________________
३४८ | अध्यात्म प्रवचन ही है । गुरु का अर्थ है, साधना का मार्ग बताने वाला। जो व्यक्ति स्वयं साधना-भ्रष्ट है, जो स्वयं कामी है और जो स्वयं लोभी है, उसे गुरु मानना ही गुरु-मूढ़ता है। गुरु-मूढ़ता का अर्थ यह भी लिया जाता है, कि परीक्षा किए बिना ही हर किसी को गुरु स्वीकार कर लेना और फिर स्वार्थ सिद्ध न होने पर परित्याग कर फिर किसी अन्य को अन्धभाव से गुरु बना लेना । गुरु-मूढ़ता भी त्याज्य है ।
उपवृहण, यह दर्शनाचार का पाँचवाँ अंग माना जाता है । इसका अर्थ है-वृद्धि करना, बढ़ाना या पोषण करना । स्व और पर की धार्मिक भावना को बढ़ाना ही उपवहण कहा जाता है। न अपने सत्कर्म की अवहेलना करनी चाहिए, और न दूसरे के सत्कर्म की । जहाँ तक बन सके, सद्गुणों एवं सत्कर्मों को बढ़ावा ही देना चाहिए । उपवृहण के स्थान पर उपगृहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ है-'छुपाना ।' धर्म की निन्दा को और धर्म की अप्रभावना को छुपाना ही उपगूहन कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि को ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए, जिससे उसके धर्म और उसकी संस्कृति की लोक में निन्दा हो। कदाचित् किसी कारण से उसके धर्म की अवहेलना होती भी हो, तो उसे दूर करना ही उपग्रहन कहा जाता है। परदोषदर्शन की प्रवृत्ति बड़ी ही भयंकर है। जिसके मुख को एक बार परनिन्दा का रस लग जाता है, फिर उसका छूटना कठिन हो जाता है । दूसरे के दोषों का सुधार तो करना चाहिए परन्तु उसकी निन्दा के ढोल नहीं बजाने चाहिए। दूसरे के दोषों का उपगृहन कर उसके गणों का आदर करो, उसके गुणों की अभिवृद्धि करो, यही इस अंग का प्रधान उद्देश्य है।
दर्शनाचार का छठा अंग है-स्थिरीकरण । इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई मनुष्य अपने धर्म के मार्ग से गिर रहा है, तो उसे सहारा देकर फिर धर्म में स्थिर कर देना । व्यक्ति आपत्ति में फंसकर अथवा प्रलोभन में फंसकर अपने धर्म से गिर जाता है। उस गिरते हुए को ऊपर उठाना, उसे फिर कल्याण के मार्ग पर लगा देना, यह साधारण बात नहीं है । निःस्वार्थ और पवित्र हृदय वाला व्यक्ति ही इस प्रकार का कार्य कर सकता है । जिसके ठोकर लग चुकी है, उसे साहस बंधा कर फिर धर्म पर आरूढ़ करना, इसी को स्थिरीकरण कहा जाता है। संघ में जो व्यक्ति निर्धन हैं और अभावग्रस्त हैं, और जो अपनी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org