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४४ | अध्यात्म-प्रवचन
आप प्रस्तुत कथा सूत्र पर विचार करेंगे, तो पता लगेगा कि इस कथा में क्या रहस्य अन्तनिहित है? कार्य-कारण की एक-स्थानीयता का यह प्रमुख उदाहरण है। सन्त ने कहा है कि जल यहाँ है और सूर्य दूर है, भला यहाँ का जल सुदूर सूर्य लोक में कैसे तृप्ति का साधन हो सकता है ? जल यहाँ है, और खेत सुदूर प्रदेश में हैं। यहाँ का गंगा जल उन खेतों की इतनी दूर कैसे सिचाई कर सकता है ? जहाँ कारण है, वहीं उसका कार्य भी हो सकता है । ऐसा नहीं कि कारण कहीं है,
और कार्य कहीं अन्यत्र हो जाए। कारण और कार्य में न देश का व्यवधान होना चाहिए और न काल का ही। कारण के अव्यवहित उत्तर क्षण में और उसी कारण के प्रदेश में कार्य हो जाना चाहिए। निश्चय दष्टि से विचार करते हैं, तो दार्शनिक क्षेत्र का यह निर्णय पूर्ण रूप से अकाट्य निर्णय है। मिट्टी से घड़ा बनता है। व्यवहार-प्रधान साधारण दृष्टि से भले ही खान मैं पड़ी हुई, या कुम्हार के घर पर पिण्डरूपेण तैयार की हुई मिट्टी को घड़े का कारण कह दें। परन्तु निश्चय दृष्टि से विचार करें, तो वह मिट्टी घट का कारण नहीं है । जिससे कालान्तर में कार्य हो, वह कैसे कारण हो सकता है। अस्तु, कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार निश्चय में वही मिट्टी, जो चाक पर चढ़कर स्थास, कोश, कुशूल आदि विभिन्न पर्यायों को, अवस्थाओं को पार करती हुई जब घट पर्याय के उत्पत्ति क्षण से पूर्व क्षण में पहुँचती है, जिसके अनन्तर बिना किसी अन्य पर्याय एवं दशा के घट कार्य होता है, वही पूर्व पर्याय-विशिष्ट मिट्टी हो उत्तर पर्याय रूप घट का कारण होती है। ___ कार्य कारण के सम्बन्ध में विचार-चर्चा काफी सूक्ष्म होती जा रही है। आप सब इतनी गहराई में, सम्भव है, नहीं जाना चाहेंगे। अस्तु, संक्षेप में आप इतना ही हृदयंगम कीजिए कि कारण कार्य में देश काल का व्यवधान नहीं होता है । जब कि स्थूल भौतिक कार्य कारण में भी यह सिद्धान्त निश्चित है, तब आत्मा के आध्यात्मिक क्षेत्र में तो यह विपरीत हो ही कैसे सकता है ? आत्मा का मोक्ष कार्य है और सम्यग्दर्शनादि धर्म मोक्ष का कारण है। मोक्ष और मोक्ष का साधन धर्म दोनों ही आत्मस्वरूप हैं। क्योंकि जब सम्यग् दर्शन आदि आत्म स्वरूप हैं, तो उनका कार्य मोक्ष भी आत्म स्वरूप ही होना चाहिए । अतएव मोक्ष का लोक आत्मा है, आकाश-विशेष नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि कारण चैतन्य में हो, और उसका कार्य जड़ में हो
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