Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 358
________________ तीन प्रकार की चेतना | ३६५ और कहीं एकान्त पाप की चर्चा करते हैं, परन्तु यह उचित नहीं है । वस्तु स्थिति का विश्लेषण किए बिना ही इस प्रकार का कथन किया जाता है । बात यह है कि जब साधक नीचे का भावभूमिकाओं में कोई भी पुण्य किया करते हैं, तब अन्तर में उसके चार परिणाम होते हैं-पुण्य, पाप, संवर और निर्जरा। सामायिक करना, उपवास करना, गुरु की भक्ति करना और दान करना आदि साधना रूप क्रियाएँ अमुक अंश में शुभ, अमुक अंश में अशुभ हैं और अमुक अंश में शुद्ध भी हैं । उक्त क्रियाओं को करते समय मन्द कषायों की धारा होती है, अतः इस अंश में शुभ उपयोग होने से पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है । कषाय भाव के होने से अमुक अंश में अशुभ उपयोग है, अतः पाप प्रकृति का बन्ध होता है । मन्द कषाय के साथ अमुक अंश में सम भाव रूप शुद्ध उपयोग है अतः अमुक अंश में संवर और निर्जरा भी होती है । मैं यहाँ आपसे पुण्य कर्म चेतना की बात कर रहा था । पुण्य कर्म चेतना का अर्थ है-वह चेतना जिसमें पुण्य की धारा प्रवाहित हो रही है। यह पुण्य की धारा शुभ योग में ही प्रवाहित हो सकती है। शुभ योग में स्थित आत्मा पुण्य प्रकृतियों का बन्ध करता है। - दूसरी चेतना पाप कर्मचेतना है । पाप कर्म चेतना का अर्थ हैवह चेतना जिसमें पाप की धारा प्रवाहित होती रहती है। क्योंकि जिस समय आत्मा अशुभ उपयोग में स्थित होता है, उस समय वह पाप प्रकृतियों का बन्ध करता है। अशुभ उपयोग किस प्रकार का होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि किसी को कष्ट देने का विचार, किसी को दुःख देने की भावना, काम, क्रोध, मोह आदि अशुभ विकल्प अशुभ उपयोग हैं। अशुभ विकल्प में भी धाती कर्म अशुभ और अघाती कर्म दोनों का बन्ध होता है। घातिक कर्म तो सभी अशुभ ही होती है।। पाप प्रकृति के बन्ध के समय भी अमुक अंश में पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है पर वह स्थिति और रस की दृष्टि से अल्प एवं मन्द होता है । किसी की वस्तु छीनना, किसी को गाली देना, किसी के साथ मारपीट करना ये सब पाप कर्म-चेतना के उदाहरण हैं। मिथ्या दृष्टि आत्मा ही नहीं, सम्यक दृष्टि आत्मा भी यदि इन क्रियाओं को करता है, तो उसे भी पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्या दृष्टि आत्मा पाप करता है, किन्तु पाप के फल को नहीं चाहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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