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तीन प्रकार की चेतना | ३६७ रूपक कहा है । पंक्षी के पाँख पर तभी तक धूलि-कण पड़े रहते हैं, जब तक कि वह पंख नहीं फड़फड़ाता है। जैसे ही उसने अपने पंख फड़फड़ाये कि सब धूलि साफ हो जाती है। अध्यात्म-साधक के जीवन में लगने वाले पाप और पुण्य भी इसी प्रकार दूर हो जाते हैं। शुद्धोपयोग की धारा में पाप और पुण्य के सब विकार साफ हो जाते हैं और साधक की बन्धन मुक्ति क्षणभर में हो जाती है। ___ मैं आपसे तीन प्रकार की चेतनाओं की बात कह रहा था। दूसरी चेतना है-कर्मफल चेतना । कर्मफल चेतना का अर्थ है-जिसमें जीव अपने शुभ एवं अशुभ कर्म के फल का अनुभव करते समय शुभफल को पाकर वह प्रसन्न हो जाता है और अशुभ फल को पाकर वह खिन्न हो जाता है। उसकी दष्टि पुण्य पाप और उनके फल में ही उलझी रहती है । कर्म-फल-चेतना में जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं हो पाता। वह कर्मों के भार से इतना दबा रहता है, कि कर्म और कर्मफल से अतिरिक्त अविनाशी शुद्ध आत्म-तत्व पर उसकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती । यह सुख भोग लूं, वह सुख भोग लूँ, यह दुःख न भोगं और वह दुःख न भोग-इस प्रकार भोगने और न भोगने के विकल्पों में उलझ रहना ही कर्मफल चेतना है। इस प्रकार आत्मा स्वभाव को भूल कर पर भाव में ही रचा-पचा रहता है । उसकी दृष्टि अन्तमुखी न होकर बहिर्मुखी ही होती है । इन्द्रियजन्य भोगों में वह इतना आसक्त हो जाता है, कि उसे कर्म-फल के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का ध्यान ही नहीं रह पाता। उसके जीवन की यह स्थिति बडी विकट है।
संसार में जितने भी प्रकार के शुभ या अशुभ विकल्प हैं, वे किसी भी स्थिति में और किसी भी काल में क्यों न हों, कर्म बन्धन के कारण होते हैं । कर्मफल चेतना वाला व्यक्ति अपने आध्यात्मिक आनन्द को, अपने आन्तरिक सुख को भूल जाता है। उसे यह भान ही नहीं होने पाता, कि जिस आनन्द एवं सुख की खोज मैं कर रहा हूँ, वह सुख और आनन्द भौतिक पदार्थों में और इन्द्रियों के विषयों में नहीं, बल्कि अपनो अन्तर आत्मा में ही है । वह बहिर्मुखी होने के कारण आनन्द और सुख को खोज बाहर में ही करता है। इसके सम्बन्ध में एक कथानक है, जो इस प्रकार है :
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