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आठ अंग और सात भय
सम्यक् दर्शन का स्वरूप क्या है ? उसकी व्याख्या क्या है और उसकी परिभाषा क्या है ? इस सम्बन्ध में आपको विस्तार के साथ बताया जा चुका है। सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में जो मुख्य-मुख्य सिद्धान्त हैं उनका परिचय आपको करा दिया गया है। अब सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में एक बात शेष रह जाती है, वह यह है, कि जिस व्यक्ति में सम्यक् दर्शन होता है, उस व्यक्ति का आचरण कैसा होता है । शास्त्रीय भाषा में इसको दर्शनाचार कहते हैं । सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर जीवन के आचरण में जो एक प्रकार की विशेषता आ जाती है, उसे दर्शनाचार कहा जाता है, इसके आठ अंग हैं-निश्शंकता, निष्कांक्षता, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टिता, उपहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।।
निश्शंकता, सम्यक्त्व का प्रथम अंग हैं। इसका अर्थ है-सर्वज्ञ एवं वीतराग कथित तत्व में किसी भी प्रकार की शंका न रखना। कुछ आचार्य इसका एक दूसरा अर्थ भी करते हैं। उनका कहना है, कि मोक्ष मार्ग पर, आध्यात्मिक साधना पर दृढ़ विश्वास रखना ही निश्शंकता है। जब तक जीवन में निश्शंकता का भाव नहीं आएगा तब तक साधना में किसी भी प्रकार की दृढ़ता नहीं आ सकेगी। श्रद्धा
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