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३४२ | अध्यात्म-प्रवचन वह यह सोचता है, कि इस विषमिश्रित भोजन को करने में स्वस्थ एवं जीवित नहीं रह सकता। यद्यपि उस भोजन में विष डालने का एकान्त निश्चय उसे नहीं है, फिर भी सन्देह के कारण उसके मन में भोजन के प्रति एक प्रकार की विचिकित्सा तो पैदा हो ही गई है। यहाँ प्रकृत में इस तथ्य को इस प्रकार समझिए, कि जब साधक कोई भी साधना प्रारम्भ करता है, और कुछ दूर दृढ़ता के साथ उस पथ पर आगे बढ़ता भी रहता है, किन्तु जिस क्षण उसके मन में यह भावना पैदा हो जाती है, कि मैं जिस साधना का पालन कर रहा हूँ अथवा मैं जिस व्रत का पालन कर रहा हूँ, उसका फल भी मुझं कभी मिलेगा अथवा नहीं ? इस प्रकार की लड़खड़ाती और डगमगाती मनोवृत्ति ही विचिकित्सा कही जाती है। विचिकित्सा किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह अध्यात्म-साधना का एक दूषण है और वह साधक की निष्ठा-शक्ति को दुर्बल एवं कमजोर बनाती है। इससे बचने का एक ही उपाय है, कि मन में फल की आकांक्षा किये बिना, अपनी साधना को निरन्तर करते रहना । यही एक मात्र साधना का राजमार्ग है।
सम्यक्त्व-साधना का चतुर्थ और पंचम दोष है-परपाषंड-प्रशंसा और परपाषंड संस्तव । हमें यहाँ पर यह विचार करना है, कि प्रशंसा और संस्तव का क्या अर्थ है ? प्रशंसा का अर्थ है-किसी की स्तुति करना, किसी के गुणों का उत्कीर्तन करना। संस्तव का अर्थ हैकिसी से परिचय करना, किसी से मेल-जोल बढ़ाना । सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि प्रशंसा और परिचय को अतिचार दोष और दूषण क्यों माना गया है ? इसके सम्बन्ध में यह कहा गया है, कि प्रशंसा और संस्तव अपने आप में न अच्छे हैं, न बुरे हैं । यह तो व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह कैसा है ? यहाँ पर पाषण्ड की प्रशंसा और संस्तव निषिद्ध है। मनुष्य के मन पर संगति और वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। अच्छी संगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाती है और बुरी संगति मनुष्य को उन्मार्ग की ओर ले जाती है । इसी प्रकार अच्छे वातावरण से मनुष्य अच्छा बनता है और बुरे वातावरण से मनुष्य बुरा बन जाता है। एक मिथ्या दृष्टि व्यक्ति की संगति में और वातावरण में रहने वाला व्यक्ति कभी न कभी अपने मार्ग को छोड़ कर उसके रंग में अवश्य रंग जाएगा।
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