंतानो गोथुभस्स पावासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अतरे पण्णते। १. मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त ने गोस्तूप आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमा त का अबाधतः अन्तर सत्तासी हजार योजन का प्रज्ञप्त है। २. मंदरस्स णं पन्वयस्स दविखणिल्लानो चरिमंतानो दोभासस्स प्रावासपव्वयस्स उत्तरिल्ले चरिमंते, एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। २. मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त में दकावभास आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का प्रवाधत: अन्तर सत्तामी हजार योजन का प्राप्त है। ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लानो चरिमंतानो संखस्स प्रावासपवयस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते, एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते । ३. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त मे शंख आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त का अवाघतः अन्तर सत्तामी हजार योजन का प्रनप्त है। ४. मंदरस्स गं पव्ययस्स उत्तरिल्लानो चरिमंतानो दगसीमस्स प्रावासपस्वयस्स दाहिणिल्ले चरिमते एस णं, सत्तासीई जोयरणसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णते। ४. मन्दर पर्वत के उत्तरी घरमान्त मे दकसीम प्रायास-पवंत के दक्षिणी रमान्त का प्रवायत: अन्तर मत्तानी हजार योजना प्रमप्त है। समवाय-सुत्त १८० समवाय-८० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. छण्हं कम्मपगडीणं प्राइमउवरिल्लवज्जाणं सत्तासीइं उत्तरपगडीओ पण्णत्तानो। ५. प्रादि [जानावरण] और अन्तिम [अन्तराय] की कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष छह कर्म-प्रकृतियों की सत्तासी उत्तर-प्रकृतियां प्रजप्त हैं। ६. महाहिमवंतकूडस्स णं उवरि लामो चरिमंतानो सोगधियस्स कंडस्स हेदिल्ले चरिमंते, एस णं सत्तासीइं जोयरणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ६. महाहिमवंत कूट के उपरितन चर मान्त से सौगंधिक काण्ड के अधस्तन चरमान्त का अवाधतः अन्तर सत्तासी मौ योजन का प्रज्ञप्त है। ७. एवं रुप्पिकूडस्सवि। ७. इसी प्रकार रुक्मीकूट का भी। समवाय-सुत्तं समवाय-८७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठासिवां समवाय १. प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के अठामीअठासी महाग्रहों का परिवार प्रज्ञप्त अट्ठासीइइमो समवाओ १. एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीई-अट्ठासोई महागहा परिवारो पण्णत्तो। २. दिट्टिवायस्स णं अट्ठासीई सुत्ताई पण्णत्ताई, तं जहाउज्जुसुयं परिणयापरिणयं बहभंगियं विजयचरियं अणंतरं परंपरं सामाणं संजहं संभिण्णं पाहच्चायं सोवत्थियं घंटे नंदावत्तं बहुलं पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूयं दुयावत्तं वत्तमाणुपयं समभिरुढं सध्वनोभई पण्णासं दुप्पडिग्गह। इच्चेइयाई वावीसं सुत्ताई छिण्णच्छेयनइयाणि ससमयसुत्त परिवाडीए । २. दृष्टिवाद के सूत्र अठासी प्रज्ञप्त है । जैसे किऋजुसूत्र, परिणतापरिणत, बहुभंगिक, विजयचरित, अनन्तर, परापर, सामान, संयूथ, संभिन्न, यथात्याग, सौवस्तिकघंट, नन्दावत, बहुल, पृष्टापृष्ट, व्यावत, एवंभूत, द्वयावर्त्त, वर्तमानपद, समभिरूढ, सर्वतोभद्र, पन्यास, दुष्प्रतिग्रह । ये बाईस सूत्र स्व-समय-परिपाटी के अनुसार छिन्नछेद-नयिक होते हैं । ये बाईस सूत्र आजीवक-परिपाटी के अनुसार अछिन्नछेद-नयिक होते है। इच्चेइयाइं बावीसं सुत्ताई अच्छिपणच्छेयनइयारिण आजीवियसुत्तपरिवाडीए। इच्चेइयाई वावीसं सुताई तिगनइयाणि तेरासियसुत्त परिवाडीए। ये वाईस सूत्र त्रैराशिक-परिपाटी के अनुसार त्रिक-नयिक होते हैं । इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताई चउक्कनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए। ये वाईस सूत्र स्व-समय-परिपाटी के अनुसार चतुष्क-नयिक होते हैं । समवाय-सुत्तं १८६ समवाय-८८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठासीइ सुत्ताई भवंति त्ति मक्खायं । इस प्रकार इन सवका योग करने पर अठासी सूत्र होते हैं । ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरस्थिमिल्लापो चरिमंतानो गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरत्यिमिल्ले चरिमंते, एस णं अठासीइं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते। ३. मन्दर पर्वत के पूर्वीय चरमान्त से गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वीय चरमान्त का अवाधतः अन्तर अठासी हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ४. मदरस्स णं पव्वयस्स दक्खिणिल्लामो चरिमंतायो दोभासस्स आवासपवयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते, एस रणं अट्ठासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। ४. मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का अवाघतः अन्तर अठासी हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ५. मंदरस्सरणं पन्वयस्स पच्चस्थिमिल्लायो चरिमंतानो संखस्स आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं अवासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ५. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का अवाधतः अन्तर अठासी हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ६. मंदरस्स णं पन्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंतानो दगसोमस्स आवासपब्वयस्स उत्तरिल्ले चरिमंते, एस णं अट्ठासीई जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णते। ६. मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का अवाधतः अन्तर __ अठासी हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ७. वाहिरानो एं उत्तराप्रो कट्ठामो सूरिए पढमं छग्मासं अयमीणे चोयालीसइममंडलगते अट्ठासीइ ७. वाह्य उत्तर से दक्षिण की ओर गति करते हुए प्रथम छह माह में सूर्य चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर समवाय-सुत्त समवाय-८८ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इगसहिमागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता सूरिए चार चरई। मुहुर्त के इकसठ्ठवें अठासी भाग ( मुहूर्त) प्रमाण दिवस-क्षेत्र का परिह्रास कर एवं रजनी-क्षेत्र को अभिवधित कर संचरण करता है । ८. दक्खिरणकट्ठामो णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमीरणे चोयालीसतिममंडलगते अट्ठासीई इगसद्धिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेतस्स निवइढेता दिवसखेतस्स अभिनिवड्ढेत्ता णं मूरिए चार चरइ। ८. दक्षिण से उत्तर की ओर गति करते हुए दूसरे छह माह में सूर्य चवालीसवें मण्डल मे पहुंचने पर मुहुर्त के इकसठ्ठवें अठासी भाग (55 मुहूर्त) प्रमाण रजनी-क्षेत्र का परिह्रास कर एवं दिवस-क्षेत्र को अभिवधित कर संचरण करता है । समावय-सुत्तं १६१ समवाय-८८ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणरण उइइमो समवाश्रो १. उसमे णं अरहा कोसलिए इमीसे श्रसप्पिणीए ततियाए सुसम - दुसमाए पच्छिमे भागे एगूणउइए श्रद्धमासेहि सेसेहि कालगए जाव सव्वदुक्ख पहीणे । २. समर भगवं महावीरे इमीसे श्रसपिणीए चउत्थीए सुसम - दुसमाए पच्छिमे भागे एगूणण उइए श्रद्धमासहि सेसह कालगए जाव सव्वखपहीणे । ३. हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कचट्टी एगुणणउई वाससयाई महाराया होत्या । ४. संतिस्स णं अरहो एगूणणउई अज्जासाहसी उक्कोसिया प्रजासंपया होत्या । 'समवाय- सुत्तं नवासिवां समवाय १. कोशलिक श्रर्हत् ऋषभ इस अव सर्पिणी के तीसरे सुषम-दुषमा आरे के पश्चिम भाग में, नवासी अर्द्धमास शेष रहने पर कालगत होकर मुक्त हुए । २. श्रमण भगवान् महावीर इस अव सर्पिणी के चौथे - सुषमा - दुपमा आरे के पश्चिम भाग में, नवासी श्रर्द्धमास शेष रहने पर कालगत होकर सर्व दुःख-मुक्त हुए । ३. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा हरिषेण नवासी सौ वर्षो तक महाराज रहे थे । ४. अर्हत् शान्ति की नवासी हजार आर्या की उत्कृष्ट प्रर्या सम्पदा थी । १६२ समवाय-८१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नब्बेवां समवाय गउइइमो समवाओ १. सीयले गं अरहा नउई धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। २. अजियस्स णं अरहो नउई घणूई गणा नउइं गरगहरा होत्था। ३. सतिस्स गं अरहो नउई गणा नउई गणहरा होत्या। ४. सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउइवासाई विजए होत्या। ५. सव्येसि णं वट्टवेयड्ढपन्वयाणं उवरिल्लामो सिहरतलानो सोगंधियकंडस्स हेद्विल्ले चरिमंते, एस णं नउई जोयणसयाई प्रबाहाए अंतरे पण्णते। १. अर्हत शीतल ऊंचाई की दृष्टि से __नब्बे धनुष ऊंचे थे। २. अहंत अजित के नब्बे गण और नब्बे गणधर थे। ३. अर्हत् शान्ति के नब्वे गण और नब्बे ___ गणधर थे । ४. वासुदेव स्वयम्भू नब्बे वर्षों तक विजयशील रहे । ५. समस्त वृत्तवताढ्य पर्वतों के उपरितन शिखरतल से सौगंधिक काण्ड के अधस्तन चरमान्त का प्रवाधत: अन्तर नौ हजार योजन का प्रज्ञप्त समवाय-सुतं समवाय सुत्तं १६३ १६३ समवाय-१० समवाय-६० Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्काणउइइमोसमवायो इक्यानबेवां समवाय १. पर-वैयावृत्यकर्म की प्रतिमाएँ इक्यानवे प्रज्ञप्त हैं। २. कालोद समुद्र का परिक्षेप इक्यानवे शत-सहत्र/लाख योजन से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। १. एक्काणउई परवेयावच्चकम्म पडिमानो पण्णत्तानो। २. कालीए णं समुद्दे एक्काणउई जोयणसयसहस्साइं साहियाई परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ३. कुंथुस्स णं अरहो एक्काणउई अहोयिसया होत्था। ५. पाउय-गोय-वज्जाणं छण्हं कम्म. पगडोणं एक्काणउई उत्तरपगडीओ पण्णताओ। ३. अहंद कुन्थु के इक्यानवे सौ प्राधो वधिक ज्ञानी थे। ४.आयुप्य और गोत्रकर्म को छोड़कर शेप छह कर्म-प्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियां इक्यानबे प्रज्ञप्त हैं । म सुतं भव सुतं १४ १६४ समवाय-९१ समवाय-११ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाणउइइमो समवाश्रो १. बाणउई पडिमा पण्णत्ताओ । २. थेरे णं इंदभूई बाणउई वासाई सव्वाउय पालइत्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणित्वडे सवदुक्खप्प होणे । ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेस भागाश्री गोयुभस्स प्रावासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते, एस णं वारणउई जोयरणसहस्साई अवाहाए पते । अंतरे ४. एवं चण्उर्हपि श्रावासपव्वयाणं । समवाय- सुतं बानवेवां समवाय १. प्रतिमाएँ वानवें प्रज्ञप्त हैं । २. स्थविर इन्द्रभूति वानवें वर्ष की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखमुक्त हुए । ३. मन्दर पर्वत के बहुमध्यदेशभाग से गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का प्रवाद्यतः अन्तर बानवें हजार योजन का प्रज्ञप्त है । ४. इसी प्रकार चार श्रावास पर्वतों का भी [ प्रज्ञप्त है । ] समवाय - ६२ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरानवेवां समवाय तेरणउइइमो समवाय १. चंदप्पहस्स णं अरहो तेणउइं गणा तेरणउई गणहरा होत्या। २. संतिस्स णं अरहो तेणउइं चउद्दसपुत्विसया होत्था। १. अर्हत् चन्द्रप्रभ के तिरानवे गण और तिरानवे गणधर थे। २. अर्हत शांति के तिरानवे सौ चौदह पूर्वी थे। ३. तेणउइमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमारणे वा समं अहोरत्तं विसमं करे। ३.तिरानवे मण्डलगत सूर्य प्रतिवर्तन एवं निवर्तन करते हुए सम अहोरात्र को विषम कर देता है। समवाय-सुत्तं समवाय-१३ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउर उइइमो समवाश्रो १. निसहनीलवंतिया णं जीवाम्रो चरणउई चरणउई जोयणसहस्साई एक्कं छपण्णं जोयणसयं दोण्णि य एगूरणवी सइभागे जोयणस्स श्रायामेणं पण्णत्ताओ । २. श्रजियस्स णं प्ररहस्रो चरणउई श्रीहिनाणिसया होत्या । समवाय-सुतं १६७ चौरानवेवां समवाय निषेध और नीलवान् पर्वत की प्रत्येक जीवा का आयाम चौरानवें हजार एक सौ छप्पन योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण (६४१५६१ योजन) प्रज्ञप्त है । २. अर्हत् अजित के चौरानवे सौ अवधिज्ञानी थे । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचाणउइइमो समवायो पंचानवेवां समवाय १. सुपासस्स णं अरहो पंचाणउई गणा पंचाणउइं गणहरा होत्या । २. जंबुद्दीवस्स गंदीवस्स चरिमंतानो चउद्दिसि लवगसमुई पंचाणउई पंचाणउई जोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता चत्तारि महापायाला पण्णत्ता, तं जहावलयामुहे केउए जूवते ईसरे। १. अर्हत् सुपार्श्व के पंचानवे गण और पंचानवे गणधर थे। २. जम्बूद्वीप-द्वीप के चरमान्त से चारों दिशाओं में लवण-समुद्र में पंचानवेपंचानवे हजार योजन अवगाहन करने पर चार महापाताल प्रजप्त हैं। जैसे किवडवामुख, केतुक, यूपक और ईश्वर । ३. लवण-समुद्र के उभय पार्श्व पंचानवेपंचानवे प्रदेशों पर उद्वेध /गहराई व उत्सेध/ऊंचाई की परिहानि प्राप्त ३. लवणसमुदस्स उभो पासंपि पंचाणउई-पंचाणउइं पदेसानो उव्वेहुस्सेहपरिहारणीएपण्णताओ। । ४.कुंथू णं अरहा पंचाणउई वास- सहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगड़े परिणिबुडे सन्वदुक्खप्पहीणे। ५. थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइ वासाइं सव्वाउयं पासइत्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिध्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे। ४. अर्हत् कुन्थु पंचानवे हजार वर्षों की पूर्ण आयु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिवृत तथा सर्व दुःखमुक्त हुए। ५. स्थविर मौर्यपुत्र पंचानवे हजार वर्षों की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुःखमुक्त हुए। '१ . सुत्तं १८ १९८ समवाय-६५ समवाय-६५ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छण्णउइइमो समवानो छियानवेवां समवाय १. एगमेगस्स गं रणो चाउरत चक्कवट्टिस्स छण्णउइं-छण्णउई गामकोडीयो होत्था। १. प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती राजा के ___ छियानवे-छियानवे करोड़ ग्राम थे। २. वाउकुमाराणं छण्णउई भवणा वाससयसहस्सा पण्णत्ता। ३. ववहारिए रणं दंडे छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। ४. ववहारिए गं धणू छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। ५. ववहारिया णं नालिया छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमारणेणं । ६. ववहारिए पं जुगे छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। २. वायुकुमारों के छियानवे शत-सहस्र/ लाख भवनावास प्रज्ञप्त हैं। ३. व्यावहारिक दण्ड, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है। ४. व्यावहारिक धनुष, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है । ५. व्यावहारिक नालिका, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है। ६. व्यावहारिक युग, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है। ७. व्यावहारिक अक्ष, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है। ८. व्यावहारिक मुशल, अंगुल-प्रमाण से छियानवे अंगुल प्रज्ञप्त है। ६. पाभ्यन्तर मण्डल में प्रथम मुहूर्त छियानवे अंगुल की छाया वाला प्रज्ञप्त है। ७. ववहारिए णं अक्खे छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। ८. ववहारिए णं मुसले छण्णउई अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। ६. अनंतरानो आइमुहुत्ते छण्ण उई अंगुलछाए पण्णते। समवाय-सुत्तं १६६ समवाय-६६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता उइइमो समवाओ १. मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ गोथुमस्स णं आवासपव्वयस्त पच्चत्थि - मिल्ले चरिमंते, एस णं सत्ताणउई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । २. एवं चसिपि । ३. अहं कम्मपगडीणं सत्ताणउई उत्तरपगडीओ पण्णत्ताश्रो । ४. हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कट्टी देणाई सत्ताणउई वाससयाई अगारमभावसित्ता मुंडे भविता णं श्रगारानी अणगारिनं पव्वइए । समवाय-सुतं २०० सत्तानवेवां समवाय १. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का प्रवावतः ग्रन्तर सत्तानवे हजार योजन प्रज्ञप्त है । २. इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी [ ज्ञातव्य / प्रज्ञप्त है । ] ३. आठों कर्म - प्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियां सत्तानवे प्रज्ञप्त हैं । ४. चातुरन्त चक्रवर्ती ने राजा हरिपेरण कुछ कम सत्तानवे सो वर्षो तक अगार-मध्य रहकर, मुंड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली । समवाय-६७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारणउइइमो समवात्रो १. नंदणवणस्स णं उवरिल्लाश्रो चरिता पडयवणस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं श्रट्ठाणउई जोयणसहस्साइं प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते । २. मंदरस्स णं पव्वयस्त पच्चतिथमिल्ला चरितानी गोथुभस्स श्रावासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते, एस णं श्रद्वाणउई जोयणसहस्साइं श्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ३. एवं चउदिसिपि । ४. दाहिणभरहद्धस्स णं धणुपट्ठे श्रद्वाणउई जोयणसयाई किंचूणाई श्रायामेणं पण्णत्ते । ५. उत्तराम्रो गं कट्ठाश्रो सूरिए पढमं छम्मासं श्रयमीणे एगूणपंचास समडलगए अट्ठाणउइ एकसद्विभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं सूरिए चारं चरइ । समवाय-सुतं अठानवेवां समवाय १. नंदनवन के उपरितन चरमान्त से पण्डकवन के अधस्तन चरमान्त का अबाधतः अन्तर अठानवे हजार योजन का प्रज्ञप्त है । २. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त का प्रबाधतः अन्तर अठानवे हजार योजन का प्रज्ञप्त है । ३. इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी [ ज्ञातव्य / प्रज्ञप्त ] है | ४. दक्षिण भरत का धनुःपृष्ठ कुछ न्यून अठानवे सौ योजन आयाम का--- लम्वा प्रज्ञप्त है | ५. सूर्य उत्तर दिशा से प्रथम छह मास तक उनचासवें मण्डल में दिवस- क्षेत्र का मुहूर्त के इकसठवें अट्ठावनवें भाग (मुहूर्त्त ) प्रमाण हाम और रजनी क्षेत्र का इसी प्रमाण में अभिवर्धन करते हुए संचरण करता है । २०१. समवाय - ६८ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. दक्खिणानो णं कट्ठामो सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमीणे एगूणपण्णासईममंडलगए अट्ठाणउइ एकसहिमागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता गं सूरिए चारं चरइ। ७. रेवईपढमजेट्ठपज्जवसाणाणं एगणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउई तारामो तारग्गेणं पण्णतायो। ६. सूर्य दक्षिण दिशा से दूसरे छह मास तक उनचासवें मण्डल में रजनी-क्षेत्र का मुहूर्त के इकसठवें अट्ठानवें भाग ( मुहत) प्रमाण ह्रास और दिवस-क्षेत्र का इसी प्रमाण में अभिवर्धन करते हुए संचरण करता है। ७. रेवती नक्षत्र से ज्येष्ठा नक्षत्र तक के उन्नीस नक्षत्रों के, तारा-प्रमारण से, अठानवे तारे प्रज्ञप्त हैं। मनाग-नं ममवाय-१८ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्यानवेवां समवाय गवरणउइइमो समवायो १.मंदरे गं पव्वए गवणउई जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णते। १. मन्दर पर्वत ऊंचाई की दृष्टि से निन्यानवे हजार योजन ऊंचा प्रज्ञप्त २. नंदणवणस्स गं पुरथिमिल्लायो चरिमंतानो पच्चत्यिमिल्ले चरिमंते, एस णं एवरणउई जोयणसयाई प्रवाहाए अंतरे पण्णते। २. नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का अबाधतः अन्तर निन्यानवे सौ योजन प्रज्ञप्त है। ३. नंदणवणस्स गं दक्खिणिल्लाओ चरिमंतानो उत्तरिल्ले चरिमंते, एस रणं णवणउई जोयणसयाई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। ३. नन्दनवन के दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त का अवाधतः अन्तर निन्यानवे सौ योजन प्रज्ञप्त है। ४. पढमे सूरियमंडले णवणउई जोयणसहस्साइं साइरेगाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । ४. प्रथम सूर्य-मण्डल निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक मायामविष्कम्भक विस्तृत प्रज्ञप्त है । ५. दोच्चे सुरियमंडले णवणउई जोयणसहस्साइं साहियाई मायामविक्खंभेणं पण्णते। ५. दूसरा सूर्य-मण्डल निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक आयामविष्कम्भक/विस्तृत प्रज्ञप्त है । ६. तइए सूरियमंडले णवणउई जोयणसहस्साई साहियाई प्रआयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। ६. तीसरा सूर्य-मण्डल निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक आयामविष्कम्भक/विस्तृत प्रज्ञप्त है । समवाय-सुत्तं २०३ समवाय-६६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेछिल्लामो चरिमंतानो वाणमतर-मोमेज्जविहाराणं उवरिल्ले चरिमंते, एस णं णवणउइं जोयणसयाई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजन-काण्ड के अधस्तन चरमान्त से वानव्यंतरों के भौमेय विहारों के उपरितन चरमान्त का अवाधतः अन्तर निन्यानवे सौ योजन प्रज्ञप्त है। समवाय-गुन समवाय-गुन २०४ समवाय-६८ समवाय-88 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सततमो समवाश्रो १. दसदसमिया णं भिक्खुपटिमा एगेणं राईदिवसतेणं प्रह निक्मासतेहि थट्टासुतं महाकप्पं ग्रहामागं अहातच्च सम्मं कारण फातिया पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया धारणाए धाराहिया यायि भयद । २. समभिसमान एक्कसवतारे पणते । ३. सुविही पुष्कदंते णं प्ररहा एवं पण उद्धं उच्चतेणं होत्या । ४. पासे णं प्ररहा पुरिसादाणीए एकं वासयं सव्वाजयं पालइत्ता सिद्धे युद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिडे सव्यदुक्खहोणे | ५. थेरे णं धज्जसुहम्मे एकं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुपखपहीणे । ६. सम्वेवि णं दीहवेय ड्ढपव्वया एगमेगं गाउयसयं उटं उच्चतेणं पण्णत्ता । समवाय- सुत्तं २०५ सौवां समवाय १. दादशमिका भिक्षु प्रतिमा सी रातदिन पाँच सौ पचास भिक्षा [ - दत्तियों ] से मूत्र के अनुरूप, कल्प के अनुरूप, मार्ग के अनुरूप और तथ्य अनुरूप, काया से सम्यक् स्पृष्ट, पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और आज्ञा से आराधित होती है । २. शतभिषक् नक्षत्र के सौ तारे प्राप्त हैं । ३. श्रहंतु सुविधि पुष्पदन्त ऊँचाई की दृष्टि से सो धनुष ऊंचे थे । ४. पुरुपादानीय अर्हतु पार्श्व सौ वर्षों को सम्पूर्ण श्रायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दु:ख मुक्त हुए । ५. स्थविर श्रायं सुधर्मा सो वर्षो की सम्पूर्ण श्रायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दु:ख मुक्त हुए । ६. समस्त दीर्घ वैताढ्य पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से सौ-सौ गाउ ऊँचे प्रज्ञप्त हैं । समवायय- १०० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सव्वेवि रणं चुल्लहिमवंतसिहरी वासहरपब्बया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पण्णत्ता। ७. सभी क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से एक-एक सौ योजन ऊंचे और एकएक सौ गाउ उद्वेधवाले/गहरे प्रज्ञप्त ८. सवेवि रणं कंचरणगपवया एग मेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तणं, एगमेगं गायउसयं उन्हेणं एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पण्णत्ता। ८. समस्त कांचनक पर्वत सौ-सौ योजन ऊँचे, सौ-सौ गाउ उद्वेधवाले/गहरे और सौ-सौ योजन मूल में विष्कम्भक/ चौड़े प्रज्ञप्त हैं। _०समय-सुत्त - समनाय-सुत २०६ समवाण-१० समवाय-१०० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतोत्तर-समवानो शतोत्तर-समवाय १. चंदप्पभे णं अरहा दिवड्ढे घणुसयं उड्ढं उच्चत्तेणं १. अर्हद चन्द्रप्रभ ऊंचाई की दृष्टि से डेढ़ सौ धनुष ऊँचे थे। होत्था। २. पारणे कप्पे दिवड्ढे विमाणा. वाससयं पण्णते। २.