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१६. श्रणुष्णाणं सह-परिस-रसस्व-गंधाणं श्रवकरिसो
भवइ ।
२०. मणुगाणं सह-फरिस - रसरुव-गंधाणं
पाउब्भावो
भवइ ।
२१. पच्चाहरओवि य णं हिययगमणोश्रो जोयणनोहारी
सरो ।
२२. भगवं च णं श्रद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । २३. सावि य णं श्रद्धमागही भासा भासिज्जमाणो तसि सव्वेंस श्ररियमणारियागं दुप्पय- चउप्पय मिस-पसुपक्खि- सिरी-सिवाणं श्रप्पणी हिय-सिव - सुहदाभासत्ताए परिणमइ ।
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२४. पुव्वबद्धवेरावि य णं देवा
सुर-नाग - सुवरण - जक्खरक्खस - किसर किपुरिसगरुल - गंधव्व-महोरगा अरहम्रो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति ।
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२५. अण्णउत्थिय - पावयणियावि य रंग मागया वंदति ।
२६. श्रागया समाणा श्ररहश्रो पायमूले निष्पडिवयणा
हवंति |
समवाय-सुत्तं
२७. जन जनोवि य णं श्ररहंतो भगवंतो विहरंति तस्रो
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१६. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध का अपकर्ष होता है ।
२०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध का प्रादुर्भाव होता है ।
२१. प्रत्याहर/ उपदेश के समय
योजनगामी
हृदयंगम और स्वर होता है ।
२२. भगवान् श्रर्द्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं । २३. वह भाष्यमारण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले प्रार्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है ।
२४. पूर्ववद्ध वैर वाले भी और देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुप, गरुड, गन्धर्व और महोरग अर्हत के समीप प्रशांत चित्त और प्रशान्त मन से धर्म को श्रवण करते हैं ।
२५. अन्ययूथिक / तीर्थिक प्रावचनिक भी आकर वन्दन करते हैं । २६. अर्हत् के सामने समागत [अन्यतीर्थक] निरुत्तर हो जाते हैं ।
२७. जहां-जहां अर्हत् भगवान् विहरण करते हैं, वहां-वहां पचीस
समवाय-३४