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११. जत्थ जत्थवि य णं परहंता
भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थवि य णं तक्खरणादेव संछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झयो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ।
११. जहां-जहां अर्हन्त भगवन्त
ठहरते या बैठते हैं, वहां-वहां तत्क्षण समाच्छादित पुष्प और पल्लव से व्याकुल, छत्र-सहित ध्वज-सहित, घंट-सहित पताकासहित अशोकवृक्ष उत्पन्न हो जाता है।
१२. ईसि पिटुनो मउडठाणंमि
तेयमंडलं अभिसंजायइ, अंधकारेवि य गं दस दिसामो
पभासेइ। १३. बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे।
१२. मुकुट-स्थान से कुछ पीछे तेज
मंडल/आभामंडल होता है जो अन्धकार में भी दसों दिशाओं
को प्रभासित करता है। १३. भूमिभाग विशेष सम और
रमणीय होता है। १४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। १५. ऋतुएँ अविपरीत अनुकूल और
सुखस्पर्शी/सुखदायी हो जाती
१४. अहोसिरा कंटया भवंति । १५. उडुविवरीया सुहफासा
भवंति।
१६. सीयलेणं सुहफासेणं सुर
भिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वो समंता संपमज्जिज्जति ।
१६. शीतल, सुखदायी, सुरभित
वायु द्वारा एक योजन तक परिमण्डल/पर्यावरण का सर्व ओर से सम्प्रमार्जन होता है ।
१७. जुत्त-फुसिएण य मेहेण
निहय-रय-रेणुयं कज्जइ।
१८. जल-थलय - भासुर-पभूतेणं विट्ठाइणा दसद्धवण्णणं
कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाण• मिते पुप्फोवयारे कज्जइ।
१७. विन्दु-पात युक्त मेघ द्वारा रज
रेणु को निहत/उपशान्त किया
जाता है। १८. जलज,स्थलज, प्रभूत/प्रस्फुटित,
वृन्त-स्थायी/पत्रपूरित, पंचवर्णी कुसुमों द्वारा घुटने जितने प्रमाण तक पुष्पोपचार होता
समवाय-सुत्तं
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समवाय-३४