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११. जे देवा विजय - वेजयंत - जयंत
अपराजियविमारणेसु देवत्ताए। उववण्णा, तेसि गं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।
११. जो देव विजय, वैजयन्त, जयन्त और
अपराजित विमानों में देवत्व से उपपन्न हैं, उन देवों की बत्तीस सागरोपम स्थिति प्रजप्त है।
१२. ते णं देवा वत्तीसाए अद्धमासेहिं
आणमंति वा पारणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।
१२. वे देव वत्तीस अर्घमासों/पक्षों में
आन/आहार लेते हैं, पान करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं, निःश्वास छोड़ते
१३. ते णं देवाणं वत्तीसाए वास
सहस्सेहि आहारळे समुप्पज्जइ ।
१३. उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों से
आहार की इच्छा समुत्पन्न होती
१४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे
वत्तीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिसंति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्तंति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति।
१४. कुछेक भव-सिद्धिक जीव हैं, जो
बत्तीस भव ग्रहणकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सर्वदुःखान्त करेंगे।
समवाय-सुत्त
समवाय-३२