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३५४ | अध्यात्म-प्रवचन
है, वही तो संसार में नहीं होता । होता वही है, जो कुछ होना होता है । जीवन के इसी स्वर्णिम सूत्र को पकड़ कर सम्यक दृष्टि आत्मा सर्व प्रकार की व्याधिजन्य वेदनाओं की व्याकुलता से विमुक्त हो जाता है । वेदना किसी भी प्रकार की क्यों न हो? चाहे वह शारीरिक हो अथवा मानसिक हो, सम्यक् दृष्टि को वह व्याकुल नहीं बना सकती। कारण स्पष्ट है, कि मुख्य रूप से सम्यक् दृष्टि की दृष्टि, इस देह पर नहीं, इस देह में निवास करने वाले देही पर ही होती है। इस तन के विनाश को वह अपना विनाश नहीं समझता । वह समझता है, कि शरीर में जो रोग उत्पन्न हुआ है, वह मेरे अपने स्वयं के असातावेदनीय कर्म का ही फल है, और वह मुझे ही भोगना है । ___ सात भयों में चौथा भय है-मरण-भय । मरण-भय का अर्थ हैमृत्यु का भय । कहा जाता है, कि संसार में जितने भी प्रकार के भय हो सकते हैं, उनमें सबसे भयंकर भय मृत्यु का ही होता है । जिस समय जीवन देहलो पर मृत्यु की छाया आकर खड़ी होती है, उस समय संसार के बड़े-बड़े कोटिभट जैसे वीर भी प्रकम्पित हो जाते हैं। जब मृत्यु शब्द भी लोक में प्रिय नहीं है, तब लोक में साक्षात् मृत्यु प्रिय कैसे हो सकती है ? संसार का प्रत्येक प्राणी इस संसार में अमर होकर जीवित रहना चाहता है । भगवान महावीर की भाषा में जीवन का यह परम सत्य है, कि जीवन सबको प्रिय है और मरण किसी को भी प्रिय नहीं होता। जिस समय किसी मनुष्य के प्राणों पर आपत्ति आती है, तब वह प्राणों से भी अधिक प्रिय धन को एवं जन को भी अपने जीवन की रक्षा के लिए छोड़ने को तैयार हो जाता है। इतना भयंकर होता है, मृत्यु का भय ! किन्तु सम्यक दृष्टि आत्मा इस भय से भी विचलित नहीं होता। वह अपनी अध्यात्म-भाषा में कहता है, कि जब जीवन आया है, तब एक दिन वह जाएगा भी । जो आया है, उसे एक दिन अवश्य जाना ही होगा। जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण न हो, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? सम्यक दृष्टि सोचता है, कि मैं अविनाशी हूँ, अजर हूँ, अमर हूँ । आत्मा का नाश चिरकाल में कभी भी नहीं होता । नाश होता है देह का । देह पर है, अतः उसका नाश होता है तो उससे मेरी क्या हानि हो सकती है ? अपने जीवन के प्रति यह अध्यात्म-भावना और अध्यात्म-दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि को निर्भय बना देती है।
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