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१६६ | अध्यात्म-प्रवचन
जब संसार को व्यवहार की दृष्टि से देखा जाता है, तो यह अशुद्ध ही अशुद्ध नजर आता है और जब इसे भूतार्थनय से एवं निश्चय नय से देखा जाता है, तो यह शुद्ध ही शुद्ध नजर आता है। ऐसा क्यों होता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जब दृष्टि बदल जाती है, तब सारी सृष्टि ही बदल जाती है। दिशा बदल गई तो दशा अपने आप बदल जाएगी ? मुख्य बात दिशा बदलने की है, दशा बदलने की नहीं । जैन दर्शन इसीलिए पहले दृष्टि एवं विश्वास को बदलने की बात कहता है । वह कहता है, कि निश्चय नय से इस विश्व की समग्र आत्माएँ विशुद्ध हैं, उनमें न क्षोभ है, न क्रोध है, न लोभ है, न मोह है और न शोक है । विशुद्ध नय की दृष्टि में दीनता एवं हीनता भी आत्मा के धर्म नहीं हैं। जैन दर्शन हमारे अन्तर की दीनता एवं हीनता को दूर करने का महत्वपूर्ण सन्देश देता है । वह आत्मा के क्रोध आदि विकारों को आत्मा का धर्म स्वीकार नहीं करता । उसकी निश्चय दृष्टि कहती है, कि आत्मन् ! तू न काम है, न क्रोध है, न लोभ है और न मद है, तथा तू न शरीर है, न इन्द्रिय है और न मन है । इन सबसे परे और इन सबसे ऊपर तू विशुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार एवं सच्चिदानन्द रूप परम आत्मा है । यही तेरा वास्तविक स्वरूप है । आत्मा के इसी दिव्य रूप पर आस्था एवं श्रद्धा रखनी चाहिए। आत्मा स्वयं अपने आप में जब विशाल एवं विराट है, तथा शुद्ध एवं पवित्र है, तब उसे क्षुद्र, पतित और अपवित्र क्यों समझा जाए ? यदि संसार की कोई भी आत्मा अपने उस दिव्य एवं सहज रूप में विश्वास न करके दीन-हीन बना रहता है तथा अपने आपको पतित और अधम समझता रहता है और अपने को अशुद्ध समझता रहता है, तो यह उस आत्मा का अपना दुर्भाग्य है ।
इस प्रसंग पर मुझे जैन महाभारत की एक घटना का स्मरण हो रहा है । यह घटना उस समय की है, जब कि ' धातकीखण्ड के राजा पद्मोत्तर ने देवी शक्ति से द्रौपदी का अपहरण कर लिया था । द्रौपदी के अपहरण से पाँचों पांडव हैरान और परेशान थे । श्रीकृष्ण को द्वारिका में नारदमुनि से यह पता चला कि द्रौपदी धातकीखण्ड में पद्मोत्तर राजा के अन्तःपुर में है । श्रीकृष्ण और पांचों पांडवों ने इस विकट स्थिति पर गम्भीरता के साथ विचार किया और परामर्श करने के बाद पद्मोतर राजा पर चढ़ाई करने का निर्णय कर लिया गया। अपनी पूर्ण
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