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परणीयरसभोई भवइ । पारणभोयरणस्स श्रइमायं आहार
इत्ता भवइ ।
इत्यीणं पुवरयाई पुव्वकीलियाई
सुमरइत्ता भवइ । सद्दाणुवाई ख्वाणुवाई गंधाणुवाई रसाणुवाई फासाणुवाई सिलोगाणुवाई | सायासोक्ख-पडिबद्धे यावि भवइ ।
३. नव बंभचेरा पण्णत्ता, तं जहासत्यपरिण्णा लोगविजनो सीनोसणिज्जं सम्मत्तं ।
श्रावंती धुअं विमोहायणं उवहाण सुयं महपरिण्णा ॥
४. पासे णं श्ररहा नव रयणीश्रो उड्ढं उच्चत्तेगं होत्या ।
५. प्रभोजिन क्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चंदेणं सद्धि जोगं जोइए ।
६. प्रमोजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहाअभीजि सवरगो धरिणट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरापोट्ठवया रेवई अस्सिणी भरणी ।
७. इमीसे णं रयणप्पहार पुढवीए बहुसमरम पिज्जाश्रो भूमिभागाम्रो नव जोयरणसए उड़ढ प्रबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरड़
समवाय-सुत्त
प्रणीत रस - बहुल- भोजी होता है । भोजन - पान का अतिमात्रा में आहार करता है ।
स्त्रियों की पूर्व रति तथा पूर्व क्रीड़ानों का स्मरण करता है । न शब्दानुवादी, न रूपानुवादी, न गन्धानुवादी, न स्पर्शानुवादी और न ही श्लोकानुवादी होता है । शाता - सुख से प्रतिबद्ध भी रहता है ।
३. ब्रह्मचर्य -ग्राचारांगसूत्र के अध्ययन नौ प्रज्ञप्त हैं । जैसे कि -- शस्त्र - परिज्ञा, लोकविजय, शीतोणीय, सम्यक्त्व, आवन्ती, धूत, विमोह, उपधानश्रुत, महापरिज्ञा ।
४. पुरुषादानीय श्रर्हत् पार्श्व ऊँचाई की दृष्टि से नौ रत्निक / हाथ ऊँचे थे ।
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५. श्रभिजित नक्षत्र चन्द्र के साथ नौ मुहूर्त से अधिक योग करता है ।
६. अभिजित श्रादि नौ नक्षत्र चन्द्र का उत्तर से योग करते हैं । जैसे कि— अभिजित से भरणी तक ।
७. इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम / अत्यधिक रमणीय भूमि-भाग से नौ सौ योजन ऊपर ऊपरीतल में तारों रूप में अवाघतः संचरण करते हैं ।
समवाय-ε