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ठाणगसयरस वारसविहवित्यरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवनो समासेणं समायारे पाहिज्जति ।
तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया वित्थरेण प्रवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग - तिरिय - मणुयसुरगरगारणं आहारुस्सास - लेसआवाससंख • प्राययप्पमाण उववाय-चयण - प्रोगाहणोहिचेयण-विहाण-उवमोग-जोगइदिय-कसाय ।
इसमें सौ स्थानों तक वारह प्रकार के विस्तार वाले श्रुतज्ञान का भगवान् द्वारा जगत् के जीवों के हित के हिए संक्षेप में समाचार आख्यात है। इसमें नानाविध जीव-अजीव विस्तारपूर्वक वरिणत हैं। इसके अतिरिक्त विशेष रूप से बहुविधनरक, तिर्यच, मनुष्य और देवों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास-संख्या, आयत-प्रमारण, उपपात, च्यवन, अवगाहना, अवधि, वेदन, विधान, उपयोग, योग, इन्द्रिय और कषाय वरिणत
विविहा य जीवजोणी विवखंभुस्सेह-परिरयप्पमाणं विधिविसेसा य मंदरादोणं महीघराणं।
कुलगर - तित्थगर - गणहराणं समत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चेव चक्कहरहलहराण य वासाण य निग्गमा य समाए ।
विविध जीवयोनि, विष्कम्भ/ विस्तार, उत्सेध/ऊंचाई और परिधि का प्रमाण, महीधर, मन्दर आदि के विधि-विशेष वरिणत हैं। इसमें कुलकर, तीर्थकर, गणधर, समग्र भरत के अधिपति चक्रवर्ती, चक्रधर, हलघर और वर्षों/क्षेत्रों का निर्गम निदर्शित है। ये और इसी प्रकार के दूसरे अर्थ यहां विस्तार से समाकलित
एए अण्णे य एवमादित्य वित्थरेणं अत्था समासिज्जति।
समवायस्सरणं परित्ता वायरणा संखेज्जा अणुनोगदारा सखेज्जाम्रो पडिवत्तीग्रो संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखे
समवाय की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपतियां संख्येय है, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं,
समवाय-सुत्तं
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समवाय-द्वादशांग