Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 348
________________ आठ अंग और सात भय | ३५५ सात भयों में पाँचवाँ भय है-आदान-भय । इसको अत्राण-भय भी कहा जाता है । इसका अभिप्राय यही है, कि सम्यक् दृष्टि आत्मा को कभी भी अशरण का, अरक्षकता और अत्राण का भय नहीं होता। क्योंकि सम्यक दृष्टि जीवन के इस तथ्य को भली भाँति समझता है, कि इस ससार में न कोई किसी को शरण दे सकता है और न कोई अन्य किसी की रक्षा ही कर सकता है। अपनी आत्मा ही एक मात्र अपने को शरण देने वाला और रक्षा करने वाला है। पाप कर्म का विपाक-समय आने पर उसके कटु फल से न माता-पिता बचा सकते हैं, न भाई-बहिन बचा सकते हैं, न पुत्र-पुत्री बचा सकते हैं और न पति-पत्नी ही एक दूसरे की रक्षा कर सकते हैं। और तो क्या, न्याय और अन्याय से मनुष्य ने जिस धन का संचय किया है, वह धन भी अन्त में उसकी रक्षा नहीं कर सकता । आत्मा से भिन्न अन्य कोई भी पदार्थ, फिर भले हो वह जड़ हो या चेतन, मुझे त्राण और रक्षा नहीं दे सकता, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास सम्यक दृष्टि की अन्तर आत्मा में होता है । इसीलिए जीवन में विकट, विपरीत और संकटमय क्षण आने पर भी वह अपने जीवन की रक्षा के लिए एवं अपने जीवन के बाण के लिए, अपने प्राणों की किसी से भीख नहीं मांगता। जो लोग इस मरण-भय से मुक्त नहीं होते हैं, वे अपनी या अपने प्रियजन की जीवन रक्षा के लिए देवी देवताओं पर पशुबलि चढ़ाते हैं, निरोह मूक पशुओं का रक्त बहाते हैं। अन्य अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों के शिकार हो जाते हैं। साधक को मरण-भय से मुक्त होना चाहिए । अतः सम्यक् दृष्टि में आदान-भय और अत्राणभय भी नहीं रहता । इस अपेक्षा से भी उसका जीवन सदा निर्भय रहता है। सात भयों में छठा भय है-अपयश का भय । इसको अश्लोकभय भी कहते हैं । प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रशंसा प्रिय होती है और निन्दा अप्रिय होती है । प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता हैं, कि संसार में मेरा आदर एवं सत्कार हो, और आस-पास के समाज में मेरी पूजा एवं प्रतिष्ठा हो। मनुष्य अपने जीवन में प्रशंसा तो बहुत बटोर सकता है, किन्तु अपयश का एक कण भी उसे स्वीकार नहीं होता। किन्तु सम्यक् दृष्टि यह विचार करता है, कि मेरे यश का आधार मेरा सत्य है । सत्य हैं तो सब कुछ है और सत्य नहीं है तो कुछ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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