Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 346
________________ आठ अंग और सात भय | ३५३ वर्तमान जीवन की पवित्रता एवं निर्मलता पर विश्वास होता है। वह सोचता है, कि जब मैंने अपने जीवन में किसी भी प्रकार का पाप नहीं किया है, और जब मैंने दूसरे किसी का अहित नहीं किया है, तब मुझे भयभीत होने की आवश्यकता ही क्या ? सम्यक् दृष्टि आत्मा को न अपने से भिन्न किसी मनुष्य का भय होता है, न पशूपक्षी का भय होता है और न किसी देव का भय होता है । न परलोक का ही भय होता है कि मरने के बाद मेरा वहाँ क्या हाल होगा? वह अपने मन में यही विचार करता है. कि जो कुछ शुभ और अशुभ कर्म मैंने किया है, उसका फल मुझे स्वयं को ही भोगना है । दूसरा व्यक्ति न मुझे सूख दे सकता है, और न दुःख दे सकता है। इस प्रकार सुख-दुःख के सम्बन्ध में उसके मानस में यह ध्रुव धारणा रहती है, कि कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता । सम्यक् दृष्टि के मन में न स्वर्ग का प्रलोभन होता है, और न नरक का भय । अपने वर्तमान जीवन में पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के हृदय में न इहलोक का भय होता है और न परलोक का भय होता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि सम्यक् दृष्टि को अपने इस वर्तमान जीवन में. अपने साधना के पथ से न इस लोक का भय हटा सकता है और न परलोक का भय ही हटा सकता है। सात भयों में तीसरा भय है, वेदना-भय । वेदना का अर्थ हैपीड़ा या कष्ट । जीवन में किसी भी प्रकार का संकट उपस्थित हो जाने पर सम्यक् दृष्टि विचलित नहीं होता है । सबसे भयंकर वेदना वर्तमान जीवन में रोग को मानी जाती है। जब शरीर में किसी भी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाता है, तब वह बड़े से बड़े वीर पुरुष को भी अधैर्यशील बना देता है। कहा गया है, कि इस शरीर के रोम-रोम में रोग भरे हए हैं। न जाने किस समय कौन सा रोग फूट पड़े । जब मनुष्य स्वस्थ होता है, तब उसके मन में प्रसन्नता रहती है, और उसके तन में स्फूर्ति रहती है, परन्तु ज्यों ही वह रोगग्रस्त हो जाता है, तो उसके मन की प्रसन्नता और उसके तन की स्फूर्ति न जाने कहाँ चली जाती है ! इस विशाल विश्व में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो यह चाहता हो कि मैं बीमार पड़ जाऊँ, रोग ग्रस्त हो जाऊँ। इसके विपरीत सभी लोग यह चाहते हैं, कि हम सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न बने रहें । किन्तु जो कुछ मनुष्य चाहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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