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३७० | अध्यात्म प्रवचन
मुख होकर मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। ज्ञान चेतना वीतराग भाव की एक पवित्र धारा है। ज्ञान चेतना में साधक बहिर्मुखी न रहकर अन्तर्मुखी बन जाता है । जब स्व का उपयोग स्व में चलता है, वस्तुतः उसी स्थिति का नाम ज्ञान चेतना है । स्वयं में स्व का 'उपयोग अथवा अपने अन्दर में अपने स्वरूप का ज्ञान, यही सबसे बड़ी साधना है और यही सबसे बड़ा धर्म है । ज्ञान चेतना को अखण्डधारा सम्यक् दर्शन की साधना से विकसित होते-होते सिद्ध दिशा तक पहुँच जाती है । यद्यपि ज्ञान चेतना में भी बीच-बीच में शुभ धारा आती अवश्य है, पर ज्ञान चेतना होने से वे विकल्प अधिक स्थिर नहीं रह पाते । वस्तुतः शुभ और अशुभ विकल्पों को तोड़ना ही हमारी साधना का एकमात्र लक्ष्य है । मन के विकल्प अन्य किसी प्रकार से नहीं टूटते, उनको तोड़ने का एकमात्र साधन ज्ञान-चेतना ही है । निश्चय दृष्टि में एक आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अपना नहीं है और वह आत्म-स्वरूप स्थिति ही ज्ञान चेतना है ।
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