पारण कल्प में डेढ़ सौ विमानावास प्रज्ञप्त हैं। ३. एवं अच्चुएवि। ३. इसी प्रकार अच्युत कल्प में भी। ४. सुपासे णं अरहा दो घणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। ५. सव्वेवि गं महाहिमवंतरुप्पीवास हरपव्वया दो दो जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं, दो दो गाउय सयाई उन्वेहेणं पण्णता। ६. जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपन्च यसया पण्णत्ता। ४. अर्हत् सुपार्श्व ऊँचाई की दृष्टि से दो सौ धनुप ऊंचे थे। ५. सर्व महाहिमवंत और रुक्मी वर्षघर पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से दोदो सौ योजन ऊंचे और दो-दो सौ गाउ उद्वेधवाले/गहरे प्रज्ञप्त हैं। ६. जम्बूद्वीप द्वीप में दो सौ कंचन पर्वत प्रज्ञप्त हैं। ७. पउमप्पमेणं अरहा अढाइज्जाई धणुसयाई उड्ढे उच्चतेणं होत्था। ७. अहंद पद्मप्रभ ऊँचाई की दृष्टि से ढाई सौ धनुष ऊंचे थे। . ८. असुरकुमाराणं देवाणं पासायवडेंसगा अड्डाइज्जाई जोयरसयाई उड्ढं उच्चत्तणं पण्णता। ८. असुरकुमार देवों के प्रासादावतंसक ऊँचाई की दृष्टि से ढाई सौ योजन ऊंचे प्रज्ञप्त हैं। ६. अर्हद सुमति ऊंचाई की दृष्टि से तीन सौ धनुष ऊंचे थे। ६. सुमई णं अरहा तिपिण घणु सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। समवाय-सुत्तं २०७ समवाय- शतोत्तर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अर्हत् अरिष्टनेमि ने तीन सौ वर्षों तक कुमारवास मध्य रहकर, मुड होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। ११. वैमानिक देवों के विमानों के प्राकार ऊँचाई की दृष्टि से तीनतीन सौ योजन ऊंचे प्रज्ञप्त हैं । १०. अरिट्ठनेमी णं अरहा तिण्णि वाससयाई कुमारवास मज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारिश्र पव्वइए। ११. वेमाणियारणं देवाणं विमाण पागारा तिष्णि तिणि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेगं पण्णत्ता। १२. समणस्स रणं भगवनो महावीर- स्स तिणि सयाणि चोदस पुवीणं होत्था। १३. पंचधणुसइयस्स णं अंतिम सारीरियस्स सिद्धिगयस्स सातिरेगाणि तिणि धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा १२. श्रमण भगवान् महावीर के तीन सौ चौदहपूर्वी थे । १३. पांच सौ धनुप के अन्तिम शरीरी, सिद्धिगत जीवों के जीवप्रदेशों की अवगाहना तीन सौ धनुप से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। पण्णत्ता। १४. पुरुपादानीय अर्हत पार्श्व के साढे तीन सौ चौदहपूर्वी साधुनों की सम्पदा थी। १५. अर्हत् अभिनन्दन ऊँचाई की दृष्टि से साढ़े तीन सौ धनुप ऊँचे थे । १४. पासस्स णं अरहो पुरिसा दाणीयस्स अट्ठसयाई चोदस पुटवीणं संपया होत्या । १५. अभिनंदणे णं अरहा अट्ठाई धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्या। १६. संभवे रणं अरहा चत्तारि धणु सयाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। १७. सव्येवि रणं णिसट-नीलवंता वासहरपव्यया चत्तारि-चत्तारि जोयणसयाई उद उच्चत्तणं, चत्तारि-चत्तारि गाउयसयाई उध्येहेणं पण्णता। १६. अहंद संभव ऊँचाई की दृष्टि से चार सौ धनुप ऊंचे थे। १७. सभी निपघ और नीलवान् वर्ष घर पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से चार मी योजन ऊंचे और चार-चार सौ गार उद्वे धवाले/ गहरे प्रजप्त हैं। . .. मनगय मुन २०८ समवाय-शनोत्तर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. सटवेवि गं यखारपव्यया णिसढनीलयंतवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि-चतारि जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तणं, चत्तारि-चतारि गाउयसयाई उध्येहेणं पण्णता । १८. समस्त वक्षस्कार पर्वत निपध और नीलवान् वर्षधर पर्वत ऊंचाई की दृष्टि से चार-चार सौ योजन ऊँचे तथा चार-चार सौ गाउ उद्वेधवाले/ गहरे प्राप्त हैं। १६. प्रारण्य-पाणएसु-दोसु फापेसु चतारि विमाणसया पण्णता। १६. मानत और प्राणत-इन दो कल्पों में चार सौ विमान प्रज्ञप्त है । २०. समणस्स गं भगवप्रो महावीर स्स चतारि सया वाईणं सदेवमणयासुरम्मि लोगम्मि याए अपराजियाणं उपक्रोमिया वाइसंपया होत्या। २०. श्रमण भगवान् महावीर के देव, मनुप्य और असरलोक में होने वाले वाद में अपराजित चार सी वादियों की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा थी। २१. अजिते गं परहा प्रवपंचमाई धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तणं होत्या। २१. महत् अजित ऊँचाई की दृष्टि से साढ़े चार सौ धनुप ऊँचे थे । २२. सगरे णं राया चाउरंतचषक घट्टी अपंचमाई घणुसयाई उड्दं उच्चत्तणं होत्या। २२. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा सगर ऊँचाई की दृष्टि से साढ़े चार सौ धनुप ऊँचे थे। २३. सव्येवि णं वखारपत्वया सोयासोतोयानो महानईओ मंदरं वा पच्वयं पंच-पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तणं, पंच-पच गाउयसयाई उन्हेणं पण्णत्ता। २३. शीता और शीतोदा महानदियों के सभी वक्षस्कार और मन्दर पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊंचे तथा पांच-पांच सौ गाउ उद्वेधवाले/गहरे प्रज्ञप्त है । २४. सव्वैवि णं वासहरकडा पंच- पंच जोयणसयाई उडळ उच्चतणं, मूले पंच-पंच जोपरणसयाई विषखमेणं पण्णता। , २४. समस्त वर्षधर-कूट ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊँचे तथा मूल में पांच-पांच सौ योजन विष्कम्भवाले/चौड़े प्रज्ञप्त हैं । समावय-सुत्त २०६ समवाय-शतोत्तर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. उसमे णं रहा कोसलिए पंच धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तरेणं होत्या । २६. भरहे णं राया चाउरतचवकवट्टी पंच धणुसयाई उड्ढ उच्चत्तणं होत्या । २७. सोमणस - गंधमायरण- विज्जुप्पहमालवंताणं ववखारपव्वया णं मंदरपव्ययंतेणं पंच-पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तणं, पंचपंच गाउयसधाई उच्चेहेणं पण्णत्ता । २८. सव्वेवि णं वक्खारपव्वयकूडा हरि-हरि सहकूडवज्जा पंच-पंच जोगणसयाई उड्ढं उच्चत्तणं, मूले पंच-पंच जोय रसयाई श्रायामविवखंभेणं पण्णत्ता । २९. सव्वैवि णं नंदणकूडा बलकूडवज्जा पंच-पंच जोयणतयाई उड्ढं उच्चत्तणं, मूले पंच-पंच जोयरसवाई श्रायामविवखंभेणं पण्णत्ता । ३०. मोहम्मीसाणे कप्पेसु विमाणा पंच पंत्र जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तमं पण्णत्ता । ३१. मणकुमार मा हिंदेमु विमाणा छन् मन-मुत कप्पेमु जोपणसपाई उच्चणं पत्ता । २१० २५. कौशलिक अर्हत् ऋषभ ऊँचाई की दृष्टि से पांच सौ धनुप ऊँचे थे । २६. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत ऊँचाई की दृष्टि से पांच सौ धनुप ऊँचे थे । २७. सौमनस, गंधमादन, विद्युत्प्रभ और माल्यवत् वक्षस्कार पर्वत मन्दर पर्वत के समीप ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊँचे तथा पांच-पांच सौ गाउ उद्वेधवाले / गहरे प्रज्ञप्त हैं । २८. हरि और हरिस्सह कूटों को छोड़कर सभी वक्षस्कार पर्वत कूट ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊँचे तथा मूल में पांच-पांच सौ योजन ग्रायाम-विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त हैं । २६. बलकूट को छोड़कर सभी नन्दनवन - कूट ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊँचे तथा मूल में पांचपांच सौ योजन श्रायाम-विष्कम्भक / विस्तृत प्रज्ञप्त हैं । ३०. मीधर्म और ईशान कल्पों में विमान ऊँचाई की दृष्टि से पांच-पांच सौ योजन ऊँचे प्रज्ञप्त हैं । ३१. मनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में विमान ऊँचाई की दृष्टि से छह सी योजन ऊँने प्रज्ञप्त हैं । समवाय- शतीतर Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. चुल्लहिमवंतकूडस्स णं उवरि ल्लामो चरिमंतानो चुल्लहिमवंतस्स वासहरपन्वयस्स समे धरणितले, एस णं छ जोयणसयाई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते । ३२. क्षुल्लहिमवत्कूट के उपरितन चर मान्त से क्षुल्लहिमवत् वर्षधर पर्वत के समभूतल का अवाधतः अन्तर छह सौ योजन प्रज्ञप्त है। ३३. एवं सिहरीकूडस्सवि । ३३. इसी प्रकार शिखरीकूट का भी। ३४. पासस्स णं अरहो छ सया वाईणं सदेवमणुयासुरे लोए वाए अपराजिनाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था। ३४. अर्हत् पार्श्व के देव, मनुष्य और असुरलोक में होने वाले वाद में अपराजित छह सौ वादियों की उत्कृष्ट वादी-सम्पदा थी। ३५. अमिचदे णं कुलगरे छ धणु सयाई उद्धं उच्चत्तणं होत्था। ३६. वासुपुज्जे णं अरहा छहि पुरिस सएहिं सद्धि मुंडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पन्वइए । ३७. बभ-लतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त-सत्त जोयरणसयाई उड्ढं उच्चत्तणं पण्णत्ता। ३५. कुलकर अभिचन्द्र ऊँचाई की दृष्टि से छह सौ धनुष ऊँचे थे । ३६. अर्हत् वासुपूज्य ने छह सौ पुरुषों के साथ मुंड होकर अगार से अनगार प्रवज्या ली। ३७. ब्रह्म और लान्तक कल्पों में विमान ऊँचाई की दृष्टि से सात-सात सौ योजन ऊँचे प्रज्ञप्त है। ३८. श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ केवली थे। ३८. समणस्स णं भगवनो महावीर स्स सत्त जिणसया होत्था। ३६. समणस्स भगवनो महावीरस्स सत्त वेउब्वियसया होत्था। ३६. श्रमण भगनान् महावीर के सात सौ साधु वैक्रिय [लब्धिसम्पन्न] ४०. अरिनेमी णं रहा सत्त वास सयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे परिणिध्वुडे सध्वदुक्खप्पहोणे। ४०. अर्हत् अरिष्टनेमि सात सौ से कुछ न्यून वर्षो तक केवल-पर्याय पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिवृत तथा सर्व दुःख-मुक्त हुए । समवाय-सूत्तं २११ समवाय--शतोत्तर Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. महाहिमवत् कूट के उपरितन चर मान्त से महाहिमवत् वर्षधर पर्वत के समभूतल का अबाधतः अन्तर सात सौ योजन प्रज्ञप्त है। ४१. महाहिमवंतकूडस्स णं उरि- ल्लामो चरिमंतानो महाहिमवंतस्स वासहरपवयस्स समे घरणितले, एस णं सत्त जोयण सयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ४२. एवं रुप्पिकूडस्सवि। ४३. महासुक्क - सहस्सारेसु-दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ट-अट्ट जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तण जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तण पण्णत्ता। ४२. इसी प्रकार रुक्मीकूट का भी। ४३. महाशुक्र और सहस्रार-इन दो कल्पों में विमान ऊंचाई की दृष्टि से आठ-आठ सौ योजन ऊंचे प्रज्ञप्त ४४. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतर - भोमेज्ज - विहारा पण्णत्ता। ४५. समरणस्स एं भगवो महा वीरस्स अटुसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं पागमेसिनहाणं उकोसिया अणुत्तरोववाइसंपया होत्या। ४४. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम काण्ड में आठ सौ योजन तक वानव्यन्तर देवों के भौमेय विहार प्रज्ञप्त हैं । ४५. श्रमण भगवान महावीर के अनुत्त रोपपातिक देवों में कल्याणकारी गति करने वाले, कल्याणकारी स्थिति वाले, भविष्य में मोक्ष प्राप्त करने वाले पाठ सौ साधुनों की उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिक सम्पदा थी। ४६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि-भाग से आठ सौ योजन पर सूर्य संचार करता है। ४६. इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए बहसमरणिज्जाम्रो मिनागायो अहि जोयणसएहि सूरिए चारं चरति । ४७. प्ररहनो में प्ररिट्टनेमिस्स अट्ठ मयाई बाईणं सदेवमणुयासुरम्मि तोगम्मि पाए अपराजियारणं उपोसिया वाइसंपया होत्या। ममय-गुनं ४७. अहद अरिष्टनेमि के देव, मनुष्य और अमुरलोफ में होने वाले वाद में अपराजित पाठ सौ माधुनों की उत्कृप्ट वादी-मम्पदा थी। समवाय-शनोत्तर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. प्राणय• पारण्य - प्रारणच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव-नव जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तरेणं पण्णत्ता। ४८. पानत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में विमान ऊँचाई की दृष्टि से नौ-नौ सो योजन ऊँचे प्रज्ञप्त ४६. निपधकूट के उपरितन चरमान्त से निषध वर्षधर पर्वत के सम-धरणीतल का अबाधत: अन्तर नौ सौ योजन का प्रज्ञप्त है। ५०. इसी प्रकार नीलवत्कूट का भी। ५१. कुलकर विमलवाहन ऊँचाई की दृष्टि से नौ सौ धनुप ऊँचे थे। ४६. निसहकडस्स रणं उवरिल्लामो सिहरतलामो णिसढस्स वासहरपव्वयस्स समे धरणितले, एस णं नव जोयणसयाइं प्रवा हाए अंतरे पण्णत्ते। ५०. एवं नीलवंतफूडस्सवि। ५१. विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव घणुसयाई उड्ढं उच्चतेगं होत्या। ५२. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागानो नहि जोयणसएहि सन्धुपरिमे ताराख्वे चारं चर। ५३. निसढस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लामो सिहरतलामो इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभागे, एस रणं नव जोयरपसयाई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। ५४. एवं नीलवंतस्सवि। ५२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सौ योजन पर सबसे ऊपर के तारे संचरण करते हैं। ५३. निषध वर्षधर पर्वत के उपरितन शिखरतल से इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम काण्ड में बहुमध्यदेशभाग का अबाधतः अन्तर नौ सौ योजन प्रज्ञप्त है । ५४. इसी प्रकार नीलवान् का भी [प्रज्ञप्त है। ५५. सव्वेवि णं गेवेज्जविमाणा दस- दस जोयणसयाई उड्ढं उच्च- तेणं पण्णता ।। ५५. सभी अवेयक विमान ऊँचाई की दृष्टि से दस-दस सौ/हजार-हजार योजन ऊँचे प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्तं २१३ समवाय-शतोत्तर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. सन्वेवि णं जमगपन्वया दस- दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं, दस-दस गायउसयाई उन्हेणं, मूले दस-दस जोयणसयाई प्रायामविखंभेणं पण्णत्ता। ५६. सभी यमक पर्वत ऊँचाई की दृष्टि से दस-दस सौ/हजार-हजार योजन ऊँचे, हजार-हजार गाउ उद्वेधवाले/ गहरे और मूल में हजार-हजार योजन आयाम-विष्कम्भक/लम्बेचौड़े प्रज्ञप्त हैं। ५७. एवं चित्त-विचित्तकूडा वि भणियव्या । ५७. इसी प्रकार चित्र और विचित्रकूट भी कथित हैं। ५८. सब्वेवि णं वट्टवेयड्ढपव्वया दस दस जोयणसयाई उठं उच्चतेण, दस-दस गाउयसयाई उत्वेहेणं, सव्वत्य समा पल्लगसंठाणसंठिया, मूले दस-दस जोयणसयाई दिक्खंभेणं पण्णत्ता। ५८. सभी वृत्तवैताठ्य-पर्वत हजार-हजार योजन ऊँचे, हजार-हजार गाउ उद्वेषवाले/गहरे, सर्वत्र सम, पल्यसंस्थान से संस्थित और मूल में हजार-हजार योजन आयामविष्कम्भक/लम्बे-चौड़े प्रज्ञप्त हैं। ५६. सव्वेवि णं हरिहरिस्सहकूडा वक्खारकूडवज्जा दस-दस जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले दस जोयणसयाई दिक्खंभणं मण्णता। ५६. वक्षस्कारकूट को छोड़कर सर्व हरिकूट और हरिस्सहकूट ऊँचाई की दृष्टि से हजार-हजार योजन ऊँचे और मूल में हजार-हजार योजन विष्कम्भक/चौड़े प्राप्त हैं । ६०. एवं वलकूडावि नंदणकूड यस्ता । ६०. इसी प्रकार नन्दनकूट को छोड़कर वलकूट भी [प्राप्त है। ६१. अरहा वि अरिहनेमी दस वाससयाई सवाऽयं पालइता सिडे बु? मुत्ते अंतगडे परिणियडे सध्यदुराप्प होणे। ६१. अहत् अरिष्टनेमि हजार वर्षों की सर्वायु पालकर सिद्ध, वृद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत तथा सर्व दुग्य-मुक्त हुए। ६२. पासमय परहो दस मयाई जिणार होत्या. ६२. अहंत पाश्वं के हजार जिन/ फेवली । समवाय-शतोत्तर Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. पासस्स णं अरहनो दस अंते वासिसयाई कालगयाइं जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई। ६४. पउमद्दह-पुंडरीयदहा य दस दस जोयणसयाई प्रायामेणं पण्णत्ता। ६३. अर्हत् पार्श्व के दश सौ/एक हजार ___ अन्तेवासी कालगत हो, सर्व दुःख मुक्त हुए। ६४. पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह दश-दश सौ/हजार-हजार योजन आयामवाले लम्बे प्रजप्त हैं। ६५. अणुतरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाई उड्डं उच्चत्तणं पण्णता। ६५. अनुत्तरोपपातिक देवों के विमान ऊँचाई की दृष्टि से ग्यारह सौ योजन ऊंचे प्रजप्त हैं। ६६. पासस्स णं अरहनो इक्कारस सयाई वेवियाणं होत्था । ६७. महापउम-महापुंडरीयदहाणं दो-दो जोयरणसहस्साइं पाया. मेणं पण्णत्ता। ६६ अर्हत् पावं के वैक्रिय [लब्धि सम्पन्न] साधु ग्यारह सौ थे । ६७ महापद्मद्रह और महापुण्डरीद्रह दो दो हजार योजन आयामवाले/ लम्बे प्रज्ञप्त हैं। ६८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के वज्रकांड के उपरितन चरमान्त से लोहिताक्षकांड के अधस्तन चरमान्त का अवाधतः अन्तर तीन हजार योजन का प्रज्ञप्त है। ६८. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए वहरकंउस्स उवरिल्लानो चरिमंतानो लोहियक्खस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते, एस णं तिणि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ६६. तिगिच्छ-केसरिदहा णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई माया मेणं पण्णत्ता। ७०. धरणितले मंदरस्स एवं पन्च यस्स बहुमज्झदेसमागे रुयगनाभीयो चउविसि पंच-पंच जोयणसहस्साई अबाहाए मंदरपब्वए पण्णत्त । ६६. तिगिच्छद्रह और केसरीद्रह चार चार हजार योजन आयामवाले ) लम्बे प्रज्ञप्त हैं। ___७०. धरणीतल में मन्दर-पर्वत के वहुमध्यदेशभाग में नाभिरुचक प्रदेशों से चारों दिशाओं में अवाधतः अन्तर पांच-पांच हजार योजन प्रज्ञप्त है। समवाय-सुत्तं . २१५ समवाय-शतोनर 'पुत Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. सहस्रार कल्प में छह हजार विमान प्रज्ञप्त हैं। ७२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकांड के उपरितन चरमान्त से पुलककांड के अधस्तन चरमान्त का अवाघतः अन्तर सात हजार योजन प्रज्ञप्त ७१. सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणा वाससहस्सा पण्णत्ता। ७२. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लामो चरिमंतानो पुलगस्स कंडस्स हेदिल्ले चरिमंते, एस णं सत्त जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । ७३. हरिवास-रम्मया णं वासा अट्ट अट्ठ जोयणसहस्साई साइरेगाई वित्थरेणं पण्णत्ता। ७४. दाहिणड्ढमरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहरो समुह पुट्ठा नव जोयरणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता। ७३. हरिवर्प और रम्यकवर्ष साधिक आठ-आठ हजार योजन विस्तार से प्रज्ञप्त हैं। ७५. मंदरे णं पव्वए घरणितले दस जोयणसहस्साई विखंभेरणं पण्णत्ते। ७४. दक्षिणार्थ भरत की जीवा पूर्व पश्चिम दिशा की दोनों ओर से समुद्र का स्पर्श करती हुई नौ हजार योजन आयामवाली/लम्बी प्रज्ञप्त है। ७५. मन्दर-पर्वत धरणीतल पर दस हजार योजन विष्कम्भक /चौड़ा प्रजप्त है। ७६. जम्बूद्वीप द्वीप एक शत-सहस्र/ लाख योजन आयाम-विष्कम्भक/ विस्तृत प्राप्त है। ७७. लवण समुद्र का दो शत-महस्र | लान्त्र योजन चक्रवाल-विष्कम्भ प्रनप्त है। ७६.जंयूदीवेणं दोवे एग जोयरणसय सहस्सं प्रायामविक्रमेणं पपणत्ता। ७७. लवणे णं समुद्दे दो जोयणसय सहस्साई चपकवालविरमेणं पण्णत । ७८. पामस्म एं अरहनो तिणि सयमाहत्मीग्रो मत्तावीस य महत्माद उयकोसिया साथियामंपा होत्या। ७८. अर्हत् पावं की तीन शत-सहस्र/ लाग्य मत्ताईस हजार धाविकाओं की उत्कृप्ट श्राविकासम्पदा थी। ' समापन समवाय-शतोत्तर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. धायइसंडे गं दोवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णते। ७६. घातकीखण्ठ द्वीप का शत-सहस्र । चार लाख योजन का चक्रवालविष्कम्भ प्रज्ञप्त है। ५०. लवणस्स णं समुदस्स पुरस्थि मिल्लामो चरिमंताओ पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस गं पच जोयणसयसहस्साई अबोहाए पण्णत्ते। अंतरे पण्णते। ८०. लवरण समुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का अवाघतः अन्तर पांच रात-सहस्र/लाख योजन प्रज्ञप्त है। ८१. भरहे णं राया चाउरंतचक्क वट्टी छ पुथ्वसयसहस्साई रायमझावसित्ता मुंडे भवित्ता प्रागाराप्रो अणगारियं पन्वइए । ८१. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत ने छह शत-सहस्र लाख पूर्वी तक राज्य-मध्य रह कर, मुड होकर, अगार से अनगार प्रव्रज्या ली। ८२. जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरस्थिमिल्लायो वेइयंताओ धायइसंडचवकवालस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस गं सत्त जोयणसयसहस्साई प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते। ०२. जम्बूद्वीप द्वीप की पूर्वी वेदिका के चरमान्त से घातकीखंड के चक्रवाल के पश्चिमी चरमान्त का अवाधतः अन्तर सात शत-सहस्रलाख योजन प्राप्त है। ५३. माहिदे णं कप्पे अट्ट विमाणा- वासमयसहस्साइं पण्णत्ताई। ८३. माहेन्द्र कल्प में आठ शत-सहस्र | लाख विमान प्रजप्त हैं। ८४. अजियस्स णं अरहो साइरे गाई नव मोहिनाणिसहस्साई होत्या। ८४. अर्हत् अजित के नौ हजार से अधिक अवधिजानो थे। ८५. पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई · सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए नरएसु नेरदत्ताए उववणे । ८५. वासुदेव पुरुपसिंह दश शत-सहस्र/ लाख वर्ष की सर्वायु पाल कर, पांचवीं पृथिवी के नरकों में नैरयिकत्व से उपपन्न हुए। २१७ समवाय-शतात्तर समवाय-सुत्त Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. समणे भगवं महावीरे तित्य. गरमवग्गहणालो 'छठे पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडि सामण्णपरियागं पाउणित्ता सहसारे कप्पे सव्वळे विमाणे देवत्ताए उववण्णणे। ६. श्रमण भगवान् महावीर तीर्थकर भवग्रहण से [पूर्व] छठे पोटिलभव-ग्रहण में एक करोड़ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय पालकर महबार देवलोक में सर्वार्थ विमान में देवत्व से उपपन्न हुए। ८७. उससिरिस्स भगवनो चरि मस्स य महावीरवद्धमाणस्सएगा सागरोवमकोडाकोडी प्रवाहाए अंतरे पण्णत्त । ७. भगवान् श्री ऋपभ से चरम [नीर्थंकर महावीर वर्द्धमान का अवावतः अन्तर एक कोड़ाकोड़ी मागरोपम प्राप्त है। मनवाय-गुन समयाय-गुन २१८ समवाय-अतोनर Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुवालसंग - समवाश्रो १. दुवालसंगे गरिपिडगे पण्णत्ते, त जहा - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विप्रापण्णत्ती णायाधम्म कहाश्रो उवासगदसा अंतगडदसानो श्रणुत्तरोववाइयदसा पहावागरणाई विवागसुए दिट्टिवाए । २. से किं तं श्रायारे ? श्रायारे णं समरगाणं निग्गंथाणं श्रायार- गोयर - विजय - वेणइयट्ठाण - गमण - चंकमण - पमाणजोगजु जण भासा समिति-गुत्ती सेज्जीवहि भत्तपाण - उग्गमउपायण सणाविसोहि - सुद्धासुद्धग्गहरण- वय नियमतवोवहाण सुप्पसत्य- माहिज्जइ । - से समास पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा ----- णाणायारे दंसरणायारे चरितायारे तवायारे वीरियायारे । श्रायारस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुोगदारा संखेज्जाश्रो पडिवत्तीश्रो संखेज्जा समवाय-सुतं २१६ द्वादशांग- समवाय १. गरिणपिटक के वारह अंग है, जैसे कि- १. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञात-धर्मकथा, ७. उपासक दशा, ८. श्रन्तकृतदशा, ६. ग्रनुतरोपपातिकदणा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवाद । २. वह आचार क्या है ? श्राचार में श्रमरण-निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गमविशुद्धि, उत्पादन- विशुद्धि, एपरणाविशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहरण, व्रत, नियम, तप उपधान का सुप्रशस्त आख्यान किया गया है । संक्षेप में प्राचार पंचविध प्रज्ञप्त है, जैसे कि- १. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार ३. चरित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार, । प्राचार की वाचनाएं परिमित है, अनुयोगद्वार संख्येय है, प्रतिपत्तिय संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक समवाय द्वादशाग Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुत्तीयो। से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे दो सुयक्खंधा पणवीसं अज्झयणा पंचासीइं उद्देसणकाला पंचासीइं समुद्देसरणकाला अट्टारस पयसहस्साई पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा । परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ताभावाप्राधविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति दसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । वह अङ्ग की अपेक्षा से प्रथम अंग है। इसके दो श्रुतस्कंच, पचीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशन काल, पद-प्रमाण से अठारह हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त पर्याय हैं। इसमें परिमित बस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिन-प्रजप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन, किया गया है, प्ररूपरण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह आत्मा है, जाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमेंचरण-करण-प्ररूपणा का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गयाहै, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्णन किया गया है। यह है वह आचार। स एवं आया एवं पाया एवं विण्णाया एवं चरण - करणपरूवणया प्रायविज्जति पण्णविज्जति पहविज्जति दसिज्जति निदेसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं पायारे । ३. से कि तं भूयगटे? सूयगडे णं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जति ससमयपरसमया मूइज्जति जीवा सूइज्जति प्रजोवा सूइज्जति जीवाजीवा मूइज्जति लोगे मूइज्जति ३. वह मूत्रकृत क्या है ? मूत्रकृत में स्व-समय की सूचना दी गई है, पर-समय की सूचना दी गई है, स्व-समय-पर-समय की सूचना दी गई है, जीवों की सूचना दी गई है, अजीवों मम्पाय-मन समवाय-द्वादशांग Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोगे सूइज्जति लोगालोगे सूइज्जति । सूयगडे णं जीवाजीव - पुण्णपावासव-संवर-निज्जर-बंधमोपखावसाणा पयत्था सूइजजंति । समगाणं अचिरकालपटवइयारणं कुसमयमोह - मोहमइमोहियाणं संदेहजाय - सहजबुद्धि-परिणामसंसाइयाणं पावकर - मइलमइगुणविसोहणत्यं पासोतस्स फिरियावादिसतस्स चउरासीए अफिरियवाईणं सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं-तिण्हं तेसटाणं अण्णदिट्टियसयाणं चूहं किच्चा ससमए ठाविज्जति । की सूचना दी गई है, जीवअजीव की सूचना दी गई है, लोक की सूचना दी गई है, अलोक की सूचना दी गई है, लोक-अलोक की सूचना दी गई है। सूत्रकृत में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष तक पदार्थों की सूचना दी गई है। इसमें नवदीक्षित श्रमणों के कुसमय/अन्यतीर्थिक मोह की मोहमति से मोहित, सन्देहजात, सहजबुद्धि के परिणाम के संशयित, पापकारी मलिन मतिगुण के विशोधन के लिए एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी प्रक्रियावादियों, सड़सठ अज्ञानवादियों तथा बत्तीस वैनयिकवादियों-इस प्रकार तीन सौ तिरसठ अन्य दृष्टियों का व्यूह कर स्व-समय की स्थापना की गई है। विविध दृष्टान्तों एवं वचनों की निस्सारता को सम्यक् प्रकार से दर्शाया गया है। विविध विस्तारानुगम एवं परम सद्भाव-गुण से विशिष्ट, मोक्षपथ के अवतारक, उदार, अज्ञानअन्धकार के दुर्ग में दीपभूत और सोपान है। इसके सूत्रार्थ सिद्धिगति के उत्तम गृह के लिए क्षोभरहित एवं निष्प्रकम्प हैं। णाणादिळंतवयण - रिणस्सारसुटू दरिसयंता। विविहवित्यराणुगम - परमसटभाव-गुण - विसिट्ठा मोक्खपहोयारगा उदारा अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूता सोवाणा चेव। सिद्धिसुगइ घरत्तमस्स णिवखोभनिप्पकंपा सुत्तत्था। समवाय-सुत्तं २२१ समवाय-द्वादशांग Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडस्स णं परिता वायरणा संखेज्जा प्रणुभोगदारा संखेज्जाम्रो पडिवत्तीम्रो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाश्रो निज्जुतीनो । से णं गट्टयाए दोच्चे अंगे दो सुयक्खधा तेवीसं श्रभयणा तेत्तीस उद्देसणकाला तेत्तीसं समुद्दे सणकाला छत्तीसं पदसहसाई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा श्रता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा श्रणंता थावरा सासया कडा रिगवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा श्राघविज्जति पण्णविज्जंति परुविज्जति दंसिज्जति निदं सिज्जंति उवदंसिज्जति । से एवं श्राया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चररण करणपरवणया प्राघविज्जति पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिब्जति उवदंमिज्जति । सेत्त सूयगडे । ४. मे कि तं ठाणे ? ठाणे णं ससमया ठाविज्जति परममया ठाविज्जति ससमयपरसमया ठाविज्जति जीवा ममवाग-मुत्त २२९ सूत्रकृत को वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय है । यह अंग की अपेक्षा से दूसरा अंग है । [ इसके ] दो श्रुतस्कन्ध, तेईस अध्ययन, तेतीस उद्देशनकाल, तेतीस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से छत्तीस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम / अर्थ / धर्म और अनन्त पर्याय हैं । इस में परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का ग्राख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरणकरण- प्ररूपणा का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपर्शन किया गया है । यह है वह सूत्रकृत । ४. वह स्थान क्या है ? स्थान में स्व- समय की स्थापना की गई है, पर समय की स्थापना की गई है, स्व-समय पर समय की समवाय- द्वादशांग Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाविज्जति अजीवा ठाविज्जति जीवाजीवा ठाविज्जति लोगे ठाविज्जति अलोगे ठाविज्जति लोगालोगे ठाविज्जति । ठाणे णं दव-गुण-खेत्त-कालपज्जव पयत्थाणंसेला सलिला य समुद्दसरभवरणविमाण प्रागर णदीनो। णिहमओ पुरिसज्जाया, सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥ स्थापना की गई है। जीवों की स्थापना की गई है, अजीवों की स्थापना की गई है, जीव-अजीव की स्थापना की गई है। लोक . की स्थापना की गई है, अलोक की स्थापना की गई है, लोकअलोक की स्थापना की गई है । 