Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 359
________________ ३६६ ! अध्यात्म प्रवचन पुण्य के फल को चाहता है । सम्यक् दृष्टि आत्मा न पाप के फल को आकांक्षा करता है और न पुण्य के फल की ही आकांक्षा करता है। वह तो दोनों को बन्धन रूप समझता है, पाप भी एक बेड़ी है और पूण्य भी एक बेड़ी है। जिस प्रकार लोहे की बेडी बन्धन है, उसी प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी तो बन्धन ही है। सम्यक् दृष्टि आत्मा पुण्य और पाप दोनों बन्धनों से मुक्त होकर जीवन के शुद्ध लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है। सम्यक् दृष्टि आत्मा कितना भी अधिक संसारी सुख दुःख प्राप्त करले, किन्तु उस सुख दुःख को वह संसार का रूप ही समझता है । विवेक की यह ज्योति उसके जीवन में सदा प्रज्वलित रहती है । सम्यक् दृष्टि आत्मा पाप न करता हो, यह बात नहीं है। उसके जीवन में भी पाप होते है। साधारण पाप क्या, युद्ध जैसे भयंकर पाप भी उसे अपने जीवन में करने पड़ते हैं । चक्रवर्ती भरत ने कितना भयंकर युद्ध किया था और बह युद्ध भी किसी अन्य से नहीं, अपने भाई के साथ ही । आप देखते हैं कि इतना भयंकर युद्ध करने पर भी चक्रवती भरत की उसी जन्म में मुक्ति हो गई । यही स्थिति शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ के जीवन की भी रही है। भरत के जीवन की अपेक्षा इनके जीवन की यह विशेषता थी, कि ये अपने जीवन-काल में चक्रवर्ती भी रहे और अन्त में तीर्थंकर भी बन गए। उक्त जीवन-गाथाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि संसार के ऊँचे से ऊंचे भोग उन लोगों को मिले, किन्तु फिर भी वे मन्दकषायी थे। उन्होंने अपने जीवन में यथा प्रसंग पाप भी किया और पुण्य भी किया, किन्तु फिर भी वे पाप और पुण्य-दोनों के बन्धनों से मुक्त हो गए। कैसे हो गए, यह प्रश्न समाधान चाहता है। बात यह है कि बाहर में वे कैसे भी रहे हों, किन्तु अन्तर में मन्द कषायी थे, 'उदासीन' परिणति वाले थे । सम्यक् दृष्टि आत्मा के पाप ऐसे होते हैं, जैसे नवीन सूखे वस्त्र पर धूलि-कण बैठ गए हों। जरा झटकारने से ही जैसे वे दूर हो जाते हैं, वैसे ही सम्यक दृष्टि आत्मा के पाप शुद्धोपयोग रूप एक झटके से समाप्त हो जाते हैं। जो आत्मा अध्यात्म-भाव में स्थिर हो गया है, उसे न पाप पकड़ सकता है और न पुण्य रोक सकता है। भगवान महावीर ने साधक जीवन के सम्बन्ध में एक बहत सुन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380