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१५. जे देवा कालं सुकालं महाकालं
अंजणं रिट्ठे सालं समारणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिएणगुम्मं पुंडरीश्रं पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववरणा, तेसि रणं देवारणं उक्कोसेरगं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।
१६. ते णं देवा अट्ठारसह श्रद्धमासेहि प्राणमंति वा पाणमति वा ऊससति वा नीससंति वा ।
१७. तेसि णं देवागं अट्ठारसहि वाससहस्सेहि श्राहारट्ठे समु
प्पज्जइ ।
१८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे अट्ठारसह भवग्गहणेहि सिज्भिस्संति बुज्भिस्सति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सन्वदुक्खारणमतं करिस्सति ।
समवाय-सुत्तं
१५. जो देव काल, सुकाल, महाकाल,
अंजन, रिष्ट, शाल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, सुमाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुण्डरीक, पुण्डरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक विमान में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों को उत्कृष्टत: अठारह सागरोपम स्थिति प्रज्ञप्त है ।
१६. वे देव अठारह अर्धमासों / पक्षों में धान / श्राहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छवास लेते हैं, नि.श्वास छोड़ते है ।
१७. उन देवों के अठारह हजार वर्ष में आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है ।
१८. कुछेक भव- सिद्धिक जीव है, जो अठारह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे ।
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ममगाव-१