'स्थान' में पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्याय की, पर्वत, सलिला, समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर, नदी, निधि, पुरुष-जाति, स्वर, गोत्र, ज्योतिष्चक्र का संचार-इन सबका आकलन है। इसमें एक विध वक्तव्यता, द्विविध वक्तव्यता यावत् दश विध वक्तव्यता है। इसमें जीव, पुद्गल और लोकस्थायी [द्रव्यों] की प्ररूपणा आख्यात है। स्थान की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिप्रतियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहणियां संख्येय हैं। एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं जाव दसविहवत्तन्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाइणं च परूवयणा प्राधविज्जति । ठाणस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणु ओगदारा संखेज्जारो पडिवत्तीनो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जामो निज्जुत्तीम्रो संखेज्जाम्रो संगहणीयो। से रणं अंगट्टयाए तइए अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयरणा एक्कवीसं उद्देसणकाला एक्कवीसं समुद्देसणकाला बावरि पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अरणंता गमा अवंता पज्जवा। यह अंग की अपेक्षा से तीसरा अंग है। [इसके] एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशन-काल, इक्कीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से बहत्तर हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम/अर्थ/धर्म और अनन्त पर्याय हैं। समवाय -द्वादशांग समवाय-सुत्त २२३ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्ता तसा अयंता थावरा सासया कडाणिबद्धा रिएकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्रायविति पपणविज्जति पविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । इसमें परिमित स जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है,प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार चरण-करण-प्ररूपणा का पाल्यान किया गया हैं, प्रजापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह है वह स्थान । से एवं पाया एवं णाया एवं चिण्णाया एवं चरण-करणपरूवरणया प्रायविज्जति पण्णविज्जति पलविज्नति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति। लेतं ठाणे । ५. से कि तं समवाए ? समवाए णं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जति ससमयपरसमया सूइज्जति जीवा सूइ. जंति अजीवा सूइज्जति जीवाजीव सूइज्जति लोगे सूइज्जति अलोगे सूइज्जति लोगालोगे सूइज्जति। ५. समवाय क्या है ? समवाय में स्वसमय की सूचना दी गई है, परसमय की सूचना दी गई है, स्वसमय और परसमय की सूचना दी गई है। जीवों की सूचना दी गई है, अजीवों की मूचना दी गई है, जीव-अजीव की सूचना दी गई है, लोक की सूचना दी गई है। अलोक की मूचना दी गई है, लोक-ग्रलोक की सूचना दी गई है। समवाय में एकादिक अर्थों/पदार्थों को एकोतरिका की परिवृद्धि और द्वादशांग गरिपिटक का पल्लवान सार ज्ञापित है। समवाए णं एकादियाणं एगल याणं एगुत्तरियपरिषदीय, दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समुणगाइज्जइ। समवाय-गुतं २२४ समवाय-द्वादशांग Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणगसयरस वारसविहवित्यरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवनो समासेणं समायारे पाहिज्जति । तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया वित्थरेण प्रवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग - तिरिय - मणुयसुरगरगारणं आहारुस्सास - लेसआवाससंख • प्राययप्पमाण उववाय-चयण - प्रोगाहणोहिचेयण-विहाण-उवमोग-जोगइदिय-कसाय । इसमें सौ स्थानों तक वारह प्रकार के विस्तार वाले श्रुतज्ञान का भगवान् द्वारा जगत् के जीवों के हित के हिए संक्षेप में समाचार आख्यात है। इसमें नानाविध जीव-अजीव विस्तारपूर्वक वरिणत हैं। इसके अतिरिक्त विशेष रूप से बहुविधनरक, तिर्यच, मनुष्य और देवों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास-संख्या, आयत-प्रमारण, उपपात, च्यवन, अवगाहना, अवधि, वेदन, विधान, उपयोग, योग, इन्द्रिय और कषाय वरिणत विविहा य जीवजोणी विवखंभुस्सेह-परिरयप्पमाणं विधिविसेसा य मंदरादोणं महीघराणं। कुलगर - तित्थगर - गणहराणं समत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चेव चक्कहरहलहराण य वासाण य निग्गमा य समाए । विविध जीवयोनि, विष्कम्भ/ विस्तार, उत्सेध/ऊंचाई और परिधि का प्रमाण, महीधर, मन्दर आदि के विधि-विशेष वरिणत हैं। इसमें कुलकर, तीर्थकर, गणधर, समग्र भरत के अधिपति चक्रवर्ती, चक्रधर, हलघर और वर्षों/क्षेत्रों का निर्गम निदर्शित है। ये और इसी प्रकार के दूसरे अर्थ यहां विस्तार से समाकलित एए अण्णे य एवमादित्य वित्थरेणं अत्था समासिज्जति। समवायस्सरणं परित्ता वायरणा संखेज्जा अणुनोगदारा सखेज्जाम्रो पडिवत्तीग्रो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखे समवाय की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपतियां संख्येय है, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, समवाय-सुत्तं २२५ समवाय-द्वादशांग Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणियां संख्येय हैं। ज्जानो निज्जुत्तीग्रो संखेज्जामो संगहणीयो। से गं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्खंधे उद्देसणकाले एगे समुसणकाले एगे चोयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं, संखेज्जाणि अक्खराणि प्रणंता गमा अणंता पज्जवा । परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिवद्धा रिणकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति परूविजंति देसिज्जति निदंसिज्जति उवदसिज्जति । यह अंग की अपेक्षा से चौथा अंग है। [इसके] एक अध्ययन, एक श्रुतस्कन्ध, एक उद्देशन-काल एक समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से एक शत-सहस्र/लाख चौवालिस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम/ अर्थ/धर्म और अनन्त पर्याय हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिनप्रजप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण-करणप्ररूपणा का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह है वह समवाय । से णं पाया एवं गाया एवं विण्णाया एवं चरण - करणपरूवणया प्रायविज्जति पण्णविज्जति परविज्जति दंसिज्जति निदसिज्जति उवदसिज्जति । सेतं समवाए। ६.ने कि तं वियाहे ? बियाहे णं ससमया वियाहिज्जति परसमया वियाहिज्जति सनमयपरसमया वियाहिज्जति जीवा वियाहिज्जंति अनीवा घियाहिज्जति जीवानीया ६. न्यान्या व्याख्याप्रनप्ति क्या है ? व्याख्या में स्वसमय की व्याख्या की गई है, परसमय की व्याख्या की गई है, स्वसमय-परसमय की व्या__ ग्या की गई है। जीवों की व्याम्या की गई है, अजीवों की व्याख्या की गमत्राय-मुत्त समवाय-हाटगांग Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाहिज्जति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ । वियाहे गं नाणाविह-सुर-नरिंद रायरिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जवपदेस - परिणाम - जहत्यिभावअणुगम-निवखेव- णय - पमाणसुनिउणोवक्कम-विविहप्पगारपागड-पयंसियाणं लोगालोगपगासियाणं संसारसमुद्द - रु द उत्तरण-समत्थारणं सुरपतिसंपूजियागं भविय-जणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धसणाणं सुदिटु-दीवभूयईहामतिबुद्धि-वद्धणाणं छत्तीससहस्समणूयारणं वागरणाणं दंसणा सुयत्थ-बहुविहप्पगारा सोसहियत्थाय गुणहत्था। गई है, जीव-अजीव की व्याख्या की गई है। लोक की व्याख्या की गई है, अलोक की व्याख्या की गई है, लोक-अलोक की व्याख्या की गई है। व्याख्या में नानाविध देव, नरेन्द्र, राजपि और विविध प्रकार के संशयित लोगों द्वारा पूछे गये और जिनेश्वर द्वारा विस्तारपूर्वक भापित द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश, परिणाम, यथाअस्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, तप, प्रमाण, सुनिपुरण-उपक्रम की विविध प्रकार से प्रकट-प्रदर्शित करने वाले, लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले, संसारसमुद्र से पार लगाने वाले, उत्तरसमर्थ, सुरपति-पूजित, भव्यजनों एवं प्रजाहृदय से अभिनन्दित, तप और रज को विध्वंस करने वाले, सुदृष्ट, दीपभूत, ईहा, मति, बुद्धि के संवर्धक, छत्तीस हजार व्याकरणों/ समस्या-समाधानों के बहुविध श्रुतार्थ, शिष्य-हितार्थ एवं गुणहस्त/सिद्धहस्त दर्शन हैं। व्याख्या की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयां संख्येय हैं। चियाहस्स णं परित्ता वायणा सखेज्जा अणुयोगदारा संखेज्जाम्रो पडिवत्तीयो सखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाम्रो निज्जुत्तीओ संखेज्जामो संगहीनो। से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अज्झ यह अंग की अपेक्षा से पांचवां अंग है। [इसके] एक श्रुतस्कन्ध, समवाय-सुत्त २२७ समवाय-द्वादशांग Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणसए दस उद्देसगसहस्साई दत समुद्देसगसहस्साई छत्तीसं वागरणसहस्साई चउरासोई पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जाइं अवखराइं अणंता गमा अणंता पन्जवा। परित्ता तसा अणंता यावरा सासया कडा णिवा णिकाइया जिणपणत्ता भावा आघविनंति पणविज्जति पहविजंति दसिज्जति निदंसिजति उवदंतिजति। कुछ अधिक सौ अध्ययन, दस हजार उद्देशक, दस हजार समुहेशक, छत्तीस हजार व्याकरण, पद-प्रमाण से चौरासी हजार पद, संन्येय अक्षर, अनन्त गम/अर्थ धर्म अनन्त पर्याय हैं। इनमें परिमित स जीवों, अनन्त न्यावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रजप्त भावों का पान्यान किया गया है, प्रजापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह प्रात्मा है. ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण करणप्ररूपणा का प्रान्यान किया गया है, प्रजापन किया गया है, प्ररूपरण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। ग्रह है वह व्याख्या। से एवं आया एवं गाया एवं विष्णाया एवं चरण-करणपरूवयपा आंधविज्जति पप्णविति पविजति दंति जति निदसिज्जति उवदंसिजति । सेत्तं वियाहे । ७. से कि तं नायाधम्मरहामो ? नाया-धम्मकहानु णं नाया नगराई उज्जाणाई चेइमाई दगडाई रायाणो अम्मापियरो समोमरणाई धम्मावरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइप इदिदवितेला भोगपरिचाया पवजारों सुपपरिगहा तयोरहागाई परियाणा लेहपाम्रो भत्तपच्चरखाणाई पायो ए, वह जात-धर्मकथा क्या है ? जात-धर्मकथा में जातों/पात्रों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, गजा, माता-पिता, समवसरमा, धर्माचार्य, धर्मकया, ऐहलांकिकपारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोगपदिन्याग, प्रवज्या, श्रुत-परिग्रहण, नम-उपधान, पर्याय/दीक्षा-कान, ननवना, भक्त-प्रत्यास्यान, प्रायोपगमन. देवलोकगमन, मुकुल में भाबाद मृत समवाय-द्वादनांग Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगमणाई देवलोगगमगाई सुकुलपच्चायाती पुणवोहिलाभो अंतकिरियानो य प्राविति पण्णविज्जति परूविज्जति निसिज्जति उवदंसिज्जति । पुनर्जन्म, पुन: वोधिलाभ और अन्तक्रिया का आल्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। नाया-धम्मकहासु णं पवइयाणं विरण्यकरण-जिणसामिसासणवरे संजमपइण्ण-पालणधिइ-मइववसाय-दुल्लहाणं, तव-नियमतवोवहाण-रण-दुद्धरभर-मग्गाणिसहा-णिसट्टाणं, घोरपरीसहपराजिया - सह - पारद्ध-रुद्धसिद्धालयमग्ग • निग्गयाणं, विसयसुह - तुच्छयासावसदोसमुच्छियाणं, विराहिय-चरित्तनाए-दसण-जइगुण - विविहप्पगार-निस्सार-सुण्णयारणं संसारअपार-दुक्ख दुग्गइ-भव-विविहपरंपरा पवंचा। जाताधर्मकथा में जिनेश्वर के विनयकरण/आचारनिष्ठ शासन में प्रवजित होने पर भी जो संयम की प्रतिज्ञा के पालन में दुर्लभ धृति, मति और व्यवसाय वाले हैं, तप, नियम, तप-उपधान रूपी संग्राम में दुर्घर भार से भग्न, निःसह, निःसृष्ट, घोर परीपहों से पराजित, प्रारव्य-रुद्ध, सिझालय/मोक्ष-मार्ग से निर्गत, विषय-सुखों की तुच्छ आशावश दोपों में मूच्छित, चारित्र, जान और दर्शन के मतिगुण के विराधक तथा विविध प्रकार की निस्सारता से शुन्य हैं, उनके संसार में होने वाले अपार दुःख, दुर्गति तथा भव जन्म की विविध परम्परा के प्रपञ्च की प्ररूपणा की गई है। घोराण य जिय-परिसह-कसायसेण्ण - धिइ - धणिय - संजमउच्छाहनिच्छियाणं पाराहियनाण - देसण - चरित - जोगनिस्सल्ल-सुद्ध - सिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवण-विमाणसुक्खाइ अणोवमाई मुत्तण चिरं य भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि तो य पुणो इसमें धीर-पुरुपों का, परीपह और कपायरूपी सेना के विजयी, धृति के धनी, संयम में निश्चित उत्साह रखने वाले, ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा योग के आराधक, निःशल्य और शुद्ध सिद्धालय के मार्ग के अभिमुख, अनुपम देव-भवन के वैमानिक मुखों को प्राप्त चिरकाल तक दिव्य और महामहनीय भोगों समवाय-सुतं २२६ समवाय-द्वादशांग Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद्धसिद्धिमग्गारणं अंतकिरिया। को भोग कर तथा कालक्रम से वहां से च्युत होकर, जिस प्रकार वे पुनः सिद्धिमार्ग को पुनर्लब्ध कर अंतक्रिया करते हैं-उनकी प्ररूपणा की गई है। विचलितों में धैर्य उत्पन्न करनेकराने वाले, वोध और अनुशासन भरने वाले एवं गुण-दोषों को दर्शाने वाले देव तथा मनुष्यों का निदर्शन चलियाण य सदेव-माणुस्सधीरकरण-कारणाणि वोधणअणुसासणाणि गुण-दोसदरिसणाणि । दिळंते पच्चए य सोउण लोगमुरिणणो जह य ठिया सासणम्मि जर-मरण-नासणकरे। पाराहिय-संजमा य सुरलोगपढिनियत्ता प्रोवेंति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं । . इसमें दृष्टान्तों और प्रत्ययों/वाक्यों को सुन कर लौकिक मुनि जिस प्रकार से जरा-मरण का विनाश करने वाले जिनशासन में स्थित हुए, संयम की आराधना कर देवलोक से प्रतिनिवृत्त होकर जिस प्रकार शाश्वत, शिव और सर्व दुःखों से मोक्ष पाते हैं-उसका आकलन किया गया है । ये तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थ इसमें विस्तार से प्रख्यात हैं। ज्ञात-धर्मकथा की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां सख्येय हैं, वेप्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहणियां संख्येय है । एए अण्णे य एवमादित्य वित्यरेण य। नाया-धम्मफहासु णं परित्ता वायरणा संखेज्जा अणुयोगदारा सरोज्जाम्रो पडिवत्तीनो ससेज्जा वेढा संरोज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुत्तीरो सखेज्जानो संगहणीयो। से णं अंगट्टयाए छठे अंगे दो सुग्रक्खंधा एगणतीसंप्रज्झयणा, ते ममासमो दुविहा पण्णत्ता, त जहा चरिता यफप्पिया य। समवाय-गुत्तं २० यह अंग की अपेक्षा से छठा अंग है। इसके दो श्रुतस्कंध और उनतीस अध्ययन हैं। संक्षेप में वे दो प्रकार के है~ चरित और कल्पित। समवाय-द्वादशांग Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस धम्मकारणं वग्गा । तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंचपंच प्रक्वाइयासयाई । एगमेगाए प्रक्वाइयाए पंच-पंच उववखाइयासयाई । एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच-पंच श्रवखाइय-उवक्वाइयसयाइं - एवामेव सपुव्वावरे श्रद्धद्वाश्रो श्रक्खाइयकोडीश्रो भवतीति मक्खा - याश्रो । एगूरणतीसं उद्द सणकाला एगूणतीसं समुद्द सरणकाला संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा, श्रवखरा श्रणंता गमा श्रणंता पज्जवा । परिता तसा प्रणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिण्णपण्णत्ता भावा श्राधविज्जंति पण्णविज्जति परुविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति । से एवं श्राया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चररण- करणपरूवणया श्राघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदसि - ज्जति । सेतं णायाधम्मका । ८. से किं तं उवासगदसा ? समवाय-सुतं २३१ धर्मकथा के दस वर्ग हैं। एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ प्राख्यायिकाएँ हैं। एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उप- श्राख्यायिकाएँ हैं। एक-एक उप-प्राख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक - उपाख्यायिकाएँ हैं । इस प्रकार कुल मिला कर साढ़े तीन करोड़ आख्यायिकाएँ हैं- ऐसा कहा है । इसमें उनतीस उद्देशन - काल, उनतीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय शत - सहस्र / लाख पद संख्येय अक्षर, अनन्त गम / अर्थ / धर्म और अनन्त पर्याय हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिन- प्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण-कररणप्ररूपणा का आख्यान किया गया है प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपरण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह ज्ञात-धर्मकथा | ८. वह उपासकदशा क्या है ? समवाय- द्वादशांग Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समक्सरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक-पारलौकिकऋद्धि-विशेष, शीलवत, विरमण, गुरगवत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास, श्रुत-परिग्रहण, तप-उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनर्जन्म, पुनः बोधिलाम और अन्तक्रिया का आल्यान किया गया है। उवासगदसासु णं उवासयाणं नगराई उज्जाबाई चेइमाई वणसंडाई रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइया इडिविसेसा, उवासयाणं य सीलव्वय-वेरमण-गुरण-पच्चक्खाण-पोसहोववास-पडिवज्जणयानो सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गा संलेहणायो भत्तपच्चक्खाणाई पायोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई पुण बोहिलाभो अंतकिरियायो य प्राघविज्जति । उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्यरधम्मसवणाणि वोहिलाभ-अभिगमसम्मत्तविसुद्धया यिरत्तं मूलगुण-उत्तरगुणाइयारा लिइविसेसा य बहुविसेसा पडिमाभिग्गहगहरण-पालणा उवसग्गाहियासणा हिरवागाय, तवाय विचित्ता, सीलन्वयवेरमण-गुणपच्चक्साण-पोमहोववाला, अपन्छिममारगंतियऽयसलेहणाभोसणाहि-अप्पाणं जह य भावइत्ता, वहूणि भत्ताणि अणसरगाए य छेयत्ता उववण्णा फप्पवर विमाणूत्तनेमु जह ऋणुभवंति सुरवरविमाण-वरपोंडरीएसु सोपसाई प्रणीव माई कमेण भोत्तण उत्तमाई, तो ^, समाव-गुत्त २३२ उपासकदशा में उपासकों के ऋद्धिविशेष, परिषद्, विस्तृत धर्म-श्रवण, वोषि-लाभ, अभिगम, सम्यक्त्वविशुद्धि, स्थिरता, मूलगुणों और उत्तरगुणों के अतिचार, स्थितिविशेप, विविध विशिष्ट प्रतिमानों तथा अभिग्रहों का ग्रहण और पालन, उपसर्ग-सहन, निरुपसर्गता, विचित्र तप, भीलव्रत, विरमगा, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौपचोपवास, अपश्चिम-मारणान्तिक आत्मसंलग्बना के मेवन से प्रात्मा को जिस प्रकार भावित करते हैं तथा अनेक भक्तों/भोजन-समयों का अनशन के रूप में छेदन कर उत्तम कल्प देवलोक के विमानों में उपपन्न होकर जिम प्रकार वरपुंटरिक तुल्य तुरवर-विमानों में समवाय-द्वादशांग Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउखएणं चुया समारणा जह जिणमयम्मि बोहि लक्षण य संजमुत्तमं, तमरयोविप्पमुवका उर्वति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं । अनुपम सुखों को क्रमशः भोगकर आयु क्षीण होने पर वहां से च्युत होकर जिस प्रकार जिनमत में बोधि और उत्तम संयम को प्राप्त करते हैं तथा तम और रज के प्रवाह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय और सब दुःखों से मोक्ष प्राप्त करते हैं-उसका आख्यान है। ये तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थ इसमें विस्तार से हैं। उपासकदशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेप्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयां संख्येय एते अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य। उवासगदसासु णं परित्ता वायणा सखेज्जा अणुनोगदारा संखेज्जाम्रो पडिवत्तीमो सखेज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुत्तीओ सखेज्जाओ संगहणीयो। से गं अंगट्टयाए सत्तमे अंगे एगे सुयक्खंघे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जाइं अक्सराई अणंता गमा अणंता पज्जवा। परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ताभावाप्राधविज्जति पण्णविज्जंति परूविजंति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिउजति । . यह अंग की अपेक्षा से सातवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय शत-सहस्र लाख पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं । इसमें परिमित स जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। समवाय-मुत्त २३३ समवाय-द्वादशांग Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से एवं प्राया एवं गाया एवं विष्णाया एवं चररण-कररणपरूवणया प्राघविज्जंति पण्णविज्जति परुविज्जति दसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं उवासगदसानो । ६. से कि तं अंतगडदसा ? अंतगडदसा गं अंतगडाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाई राम्राणो श्रम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया महाश्र इहलोइप-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिचचाया पव्वज्जाश्रो सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमात्रो वहुविहाश्रो, खमा प्रज्जवं मद्दव च, सोय सच्चमहियं, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च वंमं, श्राकिचणया तवो चियाश्रो समिइगुत्तीग्रो चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण व उत्तमाणं दोपि लक्खणाई | पताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चकिम्म सम्म जह केवलस्स लंभो, परियात्री जतिम्रो य जह पालिश्री मुणिहि, पायोवगग्रो य जो जहि, जत्तियाणि भत्ताणि छेपइत्ता अंतगठो मुनिवरो तम गमवान-वृतं २३४ यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण-करणप्ररूपणा का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपरण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह उपासकदशा । C. वह अन्तकृतदशा क्या है ? अन्तकृतदशा में ग्रन्तकृत / तद्भव मोक्षगामी जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक पारलौकिक - ऋद्धिविशेष, भोग- परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत - परिग्रहरण, तप-उपधान, बहुविध प्रतिमाएँ, क्षमा, आर्जव, मार्दव, शौच, सत्य, सतरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, ग्राकिंचन्य, तप, त्याग, दान, समिति, गुप्ति, श्रप्रमादयोग तथा उत्तम स्वाध्याय और व्यान -- इन दोनों के लक्षण निरूपित हैं । इनमें उत्तम संयम प्राप्त करने पर, पोप जीतने पर चतुविध कर्मनय होने से जिस प्रकार कैवल्य की प्राप्ति होती है, जिस प्रकार मुनियों ने जितने पर्यायों का पालन किया, जिन्होंने प्रायोपगमन अनशन किया तथा जितने भक्तों / भोजन समवाय-द्वादशांग Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयो