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लद्धसिद्धिमग्गारणं अंतकिरिया।
को भोग कर तथा कालक्रम से वहां से च्युत होकर, जिस प्रकार वे पुनः सिद्धिमार्ग को पुनर्लब्ध कर अंतक्रिया करते हैं-उनकी प्ररूपणा की गई है। विचलितों में धैर्य उत्पन्न करनेकराने वाले, वोध और अनुशासन भरने वाले एवं गुण-दोषों को दर्शाने वाले देव तथा मनुष्यों का निदर्शन
चलियाण य सदेव-माणुस्सधीरकरण-कारणाणि वोधणअणुसासणाणि गुण-दोसदरिसणाणि ।
दिळंते पच्चए य सोउण लोगमुरिणणो जह य ठिया सासणम्मि जर-मरण-नासणकरे। पाराहिय-संजमा य सुरलोगपढिनियत्ता प्रोवेंति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं । .
इसमें दृष्टान्तों और प्रत्ययों/वाक्यों को सुन कर लौकिक मुनि जिस प्रकार से जरा-मरण का विनाश करने वाले जिनशासन में स्थित हुए, संयम की आराधना कर देवलोक से प्रतिनिवृत्त होकर जिस प्रकार शाश्वत, शिव और सर्व दुःखों से मोक्ष पाते हैं-उसका आकलन किया गया है । ये तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थ इसमें विस्तार से प्रख्यात हैं। ज्ञात-धर्मकथा की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां सख्येय हैं, वेप्टन संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं, संग्रहणियां संख्येय है ।
एए अण्णे य एवमादित्य वित्यरेण य। नाया-धम्मफहासु णं परित्ता वायरणा संखेज्जा अणुयोगदारा सरोज्जाम्रो पडिवत्तीनो ससेज्जा वेढा संरोज्जा सिलोगा संखेज्जानो निज्जुत्तीरो सखेज्जानो संगहणीयो। से णं अंगट्टयाए छठे अंगे दो सुग्रक्खंधा एगणतीसंप्रज्झयणा, ते ममासमो दुविहा पण्णत्ता, त जहा
चरिता यफप्पिया य। समवाय-गुत्तं
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यह अंग की अपेक्षा से छठा अंग है। इसके दो श्रुतस्कंध और उनतीस अध्ययन हैं। संक्षेप में वे दो प्रकार के है~ चरित और कल्पित।
समवाय-द्वादशांग