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दुवालसंग - समवाश्रो
१. दुवालसंगे गरिपिडगे पण्णत्ते,
त जहा -
आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विप्रापण्णत्ती
णायाधम्म
कहाश्रो उवासगदसा अंतगडदसानो श्रणुत्तरोववाइयदसा पहावागरणाई विवागसुए दिट्टिवाए ।
२. से किं तं श्रायारे ?
श्रायारे णं समरगाणं निग्गंथाणं श्रायार- गोयर - विजय - वेणइयट्ठाण - गमण - चंकमण - पमाणजोगजु जण भासा समिति-गुत्ती सेज्जीवहि भत्तपाण - उग्गमउपायण सणाविसोहि - सुद्धासुद्धग्गहरण- वय नियमतवोवहाण सुप्पसत्य- माहिज्जइ ।
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से समास पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा ----- णाणायारे दंसरणायारे चरितायारे तवायारे वीरियायारे ।
श्रायारस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुोगदारा संखेज्जाश्रो पडिवत्तीश्रो संखेज्जा
समवाय-सुतं
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द्वादशांग- समवाय
१. गरिणपिटक के वारह अंग है, जैसे कि-
१. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञात-धर्मकथा,
७. उपासक
दशा, ८. श्रन्तकृतदशा, ६. ग्रनुतरोपपातिकदणा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकश्रुत, १२.
दृष्टिवाद ।
२. वह आचार क्या है ?
श्राचार में श्रमरण-निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गमविशुद्धि, उत्पादन- विशुद्धि, एपरणाविशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहरण, व्रत, नियम, तप उपधान का सुप्रशस्त आख्यान किया गया है ।
संक्षेप में प्राचार पंचविध प्रज्ञप्त है, जैसे कि-
१. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार ३. चरित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार, ।
प्राचार की वाचनाएं परिमित है, अनुयोगद्वार संख्येय है, प्रतिपत्तिय संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक
समवाय द्वादशाग