Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 339
________________ ३४६ | अध्यात्म-प्रवचन एवं विश्वास के बिना जीवन का विकास नहीं हो सकता। साधना चाहे कितनी भी कठोर क्यों न हों और चाहे कितनी भी दीर्घकालीन क्यों न हो, श्रद्धा के अभाव में वह मोक्ष का अंग नहीं बन सकती है। जीवन में सत्य के प्रति अगाध आस्था ही वस्तुतः निश्शंकता है। निष्कांक्षता, दर्शनाचार का दूसरा अंग माना जाता है । निष्काक्षता का अर्थ है-किसी भी प्रकार के अविहित एवं मर्यादाहीन भोग-पदार्थ की इच्छा और अभिलाषा न करना । जीवन में सुख और दुःख दोनों आते हैं, दोनों को समभाव से सहन करना ही सच्ची साधना है। सांसारिक सुख का प्रलोभन साधक को साधना के मार्ग से विचलित कर देता है। सुखों के आकर्षण का संवरण न कर सकने के कारण जब साधक भौतिक वैभव के जाल में फंस जाता है, तब वह साधना कैसे कर सकता है। साधना की सफलता के लिए यह आवश्यक है, कि मन में किसी भी पदार्थ के प्रति साधना पथ से पतित करने वाला आकर्षण न हो। इन्द्रिय-सुख को साधक इतना महत्व न दे, कि उसके लिए वह अन्याय, अत्याचार तथा अनाचार करने को तैय्यार हो जाए, बस इसी को निष्कांक्षता कहा जाता है। निविचिकित्सा का अर्थ है-शरीर के दोषों पर दृष्टि न रखते हुए, आत्मा के सद्गुणों से प्रेम करना। सम्यक् दृष्टि में जब तक सद्गुणों के प्रति अभिरुचि पैदा न होगी। तब तक वह अपने जीवन को श्रेष्ठ नहीं बना सकेगा । गुण-दृष्टि और गुणानुराग ही निर्विचिकित्सा का प्रधान उद्देश्य है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी किया जाता है, कि मन में अपनी साधना के प्रति यह विकल्प नहीं रहना चाहिए, कि जो कुछ साधना मैं कर रहा हूँ, उसका फल मुझे मिलेगा, या नहीं ? साधक का कर्तव्य है, साधना करना । फल की आकांक्षा करना उसका कर्तव्य नहीं है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी लिया जाता है, कि संयमपरायण एवं तपोधन मुनि के मलक्लिा कृशतन और वेश को देख कर ग्लानि न करना । इस प्रकार निर्विचिकित्सा के विभिन्न अर्थ किए गए हैं, जो मुलतः एक ही भाव रखते है। विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि एक प्रकार का कषाय भाव है। इसलिए वह पाप है, और पाप का त्याग करना, यही साधना का मुख्य उद्देश्य है। दर्शनाचार का चौथा अंग है, अमूढदृष्टिता। सम्यक् दृष्टि को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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