Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 351
________________ ३५८ | अध्यात्म-प्रवचन वह जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा तो है ही, किन्तु साथ में कर्ता और भोक्ता भी है। विश्व की प्रत्येक आत्मा अपने शुभ एवं अशुभ कर्म का कर्ता है और स्वयंकृत कर्म का भोक्ता भी है । परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आत्मा के अनन्त गुणों में चेतना शक्ति ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । यदि अन्य समस्त गुण हों और चेतना न हो, तो आत्मा चेतन न रह कर जड़ बन जाएगा । चेतना के बिना आत्मा के अन्य गुणों का कुछ भी महत्व न रहेगा । चेतना का अर्थ है- उपयोग और उपयोग का अर्थ हैज्ञान एवं दर्शन । आत्मा को चेतन बनाने वाला गुण एकमात्र चेतना ही है । यही कारण है कि भारत में प्रत्येक आस्तिक दर्शनकार ने आत्मा के अन्य गुणों की अपेक्षा उसके चेतना गुण को ही अधिक महत्व दिया है । चेतना के सम्बन्ध में जैन दर्शन में तो यहाँ तक कहा गया है, कि चेतन सत्ता पर ही संसार और मोक्ष दोनों ही आधारित हैं । चेतना के अभाव में न संसार की ही सत्ता रह सकती है और न मोक्ष की ही । संसार और मोक्ष अथवा बन्ध और मोक्ष तथा सुख और दुःख एवं पाप और पुण्य इन सबकी व्यवस्था बिना चेतना के नहीं हो सकती । यही कारण है कि शास्त्रकारों ने आत्मा के अनन्त गुणों में से उसके चेतना गुण को सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी माना है । यदि आत्मा में चेतना न हो, तो फिर वह ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता और भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? चेतना के अभाव में यह आत्मा न बद्ध हो सकता है और न मुक्त ही । बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था का एक मात्र आधार आत्मा का ज्ञान रूप चेतना गुण ही है । मैं आपसे चेतना की बात कह रहा था। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि अपने चेतना गुण के आधार पर ही आत्मा चेतन है । आत्मा का बन्ध भी उसके चेतन भाव में ही है, जड़ भाव में नहीं । उसका मोक्ष भी उसके चेतन-भाव में ही है, जड़ भाव में नहीं । चेतन की चेतना में ही बन्ध है और चेतन की चेतना में ही मोक्ष है । प्रश्न होता है, कि बन्ध कहाँ से आया और मोक्ष कहाँ से आया ? इस प्रश्नः के समाधान में कहा गया है, कि न बन्ध ही कहीं बाहर से आया और न मोक्ष ही कहीं बाहर से आया । चेतना में ही बन्ध है और चेतता में ही मोक्ष है । आप कह सकते हैं, कि बन्ध और मोक्ष दोनों परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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