विप्पक्को, मोक्ख सुहमणुत्तरं च पत्ता | एए अणे य एवमाइग्रत्था वित्थारे परूवेई | अतगडदसासु णं परिता वायरणा संखेज्जा प्रणयोगदारा संखेज्जाश्रो पडिवत्तीश्रो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाश्रो निज्जुत्सीओ सखेज्जा संगहणी । से गं अंगवाए श्रमे अंगे एगे सुयक्खं दस प्रज्भयणा सत्त arit दस उद्देणकाला दस संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयगेणं, संखेज्जा, श्रक्खरा प्रणंता गमा, श्रणंता पज्जवा । परिता तसा प्रणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा शिकाइया जिरणपण्णत्ता भावा श्राघविज्जति पण्णविज्जंति परुविज्जंति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदसिज्जति । से एवं प्राया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरण-करणपरूवणया प्राघविज्जंति, पण्ण समवाय-सुत्तं २३५ समयों को छेद कर मुनिवर अन्तकृत हुए, तम व रज से मुक्त हुए, अनुत्तर मोक्ष सुख को प्राप्त हुएउनका वर्णन किया गया है । ये तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थ इसमें विस्तार से प्ररूपित हैं । अन्तकृतदशा की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयाँ संख्येय हैं । यह अंग की अपेक्षा से आठवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, सात वर्ग दस उद्देशनकाल, दस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से संख्येय शत - सहस्र / लाख पद संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन- प्रज्ञप्त भावों का श्राख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह श्रात्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण-करणप्ररूपणा का श्राख्यान किया गया है, समवाय- द्वादशांग Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जति परुविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं अंतगडदसाओ । १०. से किं तं प्रणुत्तरोववाइय दसाश्रो ? गं अणुत्तरोववाइयदसासु प्रणुत्तरोववाइयाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाइं वणसंडाई रायाणी अम्मापियरो समोसरपाई घम्मायरिया धम्मकहा इहलोइय-परलोइया इड्डिविसेसा नोगपरिच्चाया पव्वज्जाश्रो सुयपरिग्गहा तोवहाणाइं परियागा संलेहणाओ भतपच्चवखारणाई पानोवगमणाई प्रणुत्तरोववत्ति सुकुलपच्चायाती पुरणवोहिलामो अंतfafrat यत्राघविज्जति । अणुत्तरोववाइयदसासु तित्थकर समोसरणाई परममंगलजगहियाणि जिगातिसेसा बहुविसेता जिणसोसाणं चैव समणगणपवरगंधहत्यीणं । विरजताएं परिसहसेा-रिउबलपमद्दणाणं तव दित्त-वरितपाण सम्मत्तसार- विविहप्पगारवियर पसत्यगुण - संजयाल arrenहरिसोनं प्रणनार गमवाप सुन P प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह अन्तकृतदशा । १०. अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तरोपपातिकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक- पारलौकिक - ऋद्धि-विशेष, भोग- परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतपरिग्रहरण, तप-उपवान, पर्याय, संलेखना, भक्त प्रत्याख्यान प्रायोपगमन अनशन, अनुत्तर, विमान में जन्म, सुकुल में पुनर्जन्म, पुन: वोविलाभ और अन्तक्रिया का आल्यान किया गया है । २३६. अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगल और जग हितकर तीर्थङ्कर के समवसरण जिनेश्वर के बहुविशिष्ट प्रतिजय तथा जिनशिप्य एवं श्रमणगंगा में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, स्थिर यश वाले, परीपह सैन्य रूपी रिपुवल का प्रमर्दन करने वाले, तपोदीप्त चारित्र ज्ञान एवं सम्यक्त्व-सार, विविध प्रकार के विस्तार वाले प्रशस्त गुणों से संयुक्त, समवाय-द्वादशांग Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरगाण वण्णो । उत्तमवरतव-विसिद्धणाण-जोगजुत्ताणं जह य जगहियं भगवनो जारिसा य रिद्विविसेसा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउभावा य जिणसमीवं, जह य उवासति जिणवरं, जह य परिकहेंति घम्मं लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं, सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अन्नवेति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं, जह वहणि वासाणि अणुचरित्ता पाराहिय-नाण-दंसरण - चरित्तजोगा जिरणवयणमणगय महियभासिया जिणवराण हियएणमणुरोत्ता, जे य जहिं जत्तियाणि भत्तारिण छैयइत्ता लद्धण य समाहिमुत्तं झाणजोगजुत्ता उववण्णा मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्य विसयसोक्खं, तत्तो य चुया कमेणं काहिति संजया जह य अंतकिरियं । अनगार महषि, उत्तम, श्रेष्ठ तप वाले तथा विशिष्ट ज्ञान-योग मे युक्त हैं, उनका वर्णन किया गया है। इसमें जैसे भगवान् महावीर का शासन जगत् के लिए हितकर है, देव-असुर और मनुष्य - परिपदों के जिस प्रकार के ऋद्धि-विशेष तथा जिनेश्वर के समीप प्रादुर्भाव होता है, जिस प्रकार वे जिनवर की उपासना करते हैं, जिस प्रकार लोकगुरु देव, नर और असुरों के गणों में धर्म-प्रवचन देते हैं, जिस प्रकार भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म सुनकर अवशेप कर्म वाले, विषयों से विरक्त मनुष्य अनेक प्रकार के संयम और तपरूपी उदार धर्म को स्वीकार करते हैं, जिस प्रकार वे वहुत वर्षों तक तप और संयम का अनुचरण कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और योग की आराधना करते हैं, अनुगत और पूजित जिनवचन का निरूपण कर जिनवर को हृदय में स्वीकार कर जो जहां जितने भक्तों/भोजन-समयों का छेदन कर, उत्तम-समाधि पाकर, ध्यान-योग-युक्त जिस प्रकार उत्तम मुनिवर अनुत्तर विमानों में अनुतर विषय सुखों को प्राप्त करते हैं, वहां से च्युत होकर, क्रमशः संयत वन कर जिस प्रकार अन्तक्रिया करते हैं उनका आल्यान किया गया है। समवाय-सुत्त २३७ समवाय-द्वादशांग Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए अण्णे य एवमाइग्रत्था वित्यरेण । पं प्रणुत्तरोववाइयदसासु परिता वायणा संखेज्जा अणुश्रीगदारा संखेज्जाश्रो पडिवतोत्रो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुतो सज्जा संगहणोश्रो । से णं गट्टयाए नवमे नंगे सुयक्बंधा दस अभयणा तिणि वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्दे सणकाला सखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जाणि, प्रक्खराणि अांता गमा, श्रणंता पज्जवा । परित्ता तसा श्रणंता थावरा सासया कडा रिगवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा श्राघविज्जति पण्णविज्जति परुविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति । से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चररण कर रगश्राघविज्जति परुवणया पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदसिज्जति । सेतं प्रणुत्तरोववाइयदसाश्री । समवाय-सुतं २३६ ये तथा इसी प्रकार से अन्य अर्थ इसमें विस्तार से हैं | अनुत्तरोपपातिक दशा की वाचनाएँ परिमित हैं, ग्रनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, निर्यु - क्तियां सँख्येय हैं, संग्रहणियां संख्य हैं । यह ग्रंग की अपेक्षा से नौवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देशनकाल, दस समुद्देशन-काल, पदप्रमारण से संख्येय शत सहस्र / लाख पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह श्रात्मा है, जाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार चरण- कररण-प्रपरणा का इसमें ग्राख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है. दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह ग्रनुत्तरोपपातिकदशा । समवाय-द्वादशांग Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अठ्ठत्तरं पसिणसयं अठ्ठत्तरं अपसिणसयं अठ्ठतरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया, नागसुवर्णोहि सद्धि दिवा संवाया पाविज्जति । ११. वह प्रश्नव्याकरण क्या है ? प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्न-अप्रश्न, विद्यातिशय तथा नाग और सुपर्ण देवों के साथ हुए दिव्य संवादों का आख्यान है। पण्हावागरणदसासु गं ससमयपरसमय-पण्णवय - पत्तेयवुद्धविविहत्य - भासा - भासियाणं अतिसय-गुण • उवसम - पाणप्पगार - पायरिय - भासियारणं वित्थरेणं वीरमहेसीहि विविहवित्थर-भासियाणं च जगहियाणं अदागंगृढ-बाहु-असिमणि-खोम-प्रातिच्चमाइयाणं विविहमहापसिणविज्जा - मणपसिणविज्जा-देवयपयोगपहाणगुणप्पगासियाणं सन्भूयविगुणप्पभाव - नरगणमइ - विम्हयकारीणं अतिसयमतीय - कालसमए दमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरण-कारणाणं दुरहिगमदुरवगाहस्स सव्वसवण्णुसम्मयस्स वुहजणविबोहकरस्स पच्चक्खय-पच्चय-करणं-पण्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया श्राविति । प्रश्नव्याकरण में स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्धों द्वारा विविध अर्थवाली भाषा में भापित, विविध प्रकार के अतिशय, गुण और उपशम वाले प्राचार्यो द्वारा विस्तार से कथित तथा वीर महपियों द्वारा विविध विस्तार से भाषित जगत् के लिए हितकर, आदर्श, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, वस्त्र और आदित्य आदि से सम्बन्धित विविध प्रकार की महाप्रश्नविद्याओं और मनःप्रश्नविद्याओं के देवों के प्रयोग-प्राधान्य से गुणों को प्रकाशित करने वाली सद्भूत द्विगुण प्रभाव से मनुष्यगण की बुद्धि को विस्मित करने वाले, सुदूर अतीत काल में दमन/ प्रशान्ति प्रधान उत्तम तीर्थकर के स्थितिकरण में कारणभूत, दुर्योध, दुरवगाह तथा बुधजन को वोध देने वाले, सर्व सर्वज्ञ-सम्मत प्रत्यक्ष प्रत्यय कराने वाली प्रश्न-विद्याओं के, जिनवर-प्रणीत विविध गुण वाले महान् अर्थों का आख्यान किया गया है। समवाय-सुत्तं २३६ समवाय-द्वादशांग Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्हावागरणसु रणं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुप्रोगदारा संखेज्जानो पडिवत्तीप्रोसंखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुत्तीयो संखेज्जागो संगहरणीयो। प्रश्नव्याकरण की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिप्रतियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयां संख्येय हैं। से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे एगे सुयक्खंधे पयणालीसं अज्झयणा पणयालीसं उद्देसणकाला पणयालीसं समुद्देसरणकाला संखेज्जारिण पयसयसहस्साणि पयग्गेण, सखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा। यह अंग की दृष्टि मे दसवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, पैंतालीस अध्ययन, पैंतालीस उद्देशन-काल, पैंतालीस समुद्देशनकाल, पद-प्रमाण से संख्येय शतसहस्र/लाख पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय है । परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा श्राघविज्जति पण्णविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदसिज्जंति । इसमें परिमित स जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। से एवं प्राया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरण-करणपरुवरणया पाविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निसिज्जति उवदंसिज्जति । यह प्रात्मा है, जाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार इसमें चरण करण-प्ररूपरणा का पाख्यान किया गया है प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। सेतं पण्हावागरणाई । यह है वह प्रश्नव्याकरण । १२. से किं तं विवागसुए ? १२. वह विपाकश्रुत क्या है ? समवाय-मुत २४० समवाय-द्वादशांग Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकश्रुत में सुकृत व दुष्कृत कर्मों के फल-विपाक का आख्यान किया गया है। वह संक्षेप में दो प्रकार का प्रज्ञप्त है। जैसे किदुःखविपाक और सुखविपाक । उनमें दस दुःखविपाक हैं और दस सुखविपाक । वह दुःखविपाक क्या है ? वह दुःखविपाफ में दुःखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता-पिता, समव सरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगरगमन, संसार-प्रबन्ध और दुखपरम्परा का आख्यान किया गया विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे प्राघविज्जति । से समासो दुविहे पणत्ते, तं जहादुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव । तत्थ णं दह दुहविवागाणि दह सुहविवागाणि । से कि तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाण नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंरामो य प्रायविज्जति । सेत्तं दुहविवागाणि । से कि तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय - परलोइया इडिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जानो सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा संलणामो भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियानो य ाघविज्जति । यह है वह दुःखविपाक । वह सुखविपाक क्या है ? सुखविपाक में सुखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, पर्याय, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, देवालोक-गमन, सुकुल में पुनर्जन्म, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। समवाय-सुत्तं २४१ समवाय- द्वादशांग Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहविवागेसु रणं पाणाइवायअलियवयण - चोरिक्फकरणपरदारमेहुणससंगयाए महतिब्व-कसाय • इदियप्पमायपावप्पोय - असुहझवसाणसचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभाग - फलविवागा . गिरयगइ-तिरिवखजोणि-बहुविहवसणसय - परंपरापवद्धारणं, मणुयत्तेवि प्रागयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होति फलविवागा। दुःखविपाक में प्राणातिपात, अलीकवचन/मृपावाद, चौर्यकरण, परदार-मैथुन, संग के द्वारा महातीन कपाय, इन्द्रिय प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसाय से संचित पापकर्मों के पाप-प्रनुभाग वाले फलविपाक हैं। नरकगति और तिर्यञ्च-योनि में बहुविध सैकड़ों व्यसनों की परम्परा से प्रवद्ध जीवों के मनुष्य-जन्म में आ जाने पर भी जिस प्रकार अवशिष्ट कर्मों के फलविपाक पापक/ अशुभ होते हैं-उनका आख्यान किया गया है। वहवसणविणास-नासकप्णोठेंगुढ़करचरणनहच्छेयणजिन्मछेयण-अंजण-कदग्गिदाहण-गयचलण - मलगफालणउल्लंवणसूललया - लउडलट्ठिभंजण-तउसीसगतत्त-तेल्लकलकल-अभिसिंचणकुमिपाग-कंपण - वेहवझकत्तण-पतिभयकर - करपलीवणादि-दारुणाणि दुक्खाणि अगोवमाणि । इसमें वध, वृपण-विनाश / नपुंसकता, नासिका, कान, प्रोष्ठ, अंगुष्ठ, हाथ, चरण और नखों का छेदन, जिह्वा-छेदन, अंजनदाह, कटाग्नि से दाहन, हाथी के पांवों से कुचलना, फाड़ना, लटकाना, शूल, लता, लकड़ी और लाठी से शरीर-मंग करना, उबलते हुए वपु/ रांगा और गरम तेल से अभिसिचन, कुंभी/भट्टी में पकाना, कंपित करना, दृढ़ता से वांधना, वेधना, वर्धकर्तन/खाल उधेड़ना, प्रतिमय पैदा करने वाली मशाल जलाना आदि अनुपम दारुण दुःखों का आख्यान किया गया है। बहुविध भव-परम्परानुवद्ध जीव पाप-कर्मत्पी वल्ली से मुक्त नहीं होते । वेदन किये बिना मोक्ष नहीं बहुविविहपरंपराण - बद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए । अवेयइत्ता हु गयि मोक्खो ममयाय-गुत्तं २४२ समवाय-द्वादशांग Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तयेण घिइ-पणिय-वद्ध-कच्छण सोहणं तस्स यावि होज्जा। है, धृतिबल से कटिवद्ध तप द्वारा उसका शोधन भी हो सकता है। एत्तो य सुहविवागेसु सील-संजम णिय-गुण-तयोवहाणेमु सासु सुविहिए अणुकंपाऽऽसयप्पश्रोगतिफाल-मइविशुद्ध - भत्तपाणाई पयतमणसा हिय - सुहनोसेस-तिवपरिणाम-निन्छियमई-पयधिऊणं पसोगसुदाई जह य निव्वति उ बोहिलान । इधर सुखविपाक में शील, संयम, नियम, तप-उपधान में निरत सुविहित साधुओं के प्रति अनुकम्पा के आशय-प्रयोग एवं कालिक मतिविशुद्धि से भक्तपान/भोजनपानी मनोप्रयत्न, हित, सुख, निःश्रेयस्, तीन भाव-परिणाम एवं निश्चितमति से प्रयोगशुद्धि-पूर्वक देते है तथा जिस प्रकार भवपरिनिई त एवं वोधिलाभ प्राप्त करते है, उनका परिकीर्तन है। जह य परित्तोफरेंति नर-निरय तिरिय -सुरगतिगमण - विपुलपरियट्ट-प्रति-भय-विसायसोफ - मिच्छत - सेलसंकर्ड अण्णाणतमंधफार-चिपिखल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणि-संखुभियचफ्फवालं सोलसकसायसावय- पयंड-चंड - अणाइयंअगवदग्गं संसारसागरमिणं । इसमें नर, नारक, तिर्यञ्च और देवगति-गमन के लिए विपुल परिवर्त वाले, अरति, भय, विपाद, णोक और मिथ्यात्वरूपी शैलों से संकुल, अज्ञानरूपी अंधकार से परिपूर्ण, अत्यधिक सुदुस्तर, जरामरण और योनि से संक्षुब्ध चक्रवाल वाले, सोलह कपायरूपी अत्यन्त चण्ड / भयंकर श्वापदों/खूखार प्राणियों से युक्त अनादि-अनन्त संसार-सागर को जिस प्रकार सीमित करते हैं- उसका आख्यान जह य निबंधति पाउगं सुरगणंस, जह य अणुभवंति सुरगणविमाण - सोपखाणि प्रणोवमाणि, तमो य फालतरच्चुनाणं इहेव नरलोगमागयाणं जिस प्रकार देवलोक के लिए वे आयुप्य का वन्ध करते है, जिस प्रकार देवगण के विमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते है, वहां से कालान्तर में च्युत हो इसी समयाय-सुत्त २४३ समवाय-द्वादशांग Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राउ-वउ-वण्ण-रूच - जाइ कुल जम्म- श्रारोग - बुद्धि - मेहाविसेला मित्तजण सयणधण- घण्ण- विभव- समिद्धिसारबहुविहकाम समुदयमिसेसा भोगुवभवाण सोक्वाण सुहविवागोत्तमे । अणुवरयपरंपराणुवद्धा असुभाण सुभाण चैव कम्माण भासिया बहुविहा विवागा विवागस्य म्मि भगवया जिणवरेण संवेगकारणत्या | वि य एवमाइया, बहुविहा वित्यरेणं प्रत्यपरूवणया आधविज्जति । विवागसुस परिता वायगा सखेज्जा अणुग्रोगदारा संखेज्जा पडिवत्तीयो सखेज्जा वेढा संसेज्जा सिलोगा संखेज्जाश्रो निज्जत्ती संसेज्जाओ संगहो । से णं गट्टयाए एक्कारनमे अंगे वीसं प्रक्रयणा वीसं उद्देसणकाला वोसं समुद्देसणकाला संखेज्जाई पयलय सहस्साई पयगेणं, संसेज्जाई श्रवखराड प्रणता गमा, श्रणंता पज्जवा । समवाय-सुन २८८ मनुष्य-लोक में आकर आयु, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुल, जन्म, आरोग्य, वुद्धि और मेवा विशेष, मित्रजन, स्वजन, वनवान्य, वैभव, समृद्धि, सार-समुदय - विशेष तथा बहुविध कामभोगों से उद्भुत सुखों को उत्तम शुभ विपाक वाले जीव प्राप्त करते हैं— उनका ग्राख्यान है । संवेग / वैराग्य उत्पन्न करने के लिए भगवान् जिनवर द्वारा परम्परा से अनुवद्ध एवं अनुपरत अशुभ और शुभ कर्मों के बहुविध विपाक विपाकश्रुत में भापित हैं । ये तथा इसी प्रकार के अन्य बहुविध अयं इसमें विस्तार से आस्यान किये गये हैं । विपाकश्रुत की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयां संख्येय हैं । यह ग्रङ्ग की अपेक्षा से ग्यारहवां अंग है । इनके वीस अध्ययन, बीस उद्देशन-काल, वीस ममुद्देशन - काल पद - प्रमाण ने संख्य शत-सहन / लाख पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं। समवाय-द्वादगांग Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्ता तसा अणंता थावरा सासया फडा णिवद्धा रिएकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राघविज्जति पणविज्जति परूविज्जति दसिज्जति निदसिज्जति उवदसिज्जति । इसमें परिमित बस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिन-प्रजप्त भावों का पाख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। से रणं पाया एवं गाया एवं यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता विण्णाया एवं चरण - फरण है, इस प्रकार चरण-करण-प्ररूपरूवणया प्राधविज्जति पण्ण पणा का इसमें आख्यान किया विज्जति परूविज्जति दंसि- गया है, प्रज्ञापन किया गया है, ज्जंति निदंसिज्जति उवदंसि- प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया ज्जति । गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्णशन किया गया है। सेत्तं विवागसुए। यह है वह विपाकश्रुत । १३. से कि तं दिट्ठिवाए ? १३. वह दृष्टिवाद क्या है ? दिद्विवाए णं सव्वभावपरू- दृष्टिवाद में सर्व भाव प्ररूपणा वणया प्राधविज्जति । से समा- का आख्यान है । वह संक्षेप में पांच सो पंचविहे पण्णत्ते, तं प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे किजहा १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, परिकम्मं सुत्ताई पुत्वगयं ४. अनुयोग, ५. चूलिका। अणुप्रोगे चूलिया। १४. से किं तं परिकम्मे ? १४. वह परिकर्म क्या है ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णते, परिकर्म सात प्रकार का प्रज्ञप्त तं जहा है, जैसे किसिद्धसेणिया-परिकम्मे १. सिद्धश्रेणिका परिकर्म मणुस्ससेरिणया-परिकम्मे २. मनुष्यश्रेणिका परिकर्म पुट्ठसेणिया-परिकम्मे ३. स्पृष्टश्रेरिणका परिकर्म प्रोगाहणसेरिणया-परिफम्मे ४. अवगाहनश्रेणिका परिकर्म उवसंपज्जरासेणिया-परिकम्मे ५. उपसंपादनश्रेरिणका परिकर्म समवाय-मुत्तं २४५। समवाय-द्वादशांग . . " Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. विप्रहाणश्रेरिणका परिकर्म ७. च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म १५. वह सिद्धश्रेणिका परिकर्म क्या विप्पजहणसेणिया-परिकम्मे चुयाचुयसेणिया-परिकम्ममे । १५. से कि तं सिद्धसेणियापरि कम्मे ? सिद्धसेणिया-परिकम्मे चोद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहामाउयापयाणि, एगट्टियपयाणि, अटुपयाणि, पाढो, पागासपयाणि, केउभूयं, रासिवद्ध, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, सिद्धावत्तं । सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? १६. से कि तं मणुस्ससेरिणया परिकम्मे चोद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-- माउयापयाणि, एगट्टियपयाणि, अट्ठपयाणि, पाढी, मागासपयाणि, केउभूयं, रासिबद्ध, एगगुणं, दुगुणं, तिगुरणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावतं, मणुस्सावतं। सिद्धश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का प्रज्ञप्त है। जैसे कि१. मातृकापद, २. एकाथिकपद, ३.अर्थपद, ४. पाठ, ५.आकाशपद, ६. केतुभूत, ७. राशिबद्ध, ८. एकगुण, ६. द्विगुण, १० त्रिगुण, ११. केतुभूतप्रतिग्रह, १२. संसारप्रतिग्रह, १३. नन्द्यावर्त, १४. सिद्धावर्त । यह है वह सिद्धश्रेणिका परिकर्म । १६. मनुष्यश्रेणिका परिकर्म क्या है ? मनुप्यश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि१. मातृकापद, २. एकाथिक्रपद, ३. अर्थपद, ४. पाठ, ५. आकाशपद, ६. केतुभूत, ७. राणिपद, ८. एकगुण, ६. द्विगुरण, १०.त्रिगुण, ११. केतुभूतप्रतिग्रह, १२. संसार-प्रतिग्रह, १३ नन्द्यावर्त, १४. मनुष्यावर्त । यह है वह मनुष्यश्रेणिका परिकर्म । १७. वह स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म क्या सेत्तं मणस्ससेणियापरिकम्मे । १७. से कि तं पुट्ठसेणिया-परिकम्मे ? पुट्ठसेणिया-परिफम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, तं जहा पाढो, पागासपयाणि, केउभूयं, रासिवद्धं, एगगुण, दुगुणं, तिगुणं, केन्यपडिग्गहो, संसारपडि स्पृप्टश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का प्रजप्त है । जैसे कि१. पाठ, २. आकाशपद, ३. केतुभून, ४. राशिवद्ध, ५. एकगुग्गा, ६. द्विगुण, ७, त्रिगुण, ८. केतु ममवाय-गुत्तं २४६ समवाय-द्वादशांग Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहो, नंदावत्तं, पुट्ठावत्तं । भूतप्रतिग्रह, ६. संसारप्रतिग्रह, १०. नन्द्यावर्त, ११. स्पृष्टावर्त । यह है वह स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म । सेत्तं पुट्ठसेणिया परिकम्मे । १८. से कि तं प्रोगाहणसेणिया-परि कम्मे ? ओगाहणसेणिया-परिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, तंजहापाढो, पागासपयाणि, केउभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिगहो, नंदावतं, पोगाहणावत्तं। १८. वह अवगाहनश्रेणिका परिकर्म क्या है? अवगाहनश्रेणिका-परिकर्म ग्यारह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि१. पाठ, २. आकाशपद, ३. केतुभूत, ४. राशिबद्ध, ५. एकगुण, ६.द्विगुण, ७. त्रिगुण, ८. केतुभूतप्रतिग्रह, १०. संसारप्रतिग्रह, ११. नन्द्यावर्त । यह है वह अवगाहनश्रेणिका परिकर्म। सेत्तं प्रोगाहणसेणियापरिकम्मे । १९.से किं तं उवसंपज्जणसेणिया परिकम्मे ? उवसंपज्जणसेरिणयापरिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, तंजहा-- पाढो, पागासपयाणि, केउभूयं, . रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, उवसंपज्जणावत्तं । १९. वह उपसंपादनश्रेणिका-परिकर्म क्या है ? उपसंपादनश्रेणिका-परिकर्म ग्यारह प्रकार का प्रज्ञप्त है। जैसे कि१. पाठ, २. प्राकाणपद, ३. केतुभूत, ४. राशिवद्ध, ५. एकगुण, ६. द्विगुण, ७. त्रिगुण, ८. केतुभूतप्रतिग्रह, ६. संसारप्रतिग्रह १०. नन्द्यावर्त, ११. उपसंपादनावर्त । यह है वह उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म। सेत्तं उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे । २०. से कि तं विष्पजहणसेणिया- परिकम्मे ? विप्पजहरणसेणिया-परिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, तंजहा २०. वह विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म क्या है ? विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि समवाय-सुत्तं २४७ समवाय-द्वादशांग Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाढो, पागासपयाणि, केभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिगहो, नंदावत्तं, विप्पजहणावत्तं । १. पाठ, २. आकाशपद, ३. केतुभूत, ४. राशिवद्ध, ५. एकगुण, ६. द्विगुण, ७. त्रिगुण, ८. केतुभूतप्रतिग्रह, ६. संसारप्रतिग्रह, १०. नन्द्यावर्त, ११. विप्रहाणावर्त । यह है वह विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म। सेत्तं विप्पजहणसेणियापरिकम्मे । २१. च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म क्या २१. से किं तं चुयाचुयसेणियापरि कम्मे ? चयाचयसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते, तं जहापाढो, पागासपयाणि, केउभूयं, रासिवद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, .संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, चुयाच्यावत्तं । च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ग्यारह • प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि१. पाठ २. अाकाशपद ३. केतुभूत ४. राशिवद्ध ५. एकगुण ६. द्विगुण ७. त्रिगुण ८. केतुभूत-प्रतिग्रह ६. संसारप्रतिग्रह १०. नंद्यावर्त ११. च्युताच्युतावर्त । यह है वह च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म। सेत्तं चुयाचुयसेणिया-परिकम्मे । २२. इच्चेयाई सत्त परिकम्माई छ ससमइयाणि सत्त आजीवियाणि, छ चउक्कणइयाणि सत्त तेरासियाणि । एवामेव सपुत्वावरेणं सत्त परिकम्माई तेसीति भवंतीतिमक्खायाई । २२. ये सात परिकर्म हैं-छह स्व समय से और सातवां आजीवक मत से सम्बद्ध है। छह परिकर्म चार नय वाले हैं और सातवां तीन राशि/तीन नय वाला है। इस प्रकार कुल मिलाकर इन सात परिकर्मों के तिरासी भेद होते हैं । यह है वह परिकर्म। सेत्तं परिकम्मे । २३. से कि तं सुत्ताई? सुताई अट्ठासोतिभवंतीतिमक्यायाई तं जहा २३. वह सूत्र क्या है ? सूत्र अट्टासी होते हैं, ऐसा पाख्यात है। जैसे कि--- ममवाय-सुतं २४८ समवाय-हादशांग Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणयापरिणयं, उज्जुगं, बहुभंगियं, विजयचरियं श्ररणं तरं, परंपरं, सामाणं, संजू, भिण्णं, श्रहच्चायं, सोवथित्यं, घंटे, नंदावत्तं, बहुलं, पुट्ठापुट्ठे, विद्यावत्तं, एवंभूयं, दुश्रावत्तं, वत्तमाणुप्पयं, समभिरूढं, सन्वनोभद्दं, पण्णासं, दुपडि - हं । २४. इच्चेयाई बावीसं सुताई छिछ्रेयनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए । इच्याई बावीसं सुताई प्रच्छिण्णछेयनइयाणि श्राजी विय सुत्तपरिवाडीए । इच्चेयाई बावीस सुत्ताई तिकनइयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए । इच्चेयाइं बावीसं सुत्ताइं चउक्कनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए । एवामेव सपुव्वावरेणं श्रट्ठासीति सुत्ताई भवतीतिमवखायाणि । सेत्तं सुताई । २५. से कि तं पुत्र गए ? पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा- समवाय-सुतं २४६ १. ऋजुक, २. परिणतापरिगत, ३. बहुभंगिक, ४. विजयचरित, ५. अनन्तर, ६. परम्पर, ७. सत्, ८. संयूथ, 8. भिन्न, १०. यथात्याग, ११. सौवस्तिक घंट, १२. नन्द्यावर्त, १३. बहुल, १४. पृष्टापृष्ट, १५. व्यावर्त, १६. एवंभूत, १७. द्विकावर्त, १८. वर्तमानपद, १६. समभिरूढ, २०. सर्वतोभद्र, २१. पन्न्यास, २२. द्विप्रतिग्रह | २४. ये बाईस सूत्र स्व-समय- सूत्र की परिपाटी / परम्परा के अनुसार छिन्नछेदनयिक हैं । ये वाईस सूत्र आजोवक सूत्र की परिपाटी के अनुसार प्रच्छिन्नछेदनयिक हैं । ये वाईस सूत्र त्रैराशिक -सूत्र की परिपाटी के अनुसार त्रिक-नयिक हैं । ये बाईस सूत्र स्व-समय-सूत्र की परिपाटी के अनुसार चतुष्कनयिक हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर ग्रट्ठासी सूत्र हैं । यह है वह सूत्र | २५. वह पूर्वगत क्या है ? पूर्वगत चौदह प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि -- समवाय-द्वादशांग Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पायपुवं, अग्गेणीयं, वोरियं, अत्यिणस्थिप्पवायं, नाणप्पवायं, सच्चप्पवायं, आयप्पवायं, कम्मप्पवायं, पच्चक्खाणं, विज्जाणुप्पवाय, अवंझ, पाणाउं, किरियाविसालं, लोगबिदुसारं । २६. उप्पायपुवस्स णं दस वत्यू, चत्तारि चूलियावत्यू पण्णत्ता । १. उत्पादपूर्व, २. अग्रेणीय, ३. वीर्य, ४. अस्ति-नास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ६. प्रत्याख्यान, १०. विद्यानुप्रवाद, ११. अवंध्य, १२. प्राणायु, १३. क्रियाविशाल, १४. लोकबिन्दुसार। २६. उत्पाद-पूर्व के दस 'वस्तु एवं चार ___ चूलिका-वस्तु प्रज्ञप्त हैं। २७. अग्गेणियस्स णं पुव्वस्त चोइस वत्यू, बारस चूलियावत्यू पण्णत्ता। २७. अनेणीय-पूर्व के चौदह वस्तु एवं वारह चूलिका-वस्तु प्रजप्त हैं। २८. बोरियस्स रां पुत्वस्स अट्ठ वत्यू, अट्ठ चूलियावत्यू पण्णत्ता। २८. वीर्य-पूर्व के आठ वस्तु एवं पाठ चूलिका-वस्तु प्रज्ञप्त हैं । २६. अत्थिणत्थिप्पवायरस णं पुवस्स अट्ठारस वत्यू, दस चूलियावत्यू २६. अस्ति-नास्तिप्रवाद पूर्व के अट्ठारह वस्तु एवं दस चूलिका-वस्तु प्रज्ञप्त पण्णत्ता। ३०. नारणप्पवायस्स णं पुस्वस्स वारस वत्यू पण्णत्ता। ३०. ज्ञानप्रवाद-पूर्व के बारह वस्तु प्रज्ञप्त हैं। ३१. मत्यप्रवाद-पूर्व के दो वस्तु प्रज्ञप्त ३१. सच्चापवायरस णं पुन्वस दो वत्यू पण्णत्ता। ३२. पायप्पवायरस रणं पुवस्स सोलस वत्यू पण्णत्ता। ३२. प्रात्मप्रवाद-पूर्व के सोलह वस्तु प्राप्त हैं । ३३. कर्मप्रवाद-पूर्व के तीस वस्तु प्राप्त ३३. कम्मप्यवायरस जं पुवस्स तीसं वत्यू पष्णता। ३४. पच्चरखाणसणं पुथ्वस्त वीतं बत्य पणत्ता। ३४. प्रत्याभ्यान-पूर्व के बीस वस्तु प्राप्त है । ममयाय गुतं २५० समवाय-वादगांग Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. विज्जाणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पनरस वत्थू पण्णत्ता । ३६. अवस्स वत्थू पण्णत्ता । पुव्वस्स बारस ३७. पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता । ३८. किरिया विसालस्स णं पुव्वस्स तसं वत्थू पण्णत्ता । ३६. लोर्याबंदुसारस्स रणं पुव्वस्स पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता । सेत्तं पुब्वगए । ४०. से कि तं श्रणुनोगे ? अणुप्रो जहा - मूलपढमाणुश्रोगे य गंडियाणुश्रोगे य । दुविहे पण्णत्ते, तं ४१. से किं तं मूल पढमाणुप्रोगे ? समवायत्तं मूलपढमाणुओगे -- एत्थ श्ररहंताणं भगवंताणं पुख्वभवा, देवलोगगमणाणि श्राउं, चवणाणि, जम्मणाणि य श्रभिसेया रायवरसिरीश्रो, सीयाश्री. पव्वज्जाश्रो, तवा य भत्ता, केवलणाणुप्पाया, तित्थपवत्तपाणि य, संघयणं, सठाणं, उच्चत्तं, श्राउयं, वण्णविभागो, सीसा, गणा, गणहरा य, प्रज्जा, पवत्तिणीनो, संघस्स व्हिस जं वावि परिमाणं, ३५. विद्यानुप्रवाद-पूर्व के पन्द्रह वस्तु प्रज्ञप्त हैं । २५१ ३६. अवन्ध्य-पूर्व के बारह वस्तु प्रज्ञप्त है । ३७. प्रारणायु-पूर्व के तेरह वस्तु प्रज्ञप्त हैं । ३८. क्रियाविशाल - पूर्व के तीस वस्तु प्रज्ञप्त हैं । ३६. लोकबिन्दुसार - पूर्व के पच्चीस वस्तु प्रज्ञप्त हैं । यह है वह पूर्वगत | ४०. वह अनुयोग क्या है ? अनुयोग दो प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे कि - मूलप्रथमानुयोग और कंडिकायोग । ४१. वह मूलप्रथमानुयोग क्या है ? मूलप्रथमानुयोग में अर्हत् भगवान् के पूर्वभव, देवलोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्य लक्ष्मी, शिविका, प्रव्रज्या, तप और भक्त, केवल- ज्ञानोत्पत्ति, तीर्थप्रवर्तन, संहनन, संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य, उच्चत्व, आयुष्य, वर्णविभाग, शिष्य, गण, गणधर, श्रार्या प्रवर्तनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, जिन मन: पर्यंव, अवधिज्ञान, सम्यक्त्व, श्रुतज्ञानी, वादी, जिन्होंने अनुत्तर गति पाई समवाय- द्वादशांग Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिण- मणपज्जव- मोहिनाणी, समत्तसुयनाणिणो य, वाई, अणुत्तरगई य जत्तिमा, जत्तिया. सिद्धा, पानोवगया य जे जहि जत्तियाई भत्ताइं छेयइत्ता अंतगडा मुरिगवरत्तमा तमरोघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं य पत्ता। है, जितने सिद्ध हुए हैं, जिन्होंने प्रायोपगमन अनशन किया है तथा जितने भक्तों/भोजन-समयों का छेदन कर जो उत्तम मुनिवर अन्तकृत / मोक्षगामी हुए हैं, तम और रज से विमुक्त होकर अनुत्तर मिद्धि-पथ को प्राप्त हुए हैं उनका पात्यान है। एए अण्णे य एवमादी भावा मूलपढमाणुनोगे कहिया आघविज्जंति पण्णविनंति परूविज्जति दसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । ये तथा इस प्रकार के अन्य भावों का मूलप्रथमानुयोग में कथित आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह मूलप्रथमानुयोग । सेत्तं मूलपडमाणुनोगे। ४२. ते कि तं गंडियाणुनोगे ? गंडियाणुप्रोगे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाकुलगरगंडियानो, तित्वगरगडियानो, गणघरगंडियानो, चरकट्टिगडियानो, दसारगंडियानो, बलदेवगठियायो, वासुदेवगंडियानो, हरिवंसगंटियानो, भद्दवाहगंडियाग्रो, तवोकम्मगंडियानो, चित्तंतरगडियानो, उत्सप्पिणीगंडियानो, अमर-नर-तिरिय-निरय गइ-गमण-विविह-परिपट्टणाणुयोगे. एवमाइयानो गंडियानो मायिजति पविजेति ४२. वह कण्डिकानुयोग क्या है ? कण्डिकानुयोग अनेकविध प्राप्त है। जैसे किकुलकरकण्डिका, तीर्यकरकण्डिका, गणधरकण्डिका, चक्रवर्तीकण्डिका, दगारकण्डिका, वलदेवकण्डिका, वासुदेवकण्डिका, हरिवंशकण्डिका, भद्रबाहुकण्डिका, तपःकर्मकण्डिका, वित्रतरकण्डिका, उत्सपिणीकण्डिका, अवसर्पिणीकण्डिका, देव, मनुग्य, तिर्यञ्च और नरक गति में गमन तथा विविध परिवर्तन का अनुयोग ग्रादि कंडिकाओं का अान्यान किया गया है, प्रनापन किया गया है, प्ररूपण किया गया सम्पवय-गुन २५२ समवाय-द्वादशांग Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसिज्जंति परुविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं गंडियाओगे ? ४३. से कि तं चूलियानो ? चूलिया - श्राइल्लारणं चउन्हेंपुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुन्वाई अचूलियाई । सेत्तं चूलिया । ४४. दिट्टिवायरस गं परिता वायणा संखेज्जा श्रणुओोगदारा संखेज्जाश्री पडिवत्तोश्री संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाश्रो निज्जत्ती संखेज्जायो संगहणी । सेणं अंगाए बारसमे अंगे एगे सुखंधे चोट्स पुन्वाई संखेज्जा वत्यू संखेज्जा चूलवत्थू संखेज्जा पाहुडा संखेज्जा पाहुडपाहुजा संखेज्जाश्रो पाहुडिया संखेज्जा पाहुडपाहुडिया संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं, संखेज्जा श्रवरा श्रणंता गमा अनंता पज्जवा । परिता तसा श्रणंता थावरा सासया कडा णिवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा श्राघविज्जंति परगविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसि समवाय-सुतं २५३ है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । यह है वह कंडिकानुयोग | ४३. वह चूलिका क्या है ? प्रथम चार पूर्वो में चूलिकाएं हैं, शेप पूर्वी में चूलिकाएँ नही हैं । यह है वह चूलिका । ४४. दृष्टिवाद की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयाँ संख्येय हैं । यह अंग की अपेक्षा से बारहवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, चौदह पूर्व, संख्येय वस्तु, संख्येय चूलिका वस्तु, संख्येय प्राभृत, संख्येय प्राभृत-प्राभृत, संख्येय प्राभृतिका, संख्येय प्राभृत- प्राभृतिका, पद - प्रमारण से संख्येय शत - सहस्र / लाख पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय है । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निवद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, समवाय-द्वादशांग Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जति उवदंसिज्जति । प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। ते एवं पाया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरण-करणपरूवयणा प्राधविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । यह आत्मा है, ज्ञाता है, विज्ञाता है, इस प्रकार चरण-करण-प्ररूपणा का इसमें आख्यान किया गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है। यह है वह दृष्टिवाद । यह है वह द्वादशांग गणिपिटक । सेत्तं दिटिवाए। सेत्तं दुवालसगे गणिपिडगे। ४५. अतीत काल में अनन्त जीवों ने इस द्वादशांग गणिपिटिक की आज्ञा की विराधना कर चातुरंत संसारकांतार में अनुपर्यटन किया। ४५. इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा पारगाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिर्यादृसु । इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं पड़प्पण्णे काले परित्ता जीवा प्राणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियति । इच्चेयं दुवालसंग गणिपिडग अणागए काले अरणंता जीवा प्राणाए विराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सति । वर्तमान काल में परिमित जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा की विराधना कर चातुरंत संसारकांतार में अनुपर्यटन करते हैं। भविष्य काल में अनन्त जीव इस द्वादशांग गरिणपिटिक की आज्ञा की विरावना कर चातुरंत संसारकांतार में अनुपर्यटन करेंगे। ४६. इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं प्रतीते काले प्रणेता जीवा प्राणाए पाराहेत्ता चाउरंतं संसारकतार विश्वईमु । ४६. अतीत काल में अनन्त जीवों ने इस द्वादशांग गरिणपिटक की आज्ञा की पाराधना कर चातुरंत संसारकांतार को पार किया था। समपाय-मुन २५४ समवाय-द्वादशांग Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्चे दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा प्राणाए पाराहेत्ता चाउरतं संसारकतारं विइवयंति । इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं प्रणागए काले अणंता जीवा प्राणाए पाराहेत्ता चाउरतं संसारकतारं विइवइस्संति । वर्तमान काल में परिमित जीव इस द्वादशांग गरिणपिटक की आज्ञा की अाराधना कर चातुरंत संसारकांतार को पार करते हैं। भविष्य काल में अनन्त जीव इस द्वादशांग गरिणपिटक की आज्ञा की आराधना कर चातुरंत संसार कांतार को पार करेंगे। ४७. यह द्वादशांग गणिपिटक न कभी था-ऐसा नहीं है, न कभी हैऐसा नहीं है, न कभी होगाऐसा भी नहीं है । वह था, है और होगा-ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य। ४७. दुवालसंगे णं गणिपिडगे रण कयाइ णासी, ण कयाइ पत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ । मुवि च, भवइ य, भविस्सति यधुवे णितिए सासए अक्खए अन्वए अवट्ठिए णिच्चे। ४८, जैसे पांच अस्तिकाय कभी नहीं थे -ऐसा नहीं है, कभी नहीं है-~ऐसा नहीं है, कभी नहीं होंगेऐसा भी नहीं है। वे थे, हैं और होंगे--ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य । ४८. से जहाणामए पंच अस्थिफाया रए कयाइ ण पासी, रण कयाइ पत्थि, ण कयाइ ण भविस्संति । भुवि च, भवइ य, भविस्संति य । धुवा णितिया सासया अक्खया अव्वया प्रवटिया णिच्चा। एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण प्रासी, ण कयाइ णस्थि, ण कयाइ रण भविस्सइ । भुवि च, भवइ य, भविस्सइ य। धुवे णितिए सासए अक्खए अवए अवहिए णिच्चे। इसी प्रकार द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था-ऐसा नहीं है, कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा-ऐसा भी नहीं है । वह था, है और होगा-ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य । ४६. एत्य रणं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा अणंता अभावा ४६. इस द्वादशांग गरिणपिटक में अनन्त भावों, अनन्त अभावों, अनन्त समवाय-द्वादशांग २५५ समवाय-सुतं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंता हेऊ अनंता अहेऊ प्रणता कारणा श्रांता जीवा श्रणंता अजीवा श्रणंता भवसिद्धिया अरांता अभवसिद्धिया अणंता सिद्धा श्ररगंता प्रसिद्धा श्राघविज्जंति पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । ममवाय-मुत २५६ हेतु प्रों, अनन्त श्रहेतुयों, प्रनन्त कारणों, अनन्त अकारणों, अनन्त जीवों, अनन्त जीवों, अन्नत भवसिद्धिकों, अनन्त प्रभवसिद्धिकों, अनन्त सिद्धों, अनन्त असिद्धों का ग्राख्यान गया है, प्रज्ञापन किया गया है, प्ररूपण किया गया है, दर्शन किया गया है, निदर्शन किया गया है, उपदर्शन किया गया है । समवाय-द्वादशांग Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्याइ-समवाय प्रकीर्ण-समवाय १. दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहा जीवरासी अजीवरासी य । २. जीवरासी दुविहा पण्णत्ता। तं जहासंसारसमावन्नगा य प्रसंसारसमावन्नगाय। १. राशि दो प्रज्ञप्त हैं। जैसे कि जीव राशि और अजीव राशि । २. जीव-राशि द्विविध प्रज्ञप्त है । जैसे किसंसार-समापन्नक/सांसारिक जीव और असंसार-समापन्नक / मुक्त जीव । ३. अजीव-राशि द्विविध प्रज्ञप्त है । जैसे किरूपी-अजीव-राशि और अरूपीअजीव-राशि। ३. अजीवरासी दुविहे पण्णत्ते, तं रूविप्रजीवरासी अरूविग्रजीवरासि य । ४. से कि त अरूविग्रजीवरासी? प्रहविग्रजीवरासी दसविहे पण्णत्ते, तं जहा--- १. धम्मत्यिकाए, २. धम्मस्थिकायस्स देसे, ३. धम्मस्थिकायस्स पदेसा, ४. अधम्मस्थिकाए, ५. अधम्मत्थिकायस्स देसे, ६. अधम्मस्थिकायस्त पदेमा, ७. मागासस्थिकाए, ८.प्रागासस्थिकायस्स देसे, ६. प्रागासत्यिकायस्स पदेसा, १०. प्रद्धासमए । ५. से कि तं अणुत्तरोक्वाइमा ? ४. वह अरूपी अजीव-राशि क्या है ? अरूपी अजीव-राशि दस प्रकार की प्राप्त है। जैसे कि१. धर्मास्तिकाय, २. धर्मास्तिकाय-देश, ३. धर्मास्तिकाय-प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. अधर्मास्तिकाय-देश, ६. अधर्मास्तिकाय-प्रदेश, ७. आकाशास्तिकाय, ८. आकाशास्तिकाय-देश, ६. आकाशास्तिकाय-प्रदेश, १०. अध्वा समय। ५. अनुत्तरोपपातिक देव कितने है ? समवाय-सुत्तं २५७ २५७ समवाय-प्रकीर्ण Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुत्तरोववाइमा पंचविहां पण्णता, तं जहाविजय- वेजयंत-जयंत - अपराजिय-सन्वट्ठसिद्धिया। सेत्तं अणुत्तरोववाइया। सेत्तं पंचिदियसंसारसमावण्णजीवरासी। अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं । जैसे किविजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिक । ये अनुत्तरोपपातिक देव हैं । यह पंचेन्द्रिय-संसार-समापन्न-जीव राशि है । ६. नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। जैसे किपर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार वैमानिक तक के दण्डकों के लिए यही पतिपाद्य है । ६. दुविहा गैरइया पण्णता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य । एवं दंडनो भणियन्वो जाव वेमाणियत्ति। ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने नरक और कितना अवगाहन प्रज्ञप्त है ? ७. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए केवइयं प्रोगाहेत्ता केवइया णिरया पण्णत्ता। गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहेता हेढा चेगंजोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ रणं रयणप्पहाए पुढवीए जेरइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक शत-सहस्र/लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण वाहल्य से ऊपर एक हजार योजन का अवगाहन कर एवं नीचे से एक हजार योजन का वर्जन कर, मध्य के एक शतसहस्र/लाख अठत्तर हजारं योजन प्रमाण रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिकों के तीस शत-सहत्र/लाख नरकावास होते हैं, ऐसा व्याख्यात करता हूँ। वे नरक अन्तर् में वृत्त, वाहर में चतुरस्र / चतुष्कोण और नीचे क्षुरप्र-संस्थानों से संस्थित, अन्धकार से नित्य तमोमय, ग्रह, चन्द्र, समवाय-प्रकीर्ण ते णं गरया अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्प-संठाणसंठिया णिच्चंधयारतमसा-ववगयगह-चंद-सूर-णक्खत्त-जोइस समयाय-मुत्तं २५८ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा मेद-वसा-पूय-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणु - लेवणतला असुई वीसा परमदुन्भिगंधा काऊअगणि-वण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुहा णिरया असुहायो रणरएसु वेयणायो। ८. एवं सत्तवि भणियन्वानो जं जासु जुज्जइ । पासीयं वत्तीसं, अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं, अत्तरमेव बाहल्लं ।। सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष की प्रभा से शून्य, मेद, चर्वी, मवाद, रुधिर और मांस के कीचड़ से अनुलिप्त तल वाले, अशुचि, विष्टा-युक्त, अत्यन्त दुर्गन्ध वाले, कापोतअग्निवर्ण की आभा वाले, कर्कशस्पर्श वाले और अत्यधिक असह्य है। वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं ।। ८ इसी प्रकार सातों नरकों के बारे में जहां जो उपयुक्त हो, कहना चाहिए। [सप्त] नरकावासों का वाहल्य क्रमशः [एक लाख ] अस्सी हिजार], [एक लाख] बत्तीस [हजार], [एक लाख] अट्ठाईस [हजार], [एक लाख] बीस [हजार], [एक लाख] अठारह [हजार], [एक लाख] सोलह [हजार] और [एक लाख] आठ [हजार योजन है। [नरकावासों की संख्या क्रमशः इस प्रकार हैतीस शत-सहस्र/लाख, पच्चीस शत-सहस्र/लाख, पन्द्रह शत-सहन/ लाख, दस शत-सहस्र/लाख, तीन शत-सहल/लाख, निन्यानवे हजार नौ सौ पंचानवे और पांच अनुत्तर नरकावास। तीसा य पण्णवीसा, पण्णरस दसेव सयसहस्साई। तिपणेगं पंचूणं, पंचेव अणुत्तरा गरगा॥ ६. सत्तमाए णं पुढवीए केवइयं प्रोगाहेत्ता केवइयर णिरया पण्णता ? ६. सातवीं पृथ्वी में कितने नरक और कितना अवगाहन प्राप्त है ? समवाय-सुत्तं २५६ २५९ समवाय-प्रकीर्ण Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम ! सातवीं पृथ्वी के शतसहस्र/एक लाख आठ हजार योजन प्रमाण वाहल्य से ऊपर साढ़े बावन हजार योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से साढ़े बावन हजार योजन का वर्जन कर तथा मध्य के तीन हजार योजन में सातवीं पृथ्वी के नैरयिकों के अनुत्तर तथा बहुत विशाल पांच महानरकावास हैं। जैसे कि गोयमा ! सत्तमाए पुढवीए अठ्ठत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि पद्धतेवणं जोयणसहस्साई प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वि अद्धतेवणं जोयरणसहस्साई वज्जेता मझे तिसु जोयणसहस्सेसु, एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुतरा महइमहालया महाणिरया पण्णता, तं जहाकाले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे नामं पंचमए । ते णं नरया वट्टे य तंसा य अहे खुरप्प-संठाण-संठिया पिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूर-णक्खत्त-जोइसपहा मेदवसा-पूय-रुहिर-मंस-चिक्खिल्ललित्ताणु-लेवणतला असुई वीसा परमभिगंधा काऊअगणिवण्णाभा करखडफासा दुरहियासा असुहा नरगा असुहाम्रो नरएसु वेयणाम्रो। काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वे नरक वृत्त, त्रिकोण एवं नीचे क्षुरप्र-संस्थानों से संस्थित हैं। वे अन्धकार से नित्य तमोमय, ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष की प्रभा से शून्य, मेद, चर्वी, मवाद, रुधिर मांस के कीचड़ से अनुलिप्त तल वाले, अशुचि, विप्टायुक्त, अत्यन्त दुर्गन्ध वाले, कापोत अग्निवर्ण की आभा वाले, कर्कणस्पर्ण वाले और अत्यधिक असह्य हैं। वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। १०. केवइया णं मते ! असुरकुमारा वासा पण्णता? गोयमा ! इमोसे णं रयरगप्पहाए पुढवीए असोउत्तरजोयणसयसहस्हवाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मझे १०. भंते ! अमुरकुमारों के आवास कितने प्रजप्त हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक शत-सहस्र/लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण वाहल्य से ऊपर एक हजार योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से एक हजार योजन २६० समवाय-प्रकीर्ण पा-सुत्त Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ गं रयणप्पहाए पुढवीए चउट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। का वर्जन कर मध्य के एक शत-सहस्र/लाख अठत्तर हजार योजन रत्नप्रभा पृथ्वी में असुरकुमारों के चौसठ शत-सहस्र/लाग्य आवास हैं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पोक्खर-कणियासंठाण-संठिया उक्किण्णंतरविपुल - गंभीर-खात - फलिया अट्टालय • चरिय - दारगोउरकवाड-तोरण-पडिदुवार-देसभागातमुसल मुसुढि-सतग्धिपरिवारिया प्रउज्झा अडयालकोट्ठय रइया अडयाल-कयवणमाला लाउल्लोइय-महिमा गोसीस सरसरत्तचंदण - दद्दरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुदुरुपक - तुरुक्क-डझंतधूव-मघमघेत-गंधुधुयामिरामा सुगंधि-वरगंध-गंधिया गंधवट्टि-. भूया अच्छा सहा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पहा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । वे भवन बाहर से वृत्त, भीतर से चतुरस्र चतुष्कोण, नीचे से पुष्करकरिणका संस्थानों से संस्थित हैं। वे खोद कर बनाई हुई विपुल और गम्भीर खाई तथा परिखा-युक्त, देश-भाग में अट्टालक, चरिका, गोपुर-द्वार, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार वाले, यंत्र, मुशल, मुसुढी और शतघ्नी से परिपाटित, अयोध्य / अपराजित, अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस प्रकार की वनमालाओं से युक्त, रंग-उपलेपित, गोशीर्प और सरस-रक्तचन्दन के पांच अंगुली-युक्तं हस्ततल के सघन छापे लगे हुए, कालागुरु, प्रवर कुन्दुरुष्क (धूप) तथा तुरुष्क (दशांग घूप) के जलने से निकले हुए धुए के महकते गन्ध से अभिराम, सुगन्धो चूर्णो से सुगन्धित गन्धगुटिका जैसे, स्वच्छ, चिकने, घुटे हुए, घिसे हुए, प्रमाजित, नीरज, निर्मल, तिमिर-रहित, विशुद्ध, प्रभासहित, मरिचि-युवत, उद्योतयुक्त, आनन्दकर, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। ११. एवं जस्स जं कमए तं तस्स, ११. इसी प्रकार जिसके बारे में जहां समवाय-प्रकीर्ण समवाय-सुत्तं २६१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं जं गाहाहि भणियं तह चैव वण्णो जो कथ्य हो, उनका वहां-वहां गाथाओं से कहना चाहिए और उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए। । चउसही असुराणं, चउरासीइं च होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्नाणं, वायुकुमाराण छष्णति ॥ असुरकुमारों के चौसठ [लाख], नागकुमारों के चौरासी [लाख], सुपर्णकुमारों के बहत्तर [लाख] और वायुकुमार के छानवे [लाख] आवास हैं। दीवदिसाउदहोणं, विज्जुकुमारिदरिणयमग्गीणं । छहंपि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ दीप, दिशा, उदधि विद्युत, स्तनित और अग्नि-इन छह युगलों के छिहत्तर-छिहत्तर शत-सहस्र/लाख आवास हैं। १२. केवइया णं भंते ! पुढवी काइयावासा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा पुढवीकाइया वासा पण्णत्ता। १२. भंते ! पृथ्वीकाय के आवास कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! पृथ्वीकाय के प्रावास असंख्य प्रजप्त हैं। १३. एवं जाव मणुस्सत्ति। १३. इसी प्रकार मनुप्य तक के आवास प्राप्त हैं ? १४. केवइया णं मंते ! वाणमंतरा वासा पण्णता? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पहाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सवाहल्लस उरि एग जोयरणसयं प्रोगाहेता हेठा वेगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अहसु जोषणएस, एत्य गं वारणमंतराणं देवाणं तिरियमसंसज्जा १४. भंते ! वानमन्तर देवों के आवास कितने प्रजप्त हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नमय काण्ड के एक हजार योजन प्रमाण बाहल्य (मोटाई) से ऊपर एक सो योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से सो योजन का वर्जन कर मध्य के शेप आठ सौ योजन में वानमंतर देवों के असंख्य शतमहन्न/लाख तिरछे भौमेय नगरा समवाय-मुतं ૨૬૨ समवाय-प्रकीर्ण Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास प्रज्ञप्त हैं। मोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ते गं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा, एवं जहा भवरणवासीणं तहेव नेयच्या, नवरं-पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । वे भौमेय नगर वाहर से वृत्त, भीतर से चतुरस्र/चतुष्कोण और जैसा भवनवासियों का है, वैसा ही ज्ञातव्य है। वे पताका की माला से आकुल, सुरम्य, प्रासादीय/मानन्दकर, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १५. भंते ! ज्योतिष्क देवों के विमाना वास कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्वे योजन ऊपर जाने पर वहां एक सौ दस योजन के वाहल्य में तिरछे ज्योतिष्क क्षेत्र में ज्योतिष्क देवों के असंख्य ज्योतिष्क विमानावास प्रज्ञप्त हैं। १५. केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जारो भूमिभागानो सत्तनउयाई जोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता, एत्य णं दसुत्तरजोयणसयवाहल्ले तिरियं जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा पण्णत्ता। ते जं जोइसियविमारणावासा अभुग्गयमूसियपहसिया विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्धयविजय-वेजयंती-पडाग-छत्तातिछत्तकलिया, तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितन्व मरिण-कणगथभियागा विगसिय-सयपत्तपुंडरीय - तिलय - रयणड्डचंदचित्ता अंतो बहिं च सहा तवणिज्ज-बालुगा-पत्थडा सुहकासा वे ज्योतिष्क विमानावास अभ्युद्गत, निःसृत, प्रभासित विविध मरिण और रत्नों के भीत्तिचित्रों वाले, वातप्रकम्पित विजयवैजयन्ती पताका तथा छत्रातिछत्रों से शोभित और उत्तुग हैं । गगनतल स्पर्शी शिखर वाले, खिड़कियों के अन्तराल में, पिंजरे से निकाल कर रखी हुई वस्तु की भांति, मरिण और स्वर्ण की स्तूपिका वाले, विकसित शतपत्र पुंडरीक समवाय-सुत्त । २६३ समवाय-प्रकीर्ण Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्सिरीयत्वा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरुवा । १६. केवइया णं नंते ! वेनाणिया वासा पणत्ता ? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरणिज्जानो भूमिभागानो उड्ढे चंदिमसूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारुवाणं वीइवइत्ता बहूणि जोयणारिण बहूणि जोयणसयारिण बहूणि जोयणसहत्साणि बहूणि जोयणसयसहस्साणि बहूओ जोयरणकोडोरो बहूओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीयो उड्ढं दुरं वीइवइत्ता, एत्य गं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाणसणंकुमार-माहिद-बंग-लंतगसुक्क-सहस्सार -प्राणय • पाणय मारणच्चुएतु गेवेज्जमणुत्तरेसु य चरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणइं सहस्सा तेवीसं च विमाणा नवंतीतिमरसाया । कमल, तिलक और रत्नमय अर्द्धचन्द्रों से चित्रित, अन्तर और वाहर से कोमल, स्वर्णमय वालुकानों के प्रस्तट वाले, सुखस्पर्श वाले, सुन्दर रूप वाले, प्रासादीय/आनन्दकर, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १६. भंते ! वैमानिक देवों के प्रावास कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु समतल भूमिभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षण और तारारूपों का उल्लंघन कर अनेक योजन, अनेक सौ योजन, अनेक लाख योजन, अनेक कोटि योजन, अनेक कोटा-कोटि योजन ऊपर दूर जाने पर वैमानिक देवों के सौधर्म ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्रारणत और अच्युत देवलोक के तथा नौ ग्रेवेयक और पांच अनुत्तर विमानों के चौरासी लात सतानवे हजार तेईस विमान हैं, ऐसा पाल्यात है। ते पं विमाणा अच्चिमालिप्पमा भासरामिवण्णाभा अरया नोरया हिम्मता वितिमिरा ये अचिर्मालि/सूर्य प्रभा वाले, प्रकाशपुज प्रामा वाले, अरज, नीरज, निर्मल, तिमिर-रहित, समवाय-प्रकीर्ण ममवाय मुत्त २६४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुद्धा सन्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पमा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा। विशुद्ध, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, घुटे हुये, घिसे हुए, प्रमाजित, निष्पङ्क, निष्कंटक छाया चाले, प्रभा-सहित, मरीचि-युक्त, उद्योतयुक्त, प्रासादीय/आनन्दकर, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप १७. सोहम्मे रणं मंते ! कप्पे केव- इया विमाणावासा पण्णता ? गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। १७. भंते ! सौधर्म-देवलोक में कितने विमानावास प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! बत्तीस शत-सहस्र/ लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं। १८. एवं ईसाणाइसु अट्ठावीसं वारस अट्ट चत्तारि-एयाई सयसहस्साई, पण्णासं चत्तालीसं छएयाइं सहस्साई, प्राणए पाणए चत्तारि, प्रारणच्चुए तिणि--एयाणि सयाणि । एवं गाहाहिं भणियन्वं वत्तीसट्ठावीसा, बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा, छच्चसहस्सा सहस्सारे ॥ प्राणयपाणयकप्पे, चत्तारिसयारणच्चुए तिन्ति । सत्त विमाणसयाई, चउसुवि एएसु कप्पेसु॥ एक्कारसुत्तरं हैट्ठिमेसु, सत्तुत्तरं च मज्झिसए। १८. इसी प्रकार ईशान-देवलोक आदि में क्रमश: अट्ठाईस शत-सहस्र / लाख, बारह शत-सहस्र/लाख, आठ शत-सहस्र/लाख, चार शत-सहस्र/ लाख, पचास हजार, चालीस हजार, छह हजार, आनत और प्राणत में चार सौ, प्रारण और अच्युत में तीन सौ [विमानावास] हैं। इमी प्रकार गाथाओं में कहा गया है१. बत्तीस लाख, २. अट्ठाईस लाख, ३. बारह लाख, ४. माठ लाख, ५. चार लाख, ६. पचास हजार, ७. चालीस हजार, ८. छह हजार, ९-१०. चार सौ, ११-१२. तीन सौ। [६-१२]-इन चार कल्पों में सात सौ विमान हैं। अधस्तन [वेयकों में नौ सौ समवाय-सुत्तं २६५ समवाय-प्रकीर्ण Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ निन्यान्वे, मध्यम में एक सौ सात, उपरीतन में सौ विमानावास हैं। अनुत्तर देवलोक के पांच विमानावास हैं। १६. नेरइयारणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। १६. मंते ! नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः तैंतीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है। २०. अपज्जत्तगाणं भंते ! नेरइयारणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? २०. भंते ! अपर्याप्तक नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं । गौतम ! जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त है । २१. पज्जत्तगाणं मंते ! नेरइयाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? २१. भंते ! पर्याप्तक नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । गौतम ! जघन्यतः दस हजार वर्ष में अन्तर्मुहुर्त न्यून और उत्कृष्टत: तैतीस सागरोपम में अन्तर्मुहूर्त न्यून। २२. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए, एवं जाव विजय-जयंत-जयंतअपराजियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहणणं वत्तीसं सागरोयमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। २२. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की यावत् विजय, वैजयन्त, जयंत, और अपराजित देवों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः बत्तीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तेंतीस मागगेपम । समवाय-मृतं समवाय-प्रकीर्ण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. सव्वट्टे जहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता । २३. सर्वार्थसिद्ध की जघन्यतः और उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है। २४. फतिणं भंते ! सरीरा पण्णता? गोयमा! पंच सरीरा पण्णता, तं जहापोरालिए वेउन्विए आहारए तेयए कम्मए । २५. मोरालियसरीरेणं भंते ! कइ. विहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिदियोरालियसरीरे जाव गम्भवक्कंतियमणुस्स-पंचिदियपोरालियसरीरे य। २४. भंते ! शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! शरीर पांच प्रज्ञप्त हैंजैसे कि औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तंजस और कार्मक। २५. भंते ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है । जैसे किएकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर यावत गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य - पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर । २६. भंते ! औदारिक शरीर की शरीर अवगाहना कितनी बड़ी प्रज्ञप्त २६. पोरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं । गौतम ! जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः हजार योजन से कुछ अधिक । २७. एवं जहा प्रोगाहणासंठाणे पोरा लियपमाण तहा निरवसेसं । .एवं जाव मणुस्सेत्ति उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। २७. इस प्रकार जैसे 'अवगाहना संस्थान' में औदारिक प्रमाण कहा गया है, वैसा ही निरवशेष/अन्यत्र ज्ञातव्य है। इस प्रकार यावत् मनुष्य की उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाउ की है। २८. कइविहे गं भंते ! वेउस्विय सरीरे पण्णते? २८. भंते ! वैक्रिय-शरीर : कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? समवाय-सुत्तं २६७ समवाय प्रकीर्ण Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! दुविहे पण्णत्तेएगिदिय-वेउब्वियसरीरे यपचिदियवेउब्वियसरीरे य। गौतम ! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है-एकेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर और पञ्चेन्द्रिय-वैक्रिय-शरीर । २६. एवं जाव सणंकुमारे पाढतं जाव प्रणुत्तरा भवधारणिज्जा तेसि रयणी रयणी परिहायइ । २६. इस प्रकार सनत्कुमार कल्प से लेकर अनुत्तर विमानों तक भवधारणीय शरीर हैं, जिनकी अवगाहना एक-एक रनि कम होती ३०. आहारयसरीरे णं भंते! कइ- विहे पण्णते? ३०. भंते ! आहारक शरीर कितने प्रकार का गोयमा ! एगागारे पण्णते। गौतम ! एक आकार वाला प्रज्ञप्त है। जइ एगागारे पण्णत्ते, कि मणुस्समाहारयसरीरे ? अमणस्समाहारयसरीरे? [भंते ! ] यदि एक आकार वाला प्रज्ञप्त है, तो क्या वह मनुष्यग्राहारक-शरीर है या अमनुष्यआहारक-शरीर ? गोयमा ! मणुस्साहारयसरीरे, णो प्रमणुस्समाहारगसरीरे । गौतम ! वह मनुष्य आहारकशरीर है, अमनुप्य-आहारक-शरीर नहीं। जइ मणुस्समाहारयसरीरे, कि गम्भवतियमणुस्समाहारगसरीरे ? समुच्छिममणुस्सपाहारगसरीरे ? [भंते ! ] यदि मनुष्य-आहारकशरीर है, तो क्या वह गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारक-शरीर है या सम्मूच्छिम-मनुण्य-पाहारक-शरीर गोयमा! गम्भवतियमणुस्सप्राहारयसरीरे नो समुच्छिममगुस्समाहारयसरीरे । गौतम ! वह गर्भोपक्रान्तिकमनुप्य-आहारक-शरीर है, सम्मूच्छिम - मनुष्य - आहारक शरीर नहीं। समपाय-मुन्तं समवाय-प्रकीर्ण Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ गम्भवक्कंतियमणुस्साहारगसरीरे, कि कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्समाहारयसरीरे? प्रकम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्स-माहारयसरीरे? [भंते !] यदि गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है तो क्या वह कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारक-शरीर है या अकर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारक-शरीर ? गोयमा! कम्मभूमग-गम्भवककंतियमणुस्स-आहारयसरीरे, नो अकम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्स-माहारयसरीरे। जइ कम्मभूमग-गब्भवक्कतियमणुस्समाहारयसरीरे, कि सखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्स-माहारयसरीरे? असंखेज्जवासाउय-फम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्स-आहारयसरोरे? गोयमा! संखेज्जवासाउयकरमभूमग • गन्भवक्कंतियमणुस्सआहारयसरीरे, नो असखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गन्भववकलियमणुस्समाहारयसरीरे । गौतम ! वह कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारक-शरीर है, अकर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुप्यआहारक-शरीर नहीं। [भंते !] यदि कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारकशरीर है तो क्या वह संख्येयवायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर है या असंख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारक-शरीर ? गौतम ! वह संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक - मनुप्यआहारक-शरीर है, असंख्येय-वायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीर नहीं।। [भंते !] यदि संख्येयवर्षायुककर्मभूमिज - गर्मोपक्रान्तिक-मनुष्य आहारकशरीर है तो क्या वह पर्याप्तक - संख्येय-वर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर है या अपर्याप्तकसंख्येय-वर्षायुप्क-कर्मभूमिज-ग - पक्रान्तिक - मनुष्य-माहारकशरीर जइ संखेज्जवासाउय • कम्मभूमग • गब्भवक्कंतियमणुस्सपाहारयसरीरे, किं पज्जत्तयसखेज्जवासाउय • कम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्स-आहारयसरीरे? अपज्जत्त य-संखेज्जावासाउय - कम्मभूमग-गम्भवककंतियमणुस्स-पाहारयसरीरे ? समवाय-सुत्तं २६६ समवाय-प्रकीर्ण Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयना! पन्जत्तयसंवेब्जवासाउय-कम्मनूमग-गम्भदक्कंतियमणुस्स-माहारयसरीरे, नो अपज्जत्तय - संतेन्जवासाउय. कम्मनुमगनाभवक्कंतियमगुस्स आहारयसरीरे ? गौतम ! यह पर्याप्तक-संख्ययदर्पा युष्क - कर्नभूमिज -गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारक-शरीर है, अपर्याप्तक-संख्येय-वर्षायुष्क-कर्मभूमिजगर्नोपक्रान्तिक • मनुष्य-आहारक शरीर नहीं है। जइ पज्जत्तय-संज्जवासाउयकम्मभूनग - गन्नवक्कैतियमगुस्स आहारयसरीरे, कि सम्मद्दिट्टि - पन्जसय - संवेज्नवासाज्य-कम्मभूमग-गन्नववर्कतिग्मगुस्स आहारयसरीरे ? मिच्छदिहि-पज्जत्तय संखेन्जवाताव्य-कम्मभूमग - गन्भवककंतियमस्स-आहारयसरीरे ? सम्ममिच्छदिद्धि • पन्जत्तयसंखेज्जवासाय • कम्मनूमनगम्भवतियमणुस्स-पाहारयसरीरे? [मते !] यदि पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुप्क - कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक-मनुप्य-माहारकशरीर है तो क्या वह सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंध्येयवर्षायुप्क-कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिकमनुप्य-आहारक-शरीर है या मिथ्याप्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुप्क-कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य - आहारक-गरीर है या सम्यक् मिथ्याप्टि-पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुप्क-कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारक- शरीर गोयमा ! सम्मदिद्धि-पज्जत्तयसंखेन्जवासाउय • कम्भूमगगन्नवक्कंतियमगुस्स पाहारयसरीरे, नो सम्म - मिच्छदिट्टिपन्जत्तय - संज्जवासाउयफम्मभूमग गमवक्कंतियमगुस्स-माहारय-सरीरे! गौतम ! वह सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्ययवर्षायुप्क-कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्य -आहारक-शरीर है. मिथ्याप्टि-पर्याप्तक-संल्येयवर्षायुक • कर्मभूमिज - गर्भोपक्रानिकननुष्य - आहारक - शरीर नही है तथा सम्यमिथ्याष्टिपर्याप्तक - सत्येयवर्षायुप्क - कर्मभूमिज - गर्भोरक्रान्तिक • मनुष्यआहारया-जगर नहीं है। जइ मम्मििट्ट-पज्जत्तय सखेज्जयामास्य- कम्मनूमग-गम्भ [नंते ! ] यदि सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संत्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज समवाय- प्रकीर्ण मगवाय-मुत Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्य - आहारकशरीर है तो क्या वह संयत-सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुप्ककर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक-मनुप्यआहारकशरीर है या असंयतसम्यक्ष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्पायुक-कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीर है या संयतासंयत-सम्यक्प्टि -पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्य - आहारकशरीर वक्कंतियमणुस्स - आहारयसरीरे, कि संजय-सम्महिट्टिपज्जत्तय - संखेज्जवासाउयकम्मभूमग • गब्भवक्फतियमणुस्स - श्राहारयसरीरे ? असंजय - सम्माद्दिष्टि-पज्जत्तयसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमगगन्भवक्कंतियमणुस्स-माहारयसरीरे? संजयासंजय-सम्महिटिपज्जयत्त • संखेज्जवासाउयकम्मभूमग - गन्भवतियमणुस्स आहार यसरीरे ? गोयमा! संजय - सम्मद्दिष्टिपज्जत्तय - संखेज्जवासाउयकम्मभूमग- गम्भवक्कंतियमणुस्स-पाहारयसरीरे, नो प्रसंजयद्दिट्टि - पज्जत्तय - संखेन्जवासाउय-कम्मभूमग- गन्भवतियमणुस्स-श्राहारयसरीरे, नो संजयासंजय - सम्मद्दिष्टि-पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय - कम्मभूमग-गम्भवक्कंतिय - मणुस्सआहारयसरीरे । गौतम ! वह संयत-सम्यक्दृष्टि पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्मोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर है, असंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक • संख्येयवायुष्क कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीर नहीं है तथा संयतासंयत-सम्यक्ष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुक कर्मभूमिजगर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य - आहारकशरीर भी नहीं है। जइ संजय-सम्मद्दिष्टि-पज्जत्तयसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमगगम्भवक्कैतियमणुस्स-माहारयसरीरे, कि पमत्तसंजयसम्मद्दिष्टि - पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गन्मवक्कंतियमणुस्स - प्राहारयसरीरे ? अपमत्तसंजय-सम्मद्दिष्टि-पज्जत्तय-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग [भंते !] यदि संयंत-सम्यक्प्टि• पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क - कर्म भूमिज - गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह प्रमत्तसंयत्त-सम्यक्दृष्टि-पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीर है या अप्रमत्तसंयत-सम्यकदृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्घायुष्क -कर्मभूमिज समवाय-प्रकीर्ण समवाय-सुत्तं २७१ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्भवतियमणुस्स-श्राहारय गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्य-आहारशरीर सरीरे ? गोयमा ! पत्तमसंजय - सम्मदिहि-पज्जतय-संखेज्जवासाउय कम्ममूमग - गन्भवतियमणुस्स-आहारयसरीरे, नो अपमत्तसंजय-सम्मद्दिष्टि-पज्जतय-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्साहारयसरीरे। गौतम ! वह प्रमत्तसंयत-सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्यआहारकशरीर है, अप्रमत्तसंयत-. सम्यकदृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीर नहीं। जइ पमत्तसंजय • सम्मद्दिहिपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्सपाहारयसरीरे, कि इडिपत्तपमत्तसंजय-सम्मद्दिष्टि-पज्जत्तयसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्स-पाहारयसरीरे ? [भंते ! ] यदि प्रमत्तसंयत-सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक-मनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यक्डष्टिपर्याप्तक - संख्येयवर्पायुष्क - कर्मभूमिज - गर्मोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर है या अऋद्धिप्राप्तप्रमत्त-संयत-सम्यक्ष्टि -पर्याप्तकसंख्येयवायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भोरक्रान्तिक-मनुष्य - आहारकशरीर गोयमा ! इडिपत्त-पमत्तसंजयसम्मद्दिष्टि - पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय - कम्मभूमग • गम्भवयकतियमणुस्स-प्राहारयसरीरे, नो अपिडिपत्त - पमत्तसंजयसम्मदिट्टि पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय - कम्मभूमग - गम्भयफतियमणुस्स • पाहारयसरीरे। गौतम ! वह ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यक्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भोपक्रान्तिक-मनुप्य-प्राहारकशरीर है, अऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत - सम्यकदृष्टि -पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक - मनुष्यआहारकशरीर नहीं। ममवाय-सुत्तं २७२ समवाय-प्रकीर्ण Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. प्राहारयसरीरे वं भंते ! कि संठिए पण्णत्ते? . गोयमा ! समचउरंस-संठाणसंठिए पण्णते। ३१. भंते ! आहारक-शरीर किस संस्थान से संस्थित प्रज्ञप्त है ? गौतम ! सम-चतुरस्र/चतुष्कोप संस्थान से संस्थित प्रज्ञप्त है। ३२. पाहारयसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? ३२. भंते ! आहारक-शरीर के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी प्रज्ञप्त गोयमा ! जहणणं देसूणा रयणी उक्कोसेएं पडिपुण्णा रयणी। ३३. तेयासरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णतेएगिदियतेयासरीरे य बेंदियतेयासरीरे य तेंदियतेयासरीरे य चरिदियतेयासरीरे य पंचेंदियतेयासरीरे य। गौतम ! जघन्यतः कुछ न्यून एक रलि (हाथ) और उत्कृष्टतः परिपूर्ण रनि । ३३. भंते ! तैजस-शरीर कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि१. एकेन्द्रिय तेजस-शरीर, २. द्वीन्द्रिय तैजस-शरीर, ३. श्रीन्द्रिय तेजस-शरीर, ४. चतुरिन्द्रिय तैजसशरीर, ५. पञ्चेन्द्रिय तेजस शरीर। ३४. भंते ! वेयक देव के मारणान्तिक समुद्घात से समवहत तजसशरीर की शरीर-अवगाहना कितनी बड़ी प्रज्ञप्त है ? गौतम ! विष्कम्भ-वाहल्य/ चौड़ाई-मोटाई में शरीर-प्रमाणमात्र, आयाम/लम्वाई में नीचे जघन्यतः विद्याधर-श्रेणी तक और उत्कृष्टतः अधोलौकिक गांवों तक, तिरछे में मनुष्य-क्षेत्र तक और अपने-अपने विमान की पताका तक होती है। ३४. गेवेज्जस्स णं भंते ! देवस्स मारणतिय-समुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेती विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अहे जाव विज्जाहरसेढीनो, उक्कोसेणं अहे जाव पहोलोइया गामा, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं, उड्ढं जाव सयाई सयाइं विमाणाई। समवाय-सुत्तं २७३ समवाय-प्रकीर्ण Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. एवं प्रणुत्तरोववाइया वि । ३६. एवं कम्मयसरीरं पि भरिणयत्वं । ३७. कइविहे णं भंते ! श्रोही पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्तेभवपच्चइए य खोवसमिए य । एवं सव्वं श्रोहिपदं भणियत्वं । भेदे विसय संठाणे, अभंतर बाहिरे य देसोही । श्रोहिस्स वड्डि-हाणी, पडिवाती चैव श्रपडिवाती ॥ ३८. नरइया णं भंते ! कि सीत वेयणं वेदंति ? उसिणवेयणं वेदंति ? सीतोसिणवेयणं वेदंति गोयमा ! नेरइया सीतं वि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेदति णो सोतोसिणं वेदणं वेदेति । एवं चैव वैयणापदं भणियत्वं । सीता य दव्व सारोरी, साय तह चेयणा सवे दुक्खा । श्रनुवगमुवक्कमिया, निदाए चैव श्रणिदाए || समनाय-गुत्तं ૨૯૪ ३५. इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देवों की भी है । ३६. इसी प्रकार कार्मरण-शरीर भी ज्ञातव्य है । ३७. भंते! अवधिज्ञान कितने प्रकार प्रज्ञप्त है ? गौतम ! दो प्रकार का प्रज्ञप्त हैraप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक | इस प्रकार सम्पूर्ण अवधि-पद ज्ञातव्य है । [अवधिज्ञान के द्वार - ] भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देश, सर्व, वृद्धि, हानि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती । ३८. मंते ! नैरयिक क्या शीत वेदना का वेदन करते हैं ? क्या उष्ण वेदना का वेदन करते हैं ? क्या शीतोष्ण वेदना का वेदना करते हैं ? गौतम ! नैरयिक शीत वेदना का भी वेदन करते हैं, उष्ण वेदना का भी वेदन करते हैं, उष्ण वेदना का भी वेदन करते हैं, किन्तु शीतोष्ण वेदना का वेदन नहीं करते । इस प्रकार सम्पूर्ण वेदनापद ज्ञातव्य है । [ वेदना के द्वार - ] शीत, उष्ण, द्रव्य, शारीरिकी, साता, असाता, वेदना, दु:ख, श्राभ्युपगमिकी श्रीर अनिदा वेदना । समवाय- प्रकीर्ण Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. भंते ! लेश्याएं कितनी प्रज्ञप्त हैं ? ३६. कइ णं भंते ! लेसानो पण्णत्तानो ? गोयमा ! छ लेसानो पण्णतामो, तं जहाकिण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा । एवं लेसापयं भणियव्यं । गौतम ! लेश्याएँ छह प्रज्ञप्त हैं, जैसे किकृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजस्लेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । इस प्रकार लेश्यापद ज्ञातव्य है। ४०. भंते ! क्या नैरयिक अनन्तर आहार करते है तदन्तर निवर्तन, पर्यादान, परिणमन, परिचारण, और विक्रिया करते हैं ? ४०. नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तो निव्वत्ताणया तो परियाइयणया तो परिणामणया तग्रो परियारणया तो पच्छाविफुटवणया ? हंता गोयमा ! नेरइया णं अणंतराहारा तो निव्वत्तणया तो परियाइयणया तो परिणामणया तो परियारणया तो पच्छा विकुटवणया। एवं आहारपदं भणियध्वं । अणंतरा य पाहारे, आहाराभोगणाऽवि य । पोग्गला नेव जाणंति, अज्झवसाणा य सम्मत्ते ॥ हाँ, गौतम ! नरयिक अनन्तर आहार, तदनन्तर निर्वर्तन, पर्यादान, परिणमन, परिचारण और विक्रिया करते हैं। इस प्रकार आहार-पद ज्ञातव्य है । [आहार के द्वार-] अनन्तर आहार, आभोग आहार, अनाभोग पाहार, पुद्गलों को नहीं जानना, अध्यवसान और सम्यक्त्व। ४१. कइविहे गं भंते ! आउगबंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे पाउगबंधे पण्णत्ते, तं जहाजाइनामनिधत्ताउके गतिनामनिधत्ताउके ठिइनामनिधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके अणुभाग ४१. भंते ! आयुष्क-बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! आयुष्क-बंध छह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि१. जातिनामनिधत्त/व्याप्त आयुष्क २. गतिनामनिधत्त आयुष्क, ३. स्थितिनामनिवत्त आयुष्क, ४. समवाय-सुत्त २७५ समचाय-प्रकीर्ण Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामनिधत्ताउके प्रोगाहाणानामनिधत्ताउके । ४२. नेरइयाणं भंते ! कविहे पाउगबंधे पण्णते ? गोयमा ! छविहे पण्णते, तं जहाजातिनामनिधत्तारके गइनामनिघत्ताउके ठिइनामनिधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके प्रोगाहणाणामनिधत्ताउके। प्रदेशनामनिघत्त-आयुष्क, ५. अनुभागनामनिधत्त-आयुष्क, ६. अव गाहनानामनिधत्त-पायुप्क। ४२. भते ! नैरयिकों के कितने प्रकार का आयुष्क-बंध प्रज्ञप्त है ? गौतम ! छह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि-- १.जातिनाम-निघत्त-धारी आयुष्क, २. गतिनामनिघत्त-आयुष्क, ३. स्थितिनामनिधत्त-आयुष्क, ४. प्रदेशनामनिधत्त-पायुप्क, ५. अनुभागनामनिघत्त-आयुष्क, ६. अवगाहनानामनिघत्त-पायुप्क । इसी प्रकार वैमानिक तक है । एवं जाव वेमाणियत्ति । ४३. निरयगई रणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं ४३. भंते ! नरकगति में उपपात का विरहकाल कितना प्रज्ञप्त है ? पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं वारसमुहुत्ते । एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई। ४४. सिद्धिगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणयाए पण्णत्ता। गोयमा! जहणणं एक्कं समयं उकोसेरणं छम्मासे । एवं सिद्धिवज्जा उव्वट्टरमा । गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः वारह मुहूर्त । इसी प्रकार तिर्यञ्चगति, मनुष्य गति और देवगति है। ४४. भंते ! सिद्धिगति में सिद्ध होने का विरहकाल कितना प्रजप्त है ? गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छह मास । इसी प्रकार सिद्धिगति को छोड़कर उद्वर्तना का विरहकाल ज्ञातव्य ४५. इमोसे णं मंते ! रयणप्पहाए ४५. नंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में समवाय-मृत्तं २७६ २७६ समवाय-प्रकीर्ण Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिकों के उपपात का विरहकाल कितना प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः चौवीस मुहूर्त । इसी प्रकार उपपात-दण्डक और उद्वर्तन-दण्डक प्रज्ञप्त है। पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! जहण्णरणं एग समयं, उक्कोसेणं चउव्वीस मुहुता। एवं उववायदंडनो भणियन्वो, उध्वट्टणादंडनो वि। ४६. नेरइया णं भंते ! जातिनाम निहत्ताउगं कतिहि प्रागरिसेहि पगरेंति ? गोयमा ! सिय एक्केण सिय दोहि सिय तोहि सिय चाहिं सिय पंचहि सिय छहिं सीय सत्तहिं सिय अहिं, नो चेव णं नवहि । ४७. एवं सेसारिण वि पाउगाणि जाव वेमाणियत्ति । ४८. काविहे गं मंते ! संघयणे पण्णते? गोयमा ! छविहे संघयणे पण्णते, तं जहावइरोसमनारायसंघयणे रिसभनारायसंघयरणे नारायसंघणे अद्धनारायसंघयणे खीलिया संघयणे छेवट्टसंघणणे। ४६. भंते ! नैरयिक जातिनाम-निघत्त घारी आयुष्क कितने प्राको से प्रवर्तित होता है ? गौतम ! कभी एक [पाकर्प] से, कभी दो मे, कभी तीन से, कभी चार से, कभी पांच से, कभी छह से, कभी सात से और कभी आठ से, किन्तु नौ से कभी नहीं । ४७. इसी प्रकार शेप-प्रायुप्क वैमानिक तक ज्ञातव्य हैं। के ४५. भंते ! संहनन कितने प्रकार का प्राप्त है ? गौतम ! संहनन छह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे कि१. वनऋपमनाराच संहनन, २. ऋषभनाराच संहनन, ३. नाराच संहनन, ४. अर्द्धनाराच संहनन, ५. कीलिका संहनन, ६. सेवार्त संहनन । ४६. भंते ! नरयिक किस संहनन वाले होते हैं ? गौतम ! छहों संहननों से वे असंहननी हैं। उनके,न अस्थि होता ४६. नेरइया णं भंते! किसंघयणी ? गोयमा ! छहं संघयणाणं असंघयणी-ऐवट्ठी व समवाय-सुतं २७७ समवाय-प्रकीर्ण Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिरा व हारू, जे पोग्गला अरिणट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणूण्णा अमणामा ते तेसि असंघयणत्ताए परिणमंति। है, न शिरा और न स्नायु । जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और मन के प्रतिकूल होते हैं, वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं । ५०. असुरकुमारा रणं भंते ! किसंघ यणी पण्णता? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी-रणेवट्टी व छिरा रोव पहारू, जे पोग्गला इट्टा कंता पिया सुमा मणुण्णा मणामा ते सि असंघयणताए परिणमंति। ५०. भंते ! असुरकुमार किस संहनन वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! इन छहों संहननों से वे असंहननी हैं। उनके न अस्थि होता है, न शिरा और न स्नायु । जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोनुकूल होते हैं वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं। ५१. एवं जाव थणियकुमारत्ति । ५१. इसी प्रकार स्तनितकुमार तक ज्ञातव्य हैं। ५२. पुढवीकाइया णं भंते ! कि संघयणी पण्णता? गोयमा ! छेवट्टसंघयणी ५२. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव किस संहनन वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! सेवात संहनन वाले प्रज्ञप्त हैं। पण्णत्ता । ५३. एवं जाव संमुच्छिमपंचिदिय तिरिक्खजोगियत्ति । ५३. इसी प्रकार सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों तक ज्ञातव्य ५४. गम्भवक्कंतिया यणी । विहसंघ ५४. गर्भोपक्रान्तिक जीवों के छह प्रकार के संहनन होते हैं। ५५. ममुच्छिममणुस्सा एं छेवट्टसंघ- यणी । समावय-सुत ५५. सम्मच्छिम मनुष्यों के सेवात संहनन होता है। समवाय-प्रकीर्ण Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. गम्भवक्कंतियमणुस्सा छविह- संघयणी पण्णत्ता। ५६. गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन होते हैं। ५७. जहा असुरकुमारा तहा वाण मंतरा जोइसिया वेमाणिया य । ५७. जैसे असुरकुमार हैं, वैसे ही वान मंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ज्ञातव्य है । ५८. कइविहे रणं भंते ! संठाणे पण्णते ? गोयमा! छविहे संठाणे पण्णत्ते, तं जहासमचउरसे णग्गोहपरिमंडले साती खुज्जे वामणे हुंडे । ५८. भंते ! संस्थान छह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! संस्थान छह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। जैसे कि१. समचतुरस्र, २. न्यग्रोधपरिमण्डल, ३. सादि, ४. कुन्ज, ५. वामन, ६. हुण्ड । ५६. रइया णं भंते ! कि संठाणा पण्णता? गोयमा! हुंडसंठाणा पण्णत्ता। ५६. भंते ! नैरयिक किस संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! हुण्ड संस्थान वाले प्रज्ञप्त ६०. असुरकुमारा कि संठाणसंठिया पण्णता? गोयमा ! समचउरस-संठाणसंठिया पण्णत्ता जावथणियत्ति । ६०. मंते ! असुरकुमार किस संस्थान से संस्थित प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! समचतुरस्र संस्थान से संस्थित प्रज्ञप्त हैं। स्तनितकुमार तक ऐसा ही है। ६१. पुढवी मसूरयसंठाणा पण्णत्ता। ६१. पृथ्वी के जीव मसूरक-संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं। ६२. अपकायिक जीव स्तिवुक/जल-बूद ___ संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं । ६२. पाऊ थियसंठाणा पण्णत्ता। ६३. तेऊ सूइकलावसंठाणा पण्णत्ता। ६३. तेजस्कायिक जीव मूचीकलाप (सूइयों के पुजवत) के संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं। समवाय-सुत्त ૨૭૯ समवाय-प्रकीर्ण Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. वाऊ पटागसंठाणा पण्णत्ता । ६४. वायुकायिक जीव पताका-संस्थान वाले प्रजप्त हैं। ६५. वणप्फई पण्णत्ता । नाणासठाणसंठिया ६५. वनस्पतिकायिक जीव नाना प्रकार के संस्थान वाले प्राप्त हैं । ६६. वेइंदिय - तेइंदिय • चरिदिय- सम्मुच्छ्यिपंचेंदिय - तिरिक्खा हुंडसंठाणा पण्णत्ता। ६६. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम - पञ्चेन्द्रिय -तिर्यञ्च हुण्ड-संस्थान वाले प्रत्रप्त हैं। ६७. गम्भवक्कतिया छविहसंठाणा पण्णत्ता । ६८. सम्मुच्छिममणस्सा हुंडसंठाण संठिया पण्णता। ६६. गन्भवतियाणं मणस्साएं यविहा संठाणा पण्णता। ६७. गर्भोपक्रान्तिक तिर्यञ्च छह प्रकार के संस्थान वाले प्रजप्त हैं। ६८. सम्मृन्टिम मनुष्य हुण्ड-संस्थान वाले प्रनप्त हैं। __६६. गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य यह प्रकार . के संस्थान वाले प्रनप्त हैं। ७०. जहा अमुरकुमारा तहा वारण मंतरा जोडसिया वेमाणिया। ७१. कविहे णं मंते ! वेए पण्णते? गोयमा ! तिविहे वेए पण्णते, तं जहाइत्योवेए पुरिसवेए नपुंसगवेए। ७०. जैसे अमुरकुमार हैं, वैसे ही वान मंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक हैं। ७१. मंते ! वेद कितने प्रकार के प्रनप्त हैं? गोतम ! वेद तीन प्रकार के प्राप्त हैं। जैसे कि स्त्रीवेद, पुरुपवेद और नपुसकवेद । ७२. नत ! क्या नयिक स्त्रीवेद, पुरुप वैद या नपुमकवेद होते हैं ? ७२. नरइवा पं नंते ! कि इत्यो चेया पुरिसवेया एसगवेया पणता? गोयमा ! णो इत्यिवेया गो पुया, पसगवेया पण्णता । ७३. असुरकुमाराणं मंते ! कि इरिय- येपा पुरिसवेया नपुंमगवेया ? गौतम ! न तो स्त्रीवेद, न ही पुम्पवेद; नपुसकवेद प्राप्त हैं। १.मंत ! क्या अमरकुमार स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुसकवेद होते हैं ? समवाय-प्रकीर्ण मनवाय-मुन २८० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! इत्थिवेया पुरिसवेया, णो पसगवेया जाव थणिय त्ति। गौतम! स्तनितकुमार तक स्त्रीवेद होते हैं, पुरुषवेद होते हैं, किन्तु नपुंसकवेद नहीं होते। ७४. पुढवि-प्राउ-तेउ-वाउ-वणप्फइ बि-ति-चरिदिय - संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्ख - समुच्छिममणुस्सा पसगवेया। ७४. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सम्मूच्छिम मनुष्य-ये नपुसकवेद होते हैं। ७५. गम्भवक्कंतियमणुस्सा पंचेंदिय तिरिया यतिवेया। ७५. गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य और पंचे न्द्रिय तिर्यच तीनों वेद वाले होते हैं। ७६. जैसे असुरकुमार हैं, वैसे ही वान मंतर, ज्यौतिष्क और वैमानिक भी हैं। ७६. जहा असुरकुमारा तहा वाण मंतरा जोइसिया वेमाणियावि। ७७. ते रणं काले रणं ते णं समए रणं कप्पस्स समोसरणं यन्वं जाव गणहरा सावच्चा निरबच्चा वोच्छिण्णा । ७७. उस काल और उस समय में 'कल्प' के अनुसार समवसरण, गणधर, सापत्यों (शिष्य-सन्तान-युक्त) एवं निरपत्यों (शिष्य-सन्तान-रहित शेप सभी) की व्युच्छिन्नता ज्ञातव्य है। ७८. जंबुद्दीवे एवं दीवे भारहे चासे तीयाए प्रोसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्था, तं जहामित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपमे। विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥ ७६. जंबुद्दीवे , दीवे भारहे वासे । तीयाए उस्सप्पिणीए दस कुल गरा होत्या, तं जहा ७८. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में अतीत अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए थे, जैसे कि१. मित्रदाम, २. सुदाम, ३. सुपार्श्व, ४. स्वयंप्रभ, ५. विमलघोष, ६. सुघोष ७. महाघोष । ७६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में अतीत उत्सपिणी में दस कुलकर हुए थे, जैसे कि-- समवाय-सुत्तं २८१ समवाय-प्रकीर्ण Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. स्वयंजल, २. शतायु, ३. अजितसेन, ४. अनन्तसेन, ५. कर्कसेन, भीमसेन, ६. महाभीमसेन, ८. दृढरथ, ६. दशरथ, १०. शतरथ । सयंजले सयाऊ य, अजियसेणे अणंतसेणे य। कक्कसेणे भीमसेणे, महाभीमसेणे यसत्तमे। दढरहे दसरहे सतरहे । ८०. जवुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या, तं जहापढमेत्य विमलवाहण, चवखुन जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो य पसेराइए, मरुदेवे चेव नाभी य॥ ८०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में एक अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए थे, जैसे कि१. विमलवाहन, २. चक्षुष्मान्, ३. यशस्वी, ४. अमिचन्द्र, ५. प्रसेनजित, ६. मरुदेव, ७. नाभि । ८१. इन सात कुलकरों के सात पत्नियां हुई थीं, जैसे कि १. चन्द्रयशा, २. चन्द्रकान्ता, ३. सुरूपा, ४. प्रतिरूपा, ५. चक्षुप्कान्ता, ६. श्रीकान्ता, ७. मरुदेवी। २१. एतेति णं सत्तण्हं कुलगराणं सत्त भारिया होत्था, तं जहाचंदजसा चंदकंता, सुरुव-पडिरूव चक्खुकता य । सिरिकता मरदेवी, कुलगरपत्तीण गामाई ॥ ८२. जंबुद्दीवे गं दीवे भारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्यगराणं पियरो होत्या, तं जहा--- १.रणाभी ण जियसत्तू य, जियारी संवरे इय। मेहे घरे पइळे य, महसेणे य खत्तिए॥ २. मुग्गोवे दढरहे विहू, वनुपुज्जे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे य, माणू विस्ससेणे इ य ॥ ८२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसपिणी के चौबीस तीर्थकरों के चौवीस पिता हुए थे, जैसे कि१. नाभि, २. जितणत्रु, इ. जितारी ४.संवर, ५. मेघ, ६. वर, ७. प्रतिष्ठ, ८.क्षत्रिय महसेन, ९. नुग्रीव, १०. दृढ़रढ, ११. विष्णु, १२. क्षत्रिय वसुपूज्य, १३. कृतवर्मा, १४. सिंहसेन, १५. भानु, १६. विश्वसेन, १७. सूर, १८. नुदर्शन, १६. कुभ, २०. मुमित्र, समवाय-मुक्त २८२ समवाय-प्रकीर्ण Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. विजय, २२. समुद्रविजय, २३. राजा अश्वसेन, २४. क्षत्रिय सिद्धार्थ । ३. सूरे सुदंसरणे कुमे, सुमित्तविजये समुद्दविजये य। राया य प्राससेणे, सिद्धत्येच्चिय खत्तिए॥ ४. उदितोदितकुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया। तित्थप्पवत्तयारणं, एए पियरो जिणवराणं ।। तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों के पिता उदितोदित कुल-वंश वाले, विशुद्ध वंश वाले और गुणों से उपेत थे। ८३. जम्बूढीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसपिणी के चौबीस तीर्थङ्करों को चौवीस माताएँ हुई थी । जैसे कि १३. जंबुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्यगराणं मायरो होत्या, तं जहा१. मरुदेवी विजया सेणा, सिद्धत्थामंगलासुसीमा य। पुहवी लक्खण रामा, नंदा विण्हू जया सामा॥ २.सुजसा सुव्वय अइरा, सिरिया देवी पभावई। पउमा वप्पा सिवा य, वामा तिसला देवी य जिणमाया ॥ १. मरुदेवी, २. विजया, ३. सेना, ४. सिद्धार्था, ५. मंगला, ६. सुसीमा, ७. पृथ्वी, ८. लक्ष्मणा, ६. रामा, १०. नंदा, ११. विष्णु, १२. जया, १३. श्यामा, १४. सुयशा, १५. सुव्रता, १६. अचिरा, १७. श्री, १८. देवी, १६. प्रभावती, २०. पद्मा, २१. वप्रा, २२. शिवा, २३. वामा, २४. त्रिशला। ५४. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तं जहाउसमे अजिते संभवे अभिणंदणे सुमती पउमप्पहे सुपासे चदप्पहे सुविही सीतले सेन्से वासुपुज्जे विमले अणते धम्मे संती कुथू अरे मल्ली मुणिसुव्वए णमी अरिटुणेमी पासे ८४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसपिणी में चौबीस तीर्थङ्कर हुए थे। जैसे कि१. ऋषभ, २. अजित, ३. सम्भव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पा. प्रभ, ७. सुपार्श्व, ८. चन्द्रप्रभ, ६. सुविधि, १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति, समवाय-सुन २८३ समवाय-प्रकीर्ण Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धमाणे य। १७. कुन्यु, १८. अर, १६. मल्ली, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. अरिष्टनेमि, २३. पावं, २४. वर्द्धमान । ८५. इन चौवीस तीर्थङ्करों के पूर्वभव में चौवीस नाम थे। जैसे कि ८५. एएसि चउवीसाए तित्यगराण चउवीसं पुत्वमविया णामघेज्जा होत्या, तं जहा१. पढमेत्य वइरणाभे, विमले तह विमलवाहणेचेव। तत्तो य धम्मसोहे, सुमित्त तह धम्ममित्ते य॥ २. सुदरवाहू तह दोहवाहू, जुगवाहू लट्ठवाहू य। दिग्णे य इंददत्ते सुंदर माहिंदरे चेव ॥ ३. सोहरहे मेहरहे, रुप्पीय सुदंसणेय बोद्धव्वे । तत्तो य नंदणे खलु, सोहगिरी चेव वीसइमे ॥ ४. प्रदणीसत्त संखे, सदसणे नदणे य वोद्धब्बे । प्रोसप्पिणीए एए, तित्यकराणं तु पुन्वभवा ॥ १. वज्रनाभ, २.विमल, ३. विमलवाहन, ४. धर्मसिंह, ५. सुमित्र, ६. धर्ममित्र, ७. सुंदरवाहु, ८. दीर्घवाहु, ६. युगवाहु, १०. लप्टवाहु, ११. दत्त, १२. इन्द्रदत्त, १३. मुन्दर, १४. माहेन्द्र, १५. सिंहरथ, १६. मेघरथ, १७. रुक्मी, १८. सुदर्शन, १६.नंदन, २०.सिंहगिरि, २१. अदीनसत्त्व, २२. शंख, २३. नुदर्शन, २४. नन्दन । ५६. इन चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस शिविकाएं थीं। जैसे कि-- ८६. एएसि णं चउवीसाए तित्य करणं चावीसं सीया होत्या, तं जहा१. नीया सुदंसपा सुप्पभा य, सिद्धत्य सम्पसिद्धा य । विजया य वेजयंती, लयती अपराजिया चेव ॥ १.सुदर्शना, २.मुप्रभा, ३. सिद्धार्या, ४. सुप्रसिद्धा, ५. विज्या, ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता, ६. अनाप्रमा, १०. चन्द्रप्रमा, ११. ममवार-मुक्त समवग्य-प्रकीर्ण Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरप्रभा, १२. अग्निप्रभा, १३. विमला, १४.पंचवर्णा, १५. सागरदत्ता, १६. नागदत्ता, १७. अभयकरी, १८. निर्वृतिकरी, १६. मनोरमा, २०. मनोहरा, २१. देवकुरु, २२. उत्तरकुरु, २३.विशाला, २४. चन्दप्रमा। सर्वजीववत्सल समस्त जिनवरो को ये शिविकाएँ सब ऋतुओं में शुभ छाया वाली होती हैं। २. अरुणप्पह चंदप्पह, सूरप्पह अग्गिसप्पहा चेव । विमला य पंचवण्णा, सागरदत्तातहणागदत्ताय॥ ३. अभयकरी णिन्वतिकरी, मणोरमातहमणोहरा चेव । देवकुरु उत्तरकुरु, विसाल चंदप्पहा सीया ॥ ४. एयाती सोयानो साँस, चेव जिरिदाणं । सव्वजगवच्छलाणं, सवोतुयसुभाए छायाए । ५. पुब्धि उक्खित्ता, माणुसेहि साहहरोमकूवेहि। पच्छा वहंति सीयं, असुरिंदसुरिदनागिंदा ॥ ६. चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउवियाभरणधारी। सुरअसुरवंदियारणं, वहंति सीयं जिगिदाणं ॥ ७. पुरो वहंति देवा, नागा पुण दाहिम्मि पासम्मि। पच्चत्थिमेण असुरा, गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ शिविका को पहले संहृष्ट रोम कूपवाले मनुष्य उठाते हैं पश्चात् असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र वहन करते हैं। वे चल-चपल कुडलधारी, अपनी इच्छा से विनिर्मित आभरणों के धारी, सुरासुर से वंदित जिनेन्द्रों की शिविका को वहन करते हैं। उसे पूर्व में देव, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुड़ वहन करते हैं। ८७. उसभो य विरणीयाए, बारवईए अरिठ्ठवरणेमि । अवसेसा तित्थयरा, निक्खंत्ता जम्मभूमीसु ॥ १८. सवेवि एगदूसेण, 'णिग्गया जिणवरा चउवीसं । ८७. भगवान् ऋपभ विनीता से, __ अरिष्टनेमि द्वारवती से और शेप तीर्थङ्कर अपनी-अपनी जन्मभूमि से निष्क्रान्त हुए थे। ८८. सभी चौबीस तीर्थकर एक दूष्य से । निर्गत हुए थे, अन्यलिंग, गृहलिंग समवाय-सुत्तं २८५ समवाय-प्रकीर्ण Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगे, पाम णय गिलिगे कुलिगे वा ॥ ८६. १. एक्को भगदं वोरो, पासी मल्लो य तिहि-तिहि सह नयवंद वासुपुज्जो, छह पुरिससहि नित्तो ॥ २. उग्गा भोगाणं राइष्णाणं, खत्तियाणं च चह सहस्सेह उस भो, सेसा उ सहस्तपरिवारा ॥ च ६०. १. सुमइत्य सिञ्चनत्तेण, मित्रो वासुपुज्जो जिलो चरत्येणं । २. पासी मल्ली विय, श्रमेण सेसा उछट्ठे ॥ ३१. एएसि णं चवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पदमभिक्लादया होत्या, तं जहा १. सेज्जसे बंभदत्ते, सुरिददत्ते च ददत्ते य । तत्तो य धम्मसीहै, सुमिते तह धम्ममित्तं य ॥ पुस्मे पुररान्वन्नू पुण्रानंद, सुगदे जये य विजये य । परमेय सोमदेवे महिददते थ सोमदत्ते व ॥ समदाय-मुत ६=९ या कुलिंग से नहीं । ८६. भगवान वीर अकेले, पार्श्व और मल्ली तीन-तीन सौ पुरुषों के साथ और भगवान् वासुपूज्य छह सां पुरुषों के साथ निष्कान्त / प्रव्रजित हुए थे । भगवान् ऋषभ चार हजार उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रियों के साय निष्क्रान्त हुए थे और शेष तीर्थङ्कर हजार-हजारं परिवारों के साथ | ६०. भगवान सुमति नित्यनक्त / उपवासरहित, वासुपूज्य चतुर्य भक्त / एक उपवास, पार्श्व और नल्ली अष्टम भक्त / तीन उपवास और शेय बीस तीर्थङ्कर छट्टु भक्त / दो उपवास पूर्वक निर्गत हुए । - ९१. इन चोदी तीरों के चौबीस प्रथम भिक्षादाता हुए, जैसे कि ३. १. श्रेयांन २. ब्रह्मदत्त, सुरेन्द्रदत्त, ४. इन्द्रदत्त, ५. धर्मसिंह. ६. सुमित्र, ७. वर्ममित्र. =. पुष्प, २. पुनर्वसु, १०. पुण्यनन्द, १९ सुनन्द. १२. जय, १३. विजय. १४. पद्म. १५. सोमदेव, १६. महेन्द्रदन १७. मोमदत्त, १८. पराजित १६. विश्वसेन, २०. समवायः प्रकीर्ण Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋपभसेन, २१. दत्त, २२. वरदत्त, २३. धन्य, २४, बहुल । ३. अपराजिय वीससेरणे, वीसतिमे होइ उसमसेणे य। दिपणे वरदत्ते, धन्ने वहुले य प्राणुपुटवीए॥ ४. एते विसुद्धलेसा, जिणवरभत्तीए पंजिलिउडा उस काल और उस काल में इन विशुद्ध लेश्या वाले लोगों ने जिनवर-भक्ति से प्राञ्जलिपुट होकर, जिनवरों को प्रतिलाभित कियाआहार दिया। तं कालं तं समयं, पडिलाभेई जिणवरिंदे ।। ६२. १. संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसमेण लोगणाहेण । सेसेहि बीयदिवसे, लद्धामो पढममिक्खायो । २. उसभस्स पढमभिक्खा, खोयरसोभासि लोगणाहस्सा सेसाणं परमण्णं, अमयरसरसोवमं आसि ॥ ३. सर्वसिपि जिरवाणं, जहियं लद्धामो पढमभिक्खाओ। तहियं वसुधाराओ, सरीरमेतीनो बुझानो॥ ६२. लोकनाथ ऋपभ ने प्रथम भिक्षा एक संवत्सर/वर्ष पश्चात् उपलब्ध की थी। शेप तीर्थङ्करों ने प्रथम भिक्षा दूसरे दिन उपलब्ध की थी। लोकनाथ ऋपभ की प्रथम भिक्षा इक्षुरस थी और शेष तीर्थङ्करों की अमृतरसतुल्य परमान्न खीर थी। सभी जिनवरों को जहां प्रथम मिक्षा प्राप्त हुई, वहां शरीर-प्रमाण सुवर्णवृष्टि हुई। ६३. चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस चैत्यवृक्ष थे, जैसे कि ६३. एतेसि णं चउवीसाए तित्थ- गराणं चउवीसं चेइयरक्खा होत्था, तं जहा~ १. रणग्गोह - सत्तिवणे, साले पियए पियंगु छत्ताहे। सिरिसे य गागरुक्खे, माली य पिलखुरुक्खे य॥ २. तेंदुग पाडल जंबू, पासोत्थे खलु तहेव दधिवण्ण। १. न्यग्रोध, २. सप्तपर्ण, ३. शाल, ४. प्रियाल, ५. प्रियंगु, ६. छनाक, ७. शिरीष, ८. नागवृक्ष, ६. माली, १०.प्लक्ष, ११.तिदुक, १२. पाटल १३. जंबु, १४.अश्वत्थ, १५.दधिपर्ण, १६. नंदि, १७. तिलक, १८. समवाय-सुतं २८७ समवाय प्रकीर्ण Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्र, १६. अशोक, २०. चम्पक, २१. वकुल, २२. वेतस, २३. घातकी, २४. शाल । वर्द्धमान का अशोक चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुप ऊँचा, नित्य-ऋतुक/सदा हराभरा और शालरुक्ष से अवच्छन्न था । जिनवर ऋषभ का चैत्यवृक्ष तीन गाउ ऊँचा था। शेप तीर्थङ्करों के चैत्यवृक्ष उनके शरीर से बारह गुने ऊँचे थे। गंदीरक्खे तिलए य, अंबयरुक्से असोगे य ।। ३. चंपय वउले य तहा, वेडसिरुक्खे धायईरक्खे। साले य वड्डमारणस्स, चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ४. बत्तीसई घण्इं, चेइयरुक्खोय वद्धमारणस्स। णिच्चोउगो असोगो, श्रोच्छण्णो सालरक्खेणं ॥ ५. तिणे व गाउयाई, चेइयरक्खो जिणस्स उसमस्स । सेसाणं पुण रुक्खा, सरीरतो बारसगुणा उ ॥ ६. सच्छत्ता सपडागा, सवेइया तोरणेहि उववेया। सुरअसुरगरलमहिया, चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ १४. एतेसि णं चउवीसाए तित्य गराणं चउवीसं पढमसीसा होत्या, तं जहा१. पढमेत्य उसभसेरणे, वीए पुण होइ सोहसेणे उ। चारू य वज्जणामे, चमरे तह सुव्वते विदन्भे ॥ २. दिपणे वाराहे पुण, पाणंदे गोयने सुहम्मे य । मंदर जसे रिठे, चक्काउह सयनु कुभ य ।। ३.मिसए य इंदे कुभे, वरदते दिगण इंदभूती य। जिनवरों के चैत्यवृक्ष छत्र, पताका, वेदिका और तोरण-उपेत तथा सुर, असुर और गरुड़ देवों द्वारा पूजित थे। ६४. चौबीस तीर्थङ्करों के प्रथम शिष्य चौबीस थे। जैसे कि १. ऋपभसेन, २.सिंहसेन, ३. चारु, ४. वज्रनाभ, ५. चमर, ६. सुव्रत, ७. विदर्भ, ८. दत्त, ६. वाराह, १०. गानन्द, ११ कौस्तुभ, १२. सुधर्मा, १३.मन्दर, १४. यश, १५. अरिप्ट, १६. चक्रायुध, १७. स्वयंभू, १८. कुम्भ, १६.भिपक्, २०. इन्द्र, २१. कुम्भ, २२. वरदत्त, २३. दन, २४. इन्द्रभूति । समवाय-सुत्तं २८८ समवाय-प्रक्रीण Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदितोदितकुलवंसा, . विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया।। तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सा जिणवराण ॥ तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों के प्रथम शिष्य उदितोदित कुल - वंश वाले, विशुद्ध वंश वाले और गुणों से उपेत थे। ___E५. चौवीस तीर्थड्रों की प्रथम शिष्याएं चौबीस थी, जैसे कि ६५. एएसि जं चउवीसाए तित्थ गराणं चउवीसं पढमसिस्सिणीनो होत्या, तं जहा१.बंभी फग्गू सम्मा, अतिराणी कासवी रई सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा, धारिणि धरणो य धरणिधरा॥ २. पउमा सिवा सुइ अंजू, भावियच्या य रक्खिया। बधू पुप्फवती चेव, अज्जा धणिलाय माहिया ॥ ३. जक्खिणी पुप्फचूला य, चंदणज्जा य आहिया। उदितोदितकुलवसा, विसुद्धवसा गुणेहि उववेया। तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सी जिणवराणं॥ १. ब्राह्मी, २. फल्गु, ३. शर्मा, ४.अतिराज्ञी, ५. काश्यपी, ६. रति, ७. सोमा, ६. सुमना, ६. वारुणी, १०. सुलसा, ११. धारणी, १२. धरणी, १३. धरणिधरा, १४, पद्मा, १५. शिवा, १६. शुचि, १७.अंजू, १८. भावितात्मा रक्षिका १६. बन्धू, २०. पुष्पवती, २१. आर्या धनिला, २२. यक्षिणी, २३. पुष्पचूला और २४, आर्या चन्दना। तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों की प्रथम शिष्याएँ उदितोदित कुलवंशवाली, विशुद्ध वंश वाली और गुणों से उपेत थी। १६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी में बारह चक्रवर्ती के बारह पिता थे। जैसे कि ६६. जबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए बारस चक्कवट्टि-पियरो होत्था, तं जहा१. उसमे सुमित्तविजए, समुद्दविजए य अस्ससेणे य। विस्ससेणे य सूरे, सुदंसणे कत्तवीरिए य॥ १. ऋषभ, २. मुमित्रविजय, ३. समुद्रविजय, ४. अश्वसेन, ५. विश्वसेन, ६. सूर, ७. सुदर्शन, ८. कार्त्तवीर्य, ६. पद्मोत्तर, १०. महाहरि, समवाय-प्रकीर्ण समवाय-सुत्त २८६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पउमुत्तरे महाहरी, विजय राया तहेव य । बम्हे वारसमे वृत्ते, पिउनामा चक्कवट्टीणं ॥ ७. जंबुद्दीवे णं भरहे वासे इमाए प्रोसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिमायरो होत्या, तं जहा - १. सुमंगला जसवती, भद्दा सहदेवी र सिरि तारा जाला मेरा, वप्पा चलणी अपच्छिमा ॥ देवी । ६८. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे श्रसप्पिणीए बारस चक्कवट्टीहोत्या, तं जहा--- १. भरहो सगरो मघवं, सकुमारो य रायसद्द लो । संती कुंथू य श्ररो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ॥ २. नवमी य महापउमो, हरिसेणो चेव रायसलो । जयनामो य नरवई, वारसमो वंभदत्तो य ॥ गमवाय- सुत ६६. एएसि णं बारसहं चक्कवट्टीगं इत्रियणा होत्या, वारस तं जहा १. पढमा होइ सुनद्दा, भद्दा सुनंदा जया य विजया य । २६० ११. विजयराजा, १२. ब्रह्मा । ६७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी में बारह चक्रवर्तियों की बारह माताएँ थीं । जैसे कि१. सुमंगला, २. यशस्वती, ३. भद्रा, ४. सहदेवी, ५. अचिरा, ६. श्री, ७. देवी, ८. तारा, ६. ज्वाला, १०. मेरा, ११. वप्रा, १२. चुलनी । ८. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी में वारह चक्रवर्ती हुए थे । जैसे कि -- १. भरत, २. सगर, ३. मघव, ४. राजशार्दूल सनत्कुमार, ५. शान्ति, ६. कुन्थु, ७. अर, ८. कुरुवंशज सुभूम, ६. महापद्म, १०. राजशार्दूल हरिपेण, नरपति जय, १२. ब्रह्मदत्त । ११. ६६. इन बारह चक्रवर्तियों के बारह स्त्री - रत्न थे, जैसे कि- १. सुभद्रा, २. भद्रा, ४. जया, ५. विजया, श्री, ७. सूर्यश्री, ३. सुनन्दा, ६. कृष्णपद्मश्री, ६. समवाय- प्रकीर्ण Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्हसिरि सुरसरि, पउमसिरि वसुंधरा देवी ॥ च्छिमई कुरुमई, इत्थिरयणाण नामाई ॥ १००. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वाले इमोसे श्रोसप्पिणीए नव बल होत्या, देव वासुदेव- पितरो तं जहा - १. पावई य बंभे, -- रोद्दे सोमे सिवेति य । महसि अग्गिसिहे, दसरहे नवमे य वसुदेवे ॥ १०१. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमोसे प्रोप्पिणीए गव वासुदेव- मायरो होत्या, तं जहा - १. मियावई उमा चेव, पुहषी सीया य श्रम्मा या लच्छितो सेसवती, केकई देवई इय || १०२. जंबुद्दीवे णं दोवे भरहे वासे इमोसे श्रोसप्पिणीए णव बलदेव मायरो होत्या, तं जहा - १. भद्दा तह सुभद्दा य, सुदंसणा । सुप्रभा य विजया य वेजयंती, जयंती णवमिया रोहिणी, चलदेवाण अपराइया ॥ मायरो ॥ १०३. जंबुद्दीवे गं दीवे भरहे वासे इमाए श्रसपिणीए नव दसारमंडला होत्या, तं जहा - समवाय-सुतं वसुन्धरा, १०. देवी, ११. लक्ष्मीमती, १२. कुरुमती । १००. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों के नौ पिता थे । जैसे कि - १. प्रजापति, २. ब्रह्मा, ३. रुद्र, ४. सोम, ५. शिव, ६. महासिंह, ७. अग्निसिंह, प. दशरथ, ६. वसुदेव । १०१. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी में नो वासुदेवों की नौ माताएँ थीं, जैसे कि१. मृगावती, २. उमा, ३. पृथ्वी, ४. सीता, ५. ग्रम्वका, ६. लक्ष्मीमती, ७. शेषवती, कैकयी, C. देवकी । ८. १०२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस सर्पिणी में नौ बलदेवों की नो माताएँ थीं, जैसे कि -- १. भद्रा, २. सुभद्रा, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना, ५. विजया, ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता, ६. रोहिणी । २६१ १०३. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में इस raefrut में नौ दशारमण्डल वासुदेव / वलदेव हुए थे, जैसेकि - समवाय- प्रकीर्ण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा प्रोयंसी तेयंसी बच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदसणा सुरूवा सुहसोला सुहाभिगमा सन्दजणणयण-कंता मोहवला अइवला महाबला अणिया अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्स-माण-महणा साणुक्कोसा प्रमच्छरा अचवला अचंडा मिय - मंजुल - पलाव - हसिया गंभीर-मधुर-पडिपुण्ण-सच्चवयणा अन्भुवगय - वच्छला सरप्णा लक्खणवंजण - गुणोववेया माणुम्माण - पमाणपडिपुण्ण -सुजात-सव्वंग-स दरंगा ससिसोमागार-कंतपिय - दसणा अमसणा पयंडदंडप्पयार-गंभीरदरिसरणज्जा तालद्ध-प्रोटिवद्धगरुल-केक महाधणुविकडगा महासत्तसागरा दुद्धरा घणुदरा धोरपुरिसा जुद्ध - कित्तिपुरिसा विउलकुल-समुन्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुल-वंस - तिलया अजिया अजियरहा हल-मुसलकणगपाणी संख-चक्कनाय-सत्तिनंदगधरा पवरुज्जल-सुबकंतविमलगोयुभ • तिरोडधारी कुंडलउज्जोइयाणणा पुंडरीय-णयणा एकालि-कंठलइयवच्या सिरिबच्च-सलंछणा-वरजसा सबोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइत-पलंद उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, प्रधान पुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, छायावन्त, कान्त, सोम, मुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, सुख, शील, सुखाभिगम, सर्वजन-नयनकान्त, ओघ बल वाले, अति बल वाले, महावल वाले, अनिहत, अपराजित, शत्रु का मर्दन करने वाले, हजारों शत्रुओं के मान को मथने वाले, सानुक्रोश/ दयालु, अमत्सर, अचपल, अचंड/मृदु, मितमंजुल वार्तालाप करने वाले, हंसने वाले, गम्भीर, मधुर, प्रतिपूर्ण सत्यवचन बोलने वाले, अतिथि-वत्सल, भरण्य, लक्षण-व्यञ्जन और गुणों से उपेत, मान-उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण सुजात सर्वाङ्ग सुन्दर अंग वाले, चन्द्रवत् सौम्याकार, कान्त और प्रियदर्शन वाले, अमपंण, प्रकांड दंडनीति वाले, गम्भीर दर्शनीय, तालध्वज वाले तथा उच्छ्रित-गरुडध्वज वाले, बड़े-बड़े धनुप चढ़ाने वाले, महासत्वसागर, दुर्घर, धनुर्धर, धीरपुरुप और युद्ध में कीर्तिपुरुप, विपुलकुल में ममुत्पन्न, महारत्न/वज्र के विघटक, अर्ध भरत के स्वामी, सोम, राजकुलवंश-तिलक, अजित, अजेय रथ बाले, हल-मूगल तथा करणक/ बारा, शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नंदक धारी, प्रवर-उज्ज्वल-शुक्लांत और निर्मल कौस्तुम किरीटधारी कुडलों में उद्योतित, पुंडरीक, समवाय-मुक्तं समवाय-प्रकीर्ण Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमंतकंत-विकसंत - चित्त - वर मालरइय वच्छा अट्ठसय विभत्त-लक्खण- पसत्य - सुन्दरविरइयंगमंगा मत्तगयवरद ललिय - विक्कम - विलसियगई सारय- नवयणियमधुर - गंभीरकोंच-निग्घोस- दुदुभिसरा कडि - सुत्तग- नीलपीय - कोसेयवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिदा नरवसभा मरुयवसभकप्पा प्रभहियं राय - तेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलगपीतग - वसणा दुवे- दुवे रामकेसवा भायरो होत्या, तं जहा - - १. तिविट्ठू यदुविट्ठू य, सयंभू पुरिसुत्तमे । पुरिससीहे तह पुरिस पुंडरीए, दत्ते नारायणे कण्हे ॥ २. विज भ सुप य सुदंसणे । श्राणंदे णंदणे पउमे, रामे यावि पच्छिमे ॥ १०४. एसि णं रगवहं बलदेव-वासु समवाय-सुत्तं कमल नयन वाले, एकावली हार कण्ठ शोभित वक्ष वाले, श्रीवत्स चिह्न वाले, यशस्वी, सव ऋतुओं के सुरभि - कुसुमों से सुरचित, प्रलम्ब शोभायमान, कमनीय, विकस्वर, विचित्र वर्ण वाली उत्तम माला से शोभित वक्ष वाले, पृथक्-पृथक् एक सौ ग्राठ लक्षणों से प्रशस्त और सुन्दर अंगोपांग वाले, मत्त गजवरेन्द्र को ललित विक्रम - विलसित जैसी गति वाले शरद ऋतु के नव स्तनित, मधुर, गम्भीर क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा दुंदुभि स्वरवाले, कटिसूत्र तथा नील और पीत कौशेय वस्त्रों से प्रवर- दीप्त तेज वाले, नरसिंह, नरपति, नरेन्द्र, नरवृपभ, मरुदेश के वृषभ तुल्य, प्रभ्यधिक राज्यतेज की लक्ष्मी से देदीप्यमान, नील और पीत वस्त्र वाले दो-दो राम ( बलराम ) और केशव (वासुदेव) भाई थे, जैसे कि - त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुपसिंह, पुरुषपुड डरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण [ -- ये नौ वासुदेव थे । ] २६३ अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म श्री राम [ ये नौ बलदेव थे । ] १०४. इन नौ बलदेवों और नी वासुदेवों समवाय- प्रकीर्ण Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पूर्वभव के नौ-नौ नाम थे, जैसे कि१.विश्वभूति, २. पर्वतक, ३. धनदत्त, ४. समुद्रदत्त, ५. शैवाल, ६. प्रियमित्र, ७. ललितमित्र, ८. पुनर्वसु, ६. गंगदत्त । ये नाम वासुदेवों के पूर्वभव के थे। बलदेवों के नाम यथाक्रम कहूँगा--- १. विषनन्दी, २. सुबन्धु, ३. सागरदत्त, ४.अशोक, ५. ललित, ६. वाराह, ७. धर्मसेन, ८. अपराजित, ६. राजललित। १०५. इन नौ वासुदेवों के पूर्वभविक नौ धर्माचार्य थे, जैसे कि देवाणं पुत्वमविया नव-नव नामधेज्जा होत्या, तं जहा१. विस्सभूई पन्वयए, घणरत्त समुद्ददत्त सेवाले। पियमित्त ललियमिते, पुणन्वसू गंगदत्ते य॥ २. एयाई नामाई, पुत्वभवे प्रासि वासुदेवाणं। एतो वलदेवाणं, जहक्कम कित्तइस्सामि ॥ ३. विसनंदी सुबंधू य, सागरदत्ते असोगललिए य। वाराह धम्मसेणे, अपराइय रायललिए य ।। १०५. एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं पुटवभविया नव धम्मायरिया होत्या, तं जहा--- १. संभूत सुभद्दे सुदंसरणे, य सेयंसे कण्हं गंगदत्ते य । सागरसमुद्दनामे, दुमसेणे य गवमए । २. एते धम्मायरिया, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं। पुत्वभवे आसिहं, जत्थ निदाणाई कासीय ॥ १०६. एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं पुस्वभवे नव निदाणभूमिनो होत्या, तं जहा१. महरा य करणगवत्यू, सापत्यी पोयणं च ___रायगिहं। ममवाय मुतं १. संभूत, २. सुभद्र, ३. सुदर्शन, ४. श्रेयांस, ५. कृष्ण, ६. गंगदत्त, ७. सागर, ८. समुद्र, ६. द्रुमसेन । ये नी धर्माचार्य कीर्तिपुरम्प वासुदेवों के थे। इन [वासुदेवों] ने पूर्वभव में निदान किया। १०६. इन नौ वासुदेवों के पूर्वभव में नी निदान-भूमियां थीं, जैसे कि १. मथुरा, २. कनकवरतु, ३. थावरती, ४. पोतनपुर, ५. राजगृह. ६. काकन्दी, ७. कौशांबी, २६४ समवाय-प्रकीर्ण Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. मिथिलापुरी और ६. हस्तिना कायंदी कोसंवी, मिहिलपुरी हत्यिणपुरं च॥ १०७. इन नौ वासुदेवों के निदान करने के नौ कारण थे, जैसे कि १०७. एतेसि गं नवण्हं वासुदेवाणं नव नियाणकारणा होत्या, तं जहा१. गावो जुवे य संगामे, इत्यी पराइयो रंगे। भज्जाणुराग गोट्ठी, परइड्री माउया इय॥ १. गाय, २.चूत, ३. संग्राम, ४. स्त्री, ५. रण में पराजय, ६. भार्यानुराग, ७. गोष्ठी, २. पर-ऋद्धि, ६. माता । १०८. इन नी वासुदेवों के नौ प्रतिशत्रु थे। जैसे कि-- १०८. एएसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव पडिसतू होत्या, तं। जहा१. अस्सग्गीवे तारए, मेरए महकेढवे निसुमे य । बलि पहराए तह, . रावणे य नवमे जरासंधे ॥ २. एए खलु पडिसत्त, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं। सवे वि चक्कजोही, सवे वि हया सचक्केहि ॥ १.अश्वग्रीव, २. तारक, ३. मेरक, ४. मधुकैटभ, ५. निशुभ, ६. बलि, ७. प्रभराज, ८. रावण, ६. जरासंघ । ये कीर्तिपुरुष वासुदेवों के प्रतिशत्रु थे, सभी चक्र-योधी थे और सभी अपने ही चक्र से मारे गए। १०६. १. एक्को य सत्तमाए, पंच यछट्ठीएपंचमा एक्को। एक्को य चउत्योए, कण्हो पुण तच्चपुढवीए॥ २. अणिदाणकडा रामा, सन्वेवि य केसवा नियाणकडा । उड्ढंगामी रामा, केसव सव्वे अहोगामी ॥ १०९. मरणोपरान्त एक [ वासुदेव ] सातवीं पृथ्वी में, पांच छट्ठी पृथ्वी में, एक पांचवी पृथ्वी में, एक चौथी पृथ्वी में और कृष्ण तीसरी पृथ्वी में गए। सभी राम/बलदेव अनिदानकृत होते हैं, सभी केशव/वासुदेव निदानकृत होते हैं, सभी राम ऊर्ध्वगामी होते हैं और सभी केशव अधोगामी होते हैं। समवाय-प्रकीर्ण समवाय-सुत्तं २६५ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. अळंतकडा रामा, एगो पुण वंभलोयकप्पमि । एक्का से गन्भवसही, सिन्झिस्सइ पागमेस्साणं ।। आठ राम/बलदेव अन्तकृतं हुए और एक [बलभद्र ] ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुआ। वह भविष्य । में एक गर्भवास करेगा और सिद्ध होगा। ११०. जंबुद्दीवे णं दीवे एरवए वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्या, तं जहा१. चंदाणणं सुचंदं च, अग्गिसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं वयहारि, वदिमो सामचंदं च ।। २.वंदामि जुत्तिसेगं, अजियसेणं तहेव सिवसेणं । वुद्धं च देवसम्म, सययं निविखत्तसत्थं च ॥ ३. असंजलं जिणवसह, वंदे य अणतयं अमियणाणि। उवसंतं च धुयरयं, वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥ ४. अइपासं च सुपासं, देवसरवंदियं च मरुदेवं । णिव्वाणगयं च घरं, खीणंदुहं सामकोळं च ॥ ५. जियरागमग्गिसेणं, वंदे खोएरयमग्गिउत्तं च । वोक्कसियपेज्जदोसं च, वारिसेणं गयं सिद्धि। १११. जंबुद्दीये णं दोवै नरहे वासे पागमेस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा भविस्संति, सं जहा ११०. जम्बूद्वीप द्वीप के ऐरवत वर्ष में इस अवसर्पिणी में चौबीस तीर्थकर हुए थे। जैसे कि१. चन्द्रानन, २. सुचन्द्र, ३. अग्निषेण, ४. नंदिपेण, ५. ऋषिदत्त, ६. व्रतधारी, ७. श्यामचन्द्र, ८. युक्तिपेण, ६. अजितसेन, १०. शिवसेन. ११. देवशर्मा, १२. निक्षिप्तशस्त्र, १३. असंज्वल, १४. अनन्तक, १५. उपशान्त, १६. गुप्तिपेण, १७. अतिपाव, १८. सुपार्श्व, १९. मरुदेव, २०. धर, २१. श्यामकोष्ठ, २२. अग्निपेण, २३. अग्निपुत्र, २४. वारिपेण । १११. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में आगामी उत्सपिणी में सात कुलकर होंगे। जैसे कि . समदाय-सुत्त २९६ समयाय-प्रकीर्ण Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मित्तवाहणे सुभूमे य, सुप्पहे य सयंपहे। दत्ते सहमे सुबंधू य, प्रागमेस्साण होक्खति ।। १. मित्रवाहन, २. सुभूम, ३. सुप्रभ, ४. स्वयंप्रभ, ५. दत्त, ६. सूक्ष्म, ७. सुवन्धु । ११२. जंबुद्दीवे गं दीवे भरहे वासे प्रागमिस्साए प्रोसप्पिणीए दस फुलगरा भविस्संति, तं जहा१. विमलवाहणे सीमंकरे, सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे। दढधणू दसधणू, सयधणू पडिसूई संमूइत्ति ॥ ११२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में आगामी अवसर्पिणी में दस कुलकर होंगे। जैसे कि१. विमलवाहन, २. सीमकर, ३. सीमंधर, ४. क्षेमंकर, ५. क्षेमंधर, ६. दृढधनु, ७. दशधनु, ८. शतधनु, ६.प्रतिश्रुति, १०. सन्मति । ११३. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में आगामी उत्सपिणी में चौबीस तीर्थङ्कर होंगे। जैसे कि ११३. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे प्रागमिस्साए उस्सप्पिणीए चवीसं तित्थगरा भविस्संति, तं जहा१. महापउमे सूरदेवे, सुपासे य सयंपहे । सव्वाणुभूई अरहा, देवउत्ते य होक्खति ॥ २. उदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिले सतए ति य । मुणिसुध्वए य अरहा, सव्वभावविउ जिरणे ।। ३. अममे णिक्कसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे । चित्तउत्ते समाही य, प्रागमिस्साए होक्खइ ॥ ४. संवरे अणियट्टी य, . विजए विमलेति य । देवोववाए अरहा, अणंतविजए ति य॥ १. महापद्म, २. सूरदेव, ३. सुपार्श्व,. ४. स्वयंप्रभ, ५. अर्हन् सर्वानुभूति, ६. देवपुत्र, ७. उदक, ८. पेढालपुत्र, ६. पोट्टिल, १०. शतक, ११. अर्हन् मुनिसुव्रत, १२. सर्वभावविद्, • १३. अमम, १४. निष्कपाय, १५. निष्पुलाक, १६. निर्मम, १७. चित्रगुप्त, १८. समाधि, १६. संवर, २०. अनिवृत्ति, २१. विजय, २२. विमल, २३. देवोपपात, २४. अनन्तविजय । समवाय-सुत्त २९७ समवाय-प्रकीर्ण Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. एए वृत्ता चउवीसं, भर हे वासम्मि केवली । श्रागमेस्साण होवखति, धम्मतित्यस्स देगा || ११४. एतेसि णं चउवोसाए तित्थगराणं पुन्वभविया चउवीसं नामघेज्जा भवित्संति, तं जहा १. सेणिय सुपास उदए, पोट्टिल अणगारे तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा, नंद सुनदे सतए य बोद्धव्वा ॥ २. देवई च्चेव सच्चई, तह वासुदेव बलदेवं । रोहिणी तुलसा देव, ततो खलु रेवई चैव ॥ ३. तत्तो हवइ मिगाली, वोद्धव्वे खलु तहा समावय-मुत भयाली य । दोवायणे य कण्हे, तत्तो खलु नारए चैव ॥ ४. श्रंवडे दारुमडे य, साईबुद्धे य होइ बोद्धव्वे | उस्सप्पिणी श्रागमेस्साए, तित्थगराणं तु पुस्वभवा ॥ ११५. एतेति पं चडवीसाए तित्यगराणं चउवीसं पियरो भवि स्सति, चडवीमं मायरो भविसंति, चउवीसं पढमसीसा भविसंति, चउवोसं पढमसिस्सिणोश्रो भविस्संति, चउवीसं पदमभिवादाभविस्तति, चउ वीसं चेइयरक्सा भविस्संति । E ये चौवीस तीर्थङ्कर भविष्य में भरतवर्ष में धर्मतीर्थ के उपदेशक / प्रवर्तक होंगे । ११४. इन चौवीस तीर्थङ्करों के पूर्वभविक नाम चौवीस थे, जैसे कि - ८. नंद, १. श्रेणिक, २. सुपार्श्व, ३. उदक, ४. अनगार पोट्टिल, ५. दृढायु, ६. कार्तिक, ७. शंख, ६. सुनंद, १०. शतक, ११. देवकी, १२. सत्यकी, १३. वासुदेव, १४. बलदेव, १५. रोहिणी, १६. सुलसा, १७. रेवती, १८. मृगाली, १६. भयाली, २०. कृष्णद्वीपायन, २१. नारद, २२. अम्बड़, २३. दामड, २४. स्वातिबुद्ध । ये ग्रागामी उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थकरों के पूर्व भविक नाम हैं । ११५. इन चौबीस तीर्थङ्करों के चोवीस पिता, चौवीस माताएँ, चावीस प्रथम - शिष्य, चौबीस प्रथमशिष्याएँ, चौवीस प्रथम - मिक्षादायक और चौवीस चैत्यवृक्ष होंगे । समवाय- प्रकीर्ण Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में आगामी उत्मपिणी में बारह चक्रवर्ती होंगे, जैसे कि१. भरत, २. दीर्घदन्त, ३. गूढदन्त, ४. शुद्धदन्त, ५. श्रीपुत्र, ६. श्रीभूति, ७. श्रीसोम, ८. पद्म, ६. महापद्म, १०. विमलवाहन, ११. विपुलवाहन, १२. रिष्ट । ११६. जंबुद्दीवे गं दीवे भरहे वासे प्रागमेस्साए उस्सप्पिणीए वारस चक्कवट्टी भविस्संति, तं जहा१. भरहे य दोहदंते, गूढदंते य सुद्धदंते य । सिरिउत्ते सिरिभूई, सिरिसोमे य सत्तमे ॥ २. पउमे य महापउमे, विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव । रिठे बारसमे वुत्ते, आगमेसा भरहाहिवा ॥ ११७. एतेसि गं बारसण्हं चक्कवट्टीणं वारस पियरो भविस्सति, बारस मायरो भविस्सति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति । ११७. इन बारह चक्रवतियों के बारह, पिता, बारह माताएं और बारह स्त्रीरत्न होंगे। ११८. जंबुद्दीवे गं दीवे मरहे वासे ११८, जम्बूद्वीप द्वीप के भरतवर्ष में आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव आगामी उत्सर्पिणी में नौ बलदेवबलदेव-वासुदेवपियरो भवि- वासुदेवों के नौ पिता, नौ वासुदेवों संति नव-वासुदेव-मायरो की नौ माताएँ, नौ वलदेवों की भविस्संति, नव बलदेव-मायरो नौ माताएँ और नौ दशारमण्डल भविस्संति, नव दसारमंडला होंगे, जैसे किभविस्संति, तं जहाउत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुप, प्रधानपहाणपुरिसा प्रोयंसी तेयंसी एवं पुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, यावत् सो चेव धण्णो भणियन्वी नील-पीत वस्त्र वाले दो-दो राम जाव नीलग-पीतग-वसणा दुवे- और केशव भाई होंगे, जैसे किदुवे राम-केसवा भायरो भविस्संति, तं जहा१. नंदे य नंदमित्ते, नंद, नंदमित्र, दीर्घबाहु, महावाहु, दोहबाहू तहा महाबाहू । अतिबल, महावल, बलभद्र, द्विपृष्ठ समवाय-सुतं २६६ समवाय-प्रकीर्ण Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइवले महाबले, वलभद्दे य सत्तमे ॥ २. दुविळू य तिविठू य, प्रागमेसारण वहिणो । जयंते विजय भद्दे, सुप्पहे य सुदंसणे । प्राणंदे नंदणे पउमे, संकरिसणे य अपच्छिमे ॥ और त्रिपृष्ठ-भविष्य में ये नौ वासुदेव होंगे। जयंत, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म और संकर्षणये नौ बलदेव होंगे। ११६. इन नौ बलदेव-वासुदेवों के नौ-नौ पूर्वभविक नाम, नौ धर्माचार्य, नौ निदानभूमियां, नौ निदान-कारण और नौ प्रतिशत्रु होंगे । जैसे कि ११६. एएसि णं नवण्हं बलदेव-वासु देवाणं पुन्वनविया णव नामघेज्जा भविस्संति, नव धम्मायरिया मविस्संति, नव नियाणभूमियो भविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्सति, तं जहा१. तिलए य लोहजंघ, वरइजंघे य केसरी पहराए। अपराइए य भीमे, महानोमे य सुग्गीवे ॥ २. एए खलु पडिसत्त, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सवैवि चक्कजोहो, हम्मिहिति सचक्केहि ॥ १. तिलक, २. लोहजघ, ३. वज्रजंघ, ४. केसरी, ५. प्रभराज, ६. अपराजित, ७. भीम, ८. महाभीम, ९. सुग्रीव । ये कीर्तिपुरुप वासुदेवों के प्रतिशत्रु होंगे, सभी चक्र-योधी होंगे और सभी अपने ही चक्र से मारे जायेंगे। १२०. जम्बूद्वीग द्वीप के ऐरवत वर्ष में आगामी उत्सपिणी में चौबीस तीर्थङ्कर होंगे, जैसे कि १२०. जंबुदीवे गं दोवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्यगरा भविस्संति, तं जहा१. सुमंगले य सिद्धत्ये, णिव्याणे य महाजसे। धम्मज्झए य अरहा, प्रागमिस्साण होक्सइ ॥ • मनवाय-मुत्तं १. नुमंगल, २. सिद्धार्य, ३. निर्वाण, ४. महायश, ५. धर्मध्वज, ६. श्रीचन्द्र, ७..पुष्पकेतु, ८, महानन्द्र, ६. श्रुतसागर, १०. समवाय-प्रकीर्ण Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सिरीचंदे पुष्ककेऊ, महाचंदे सुयसागरे य रहा, श्रागमिस्साण होक्खइ ॥ य केवली । ३. सिद्धत्ये पुण्णघोसे य, महाघोसे सच्चसेणे य रहा, श्रागमिस्साण होक्खइ ॥ य केवली । ४. सूरसेणे य श्ररहा, महासेणे य केवली | सव्वाणंदे य रहा, देवउत्ते य होक्खइ ॥ ५. सुपासे सुव्वए रहा, रहे य रहाणंतविजए, श्रागमिस्साण होक्खइ || कोसले | ६. विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महाबले । देवानंदे य रहा, श्रागमिस्साण होक्खइ ॥ ७. एए वृत्ता चउव्वीसं, एरवयम्मि श्रागमिस्सारण होक्खंति, धम्म तित्थस्स समवाय-सुतं - केवली | १२१. बारस चक्कवट्टी भविस्संति, वारस चक्कवट्टीपियरो भविस्संति, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति । देसगा ॥ नव बलदेव वासुदेवपियरो भविस्संति, णव वासुदेव - मायरो भविस्संति, णव दसारमंडला ३०१ पुण्यघोष, ११. महाघोष, १२. सत्यसेन, १३. शूरसेन, १४. महासेन, १५. सर्वानन्द, १६. देवपुत्र, १७. सुपार्श्व १८. सुव्रत, १६. सुकौशल, २०. अनन्तविजय, २१. विमल, २२. उत्तर, २३. महाबल और २४. देवानन्द | ये चौवीस तीर्थङ्कर श्रागामी उत्सर्पिणी में ऐरवत वर्ष में धर्मतीर्थ के देशक / प्रवर्तक होंगे । १२१. बारह चक्रवर्ती, उनके बारह पिता बारह माताएं और स्त्रीरत्न होंगे । नौ बलदेव - वासुदेवों के नौ पिता, नौ वासुदेवों की नौ माताएँ, नौ वलदेवों की नौ माताएँ और नो समवाय- प्रकीर्ण Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविस्संति, उत्तमपुरिसा मझिमपुरिसा पहाणपुरिसा जाव दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसत्तू भविसंति, नव पुत्वभवणामधेज्जा, णव धम्मायरिया, णव णियाणभूमियो, गव रिपयाणकारणा, पागए, एरवए आगमिस्साए भणियवा। दशारमण्डल होंगे। उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष, प्रधानपुरुष यावत् दोदो राम और केशव भाई होंगे। उनके नौ प्रतिशत्रु, पूर्वभव के नौ नाम, नौ धर्माचार्य, नौ निदानभूमियां और नौ निदान-कारण होंगे / ऐरवत में आकर भविष्य में मुक्त होंगे, यह वक्तव्य है। 122. एवं दोसुवि भणियस्वा / . आगमिस्साए 122. इसी प्रकार भविष्य में दोनों [भरत और ऐरवत] में यह वक्तव्य है। 123. इच्चेयं एवमाहिज्जति, तं जहाकुलगरवंसेति य, एवं तित्थगरवंसेति य, चक्कट्टिवंसेति य दासारवसेति य, गणधरवंसेति य, इसिवंसेति य, जतिवंसेति य, मुणिवंसेति य, सुतेति वा, वा, सुतंगेति वा, सुयसमासेति वा, सुयखंधेति वा, समाएति वा संसेति वा। समतमगमक्खायं अज्झयणं 123. इस प्रकार यह ऐसे कहा गया'. है, जैसे किकुलकरवंश, तीर्थङ्करवंश, चक्रवर्ती वंश, दशारवंश, गणधरवंश, ऋपिवंश, यतिवंश, मुनिवंश, श्रुत, श्रुतांग, श्रुतसमास, श्रुतस्कन्ध, समवाय और संस्या / यह समस्त अंग-प्राख्यात अध्ययन -ति मि ... ऐसा मैं कहता हूँ। समवाय-भुतं समवाय-प्रकीर्ण