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२२८ | अध्यात्म-प्रवचन पुरुषार्थ तथा अन्तरंग कारण की आवश्यकता निसर्गज और अधिगमज दोनों ही प्रकार के सम्यक् दर्शन में समान भाव से रहती है । अन्तरंग पुरुषार्थ के जगते ही, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम होते ही सम्यक दर्शन का आविर्भाव हो जाता है। प्रश्न यह है, कि उपशम-जन्य सम्यक् दर्शन, क्षय-जन्य सम्यक् दर्शन और क्षयोपशम जन्य सम्यक् दर्शन में से, पहले कौन सा सम्यक् दर्शन होता है ? सिद्धान्त-ग्रन्थों में उक्त प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि अनादि कालीन मिथ्या दृष्टि आत्मा को पहले-पहल उपशम जन्य सम्यक् दर्शन होता है, बाद में उसे क्षयोपशम जन्य भी हो सकता है और क्षय जन्य भी हो सकता है। क्षय जन्य सम्यक् दर्शन सबसे विशुद्ध होता है, वह एक बार प्राप्त होने के बाद फिर कभी नष्ट नहीं होता, परन्तु उपशम-जन्य एवं क्षयोपशम-जन्य सम्यक् दर्शन उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं । दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम भाव, क्षयोपशम भाव और क्षय भाव, सम्यक् दर्शन का अन्तरंग हेतु है, फिर भले ही वह सम्यक् दर्शन निसगंज हो अथवा अधिगमज हो। मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन भी बिना कारण के नहीं होता है।
सम्यक् दर्शन की चर्चा में और उसकी व्याख्या में एक नया प्रश्न उपस्थित होता है, कि निसर्गज सम्यक् दर्शन में यदि कोई बाह्य निमित्त नहीं होता है, तो क्या वह केवल इस जीवन में ही नहीं होता, अथवा पूर्व जन्म में भी नहीं होता ? उक्त प्रश्न अध्यात्म शास्त्र में चिरकाल से चर्चा का विषय रहा है। प्रश्न बड़े ही महत्व का है और साथ ही विचारणीय भी। यह प्रश्न ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसका उत्तर यं ही सहज में दिया जा सके । उक्त प्रश्न के समाधान के लिए, समयसमय पर अध्यात्म-शास्त्र के तत्वदर्शी विद्वानों ने शास्त्रों के गहन गम्भीर सागर में गहरी डुबकी लगाई है और उक्त प्रश्न का समाधान पाने के लिए एक दूसरे का खण्डन-मण्डन भी बहुत किया है । खण्डन एवं मण्डन, पक्ष एवं विपक्ष का दलदल इतना गहन हो गया है कि उसमें से आसानी से कोई पार नहीं हो सकता। तर्क और प्रतितर्क के घने कुहासे में जो सत्य छप गया है, उसे ढूंढ़ना कभी-कभी आसान नहीं होता।
आपने पुराणों में सागर-मंथन की कहानी सुनी होगी, वह बड़ी
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