Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 340
________________ आठ अंग और सात भय | ३४७ कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक होता है, अतः उसके समस्त कार्य विवेक पूर्वक ही होते हैं। जीवन में विवेक स्थिर कैसे रहे, इसके लिए मूढ़ता का परित्याग करना आवश्यक है । मूढ़ता का अर्थ है - अज्ञान, भ्रम, संशय और विपर्यास । सम्यक् दृष्टि का विचार पवित्र रहना चाहिए । यदि विचार पवित्र नहीं रहा, तब वह साधना - मार्ग से कभी भ्रष्ट भी हो सकता है । विचार को स्वच्छ और पावन रखने के लिए मूढ़ता का परित्याग परमावश्यक है । शास्त्र में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का वर्णन किया गया है, उनमें मुख्य ये हैं- लोक मूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता और गुरु- मूढ़ता । लोक- मूढ़ता का क्षेत्र सबसे अधिक विशाल है । इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी नदी - विशेष में स्नान करने में धर्म मानना, पर्वत से गिर कर मरने में धर्म मानना, अथवा अग्नि में जल कर मरने में धर्म मानना इत्यादि लोकमूढ़ता है। लोकमूढ़ता में उन सब पापों का समावेश हो जाता है, जो लोक एवं समाज की अन्ध-श्रद्धा के बल पर चलते हैं । समाज में प्रचलित रूढ़ियाँ भी लोक- मूढ़ता का ही एक रूप है । शास्त्र - मूढ़ता भी सम्यक् दृष्टि में नहीं होनी होनी चाहिए। सम्यक् दृष्टि जीव किसी भी शास्त्र को तभी मानता है, जबकि वह उसकी कसोटी कर लेता है । शास्त्र के नाम पर और पोथी पन्नों के नाम पर भी संसार में अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ चलती रहती हैं कल्पना कीजिए, जब एक व्यक्ति यह कहता है, कि मेरी सम्प्रदाय का शास्त्र ही सच्चा है, अन्य सब झूठे हैं, तो यह भी एक प्रकार की शास्त्र - मूढ़ता ही है । दूसरा व्यक्ति कहता है, संस्कृत में लिखित शास्त्र ही सच्चे हैं, अन्य सब मिथ्या हैं, तो यह भी एक प्रकार की शास्त्र - मूढ़ता ही है । क्यों कि सत्य न किसी पोथी में बन्द है, न किसी सम्प्रदाय में बन्द है और न किसी भाषा में बन्द है । देव- मूढ़ता का अर्थ है - काम, क्रोध, मोह आदि विकारों के पूर्ण विजेता और परिपूर्ण शुद्ध वीतराग देव को देव न मानकर, अन्य विकारी देव को देव मानना । जीवन - विकास के लिए सच्चे देव की पहिचान आवश्यक है । जब तक सच्चे देव की उपासना नहीं की जाएगी, तब तक देव - मूढ़ता का अन्त नहीं होगा । रागी देव को देव मानना ही, देव- मूढ़ता का वास्तविक लक्षण है । आत्म-विवेक की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है, कि वह सुदेव की उपासना करने का निरन्तर अभ्यास करे, और उसके बतलाए हुए पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता रहे। गुरु- मूढ़ता भी एक प्रकार का पाप । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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