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वियाहिज्जति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ ।
वियाहे गं नाणाविह-सुर-नरिंद रायरिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जवपदेस - परिणाम - जहत्यिभावअणुगम-निवखेव- णय - पमाणसुनिउणोवक्कम-विविहप्पगारपागड-पयंसियाणं लोगालोगपगासियाणं संसारसमुद्द - रु द उत्तरण-समत्थारणं सुरपतिसंपूजियागं भविय-जणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धसणाणं सुदिटु-दीवभूयईहामतिबुद्धि-वद्धणाणं छत्तीससहस्समणूयारणं वागरणाणं दंसणा सुयत्थ-बहुविहप्पगारा सोसहियत्थाय गुणहत्था।
गई है, जीव-अजीव की व्याख्या की गई है। लोक की व्याख्या की गई है, अलोक की व्याख्या की गई है, लोक-अलोक की व्याख्या की गई है। व्याख्या में नानाविध देव, नरेन्द्र, राजपि और विविध प्रकार के संशयित लोगों द्वारा पूछे गये और जिनेश्वर द्वारा विस्तारपूर्वक भापित द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश, परिणाम, यथाअस्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, तप, प्रमाण, सुनिपुरण-उपक्रम की विविध प्रकार से प्रकट-प्रदर्शित करने वाले, लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले, संसारसमुद्र से पार लगाने वाले, उत्तरसमर्थ, सुरपति-पूजित, भव्यजनों एवं प्रजाहृदय से अभिनन्दित, तप और रज को विध्वंस करने वाले, सुदृष्ट, दीपभूत, ईहा, मति, बुद्धि के संवर्धक, छत्तीस हजार व्याकरणों/ समस्या-समाधानों के बहुविध श्रुतार्थ, शिष्य-हितार्थ एवं गुणहस्त/सिद्धहस्त दर्शन हैं। व्याख्या की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेष्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहरिणयां संख्येय हैं।
चियाहस्स णं परित्ता वायणा सखेज्जा अणुयोगदारा संखेज्जाम्रो पडिवत्तीयो सखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाम्रो निज्जुत्तीओ संखेज्जामो संगहीनो। से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अज्झ
यह अंग की अपेक्षा से पांचवां अंग है। [इसके] एक श्रुतस्कन्ध,
समवाय-सुत्त
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समवाय-द्वादशांग