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की वैज्ञानिक पहुँच एवं पकड़ कितनी गहरी-से-गहरी थी, 'स-सु' का हर पन्ना इसका प्रमाण-पत्र पेश करता है।
प्रस्तुत प्रयास मेरी रुचि के अनुकूल है। तथ्यों को सामने लाना मेरा मौलिक उद्देश्य है। टिप्पणों के विवाद से ऊपर उठकर मौलिकता की निखालिसता को ही पेश किया है। मुझे प्रसन्नता है कि तत्कालीन लोकभाषा एवं राष्ट्रभाषा के बीच एक सेतु मुझसे सम्भावित हुआ। विश्वास है यह अप्रतिम विश्व-कोष धुघले अतीत को निहारने में पारदर्शी रोशनदान सिद्ध होगा ।
२ अक्टूबर, ६०
--चन्द्रप्रभ