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सम्यग् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३४३ मनुष्य के मन पर निकट के व्यक्तियों के विचार और आचार का प्रभाव बहुत शीघ्रता से पड़ता है । यहाँ पाखंड शब्द का अर्थ भी समझने के योग्य है । पाषड शब्द के विविध ग्रन्थों में अनेक अर्थ किए गए हैं । पाषंड शब्द का एक अर्थ है - पथ भ्रष्ट व्यक्ति, पाषंड का दूसरा अर्थ है - पंथ एवं सम्प्रदाय, और पाखंड का तीसरा अर्थ हैव्रत । इस प्रकार पाषंड शब्द के अर्थ विभिन्न युग के आचार्यों ने विभिन्न किए हैं, परन्तु सम्यक्त्व के वर्णन के प्रसंग पर इसका अर्थसम्प्रदाय एवं पंथ ही लेना चाहिए । यहाँ पाषण्ड से पूर्व 'पर' शब्द जुड़ा है, अतः पर पाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्तव का अर्थ होता है - दूसरे मिथ्यात्वी एवं कुमार्गी पाषण्ड अर्थात् मत आदि की प्रशंसा और परिचय करना । इस प्रसंग पर मुझे यह कहना चाहिए, कि जब तक उदारता के साथ विचार नहीं किया जाएगा, तब तक इसमें अनर्थ होने की सम्भावना बनी रहेगी । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे पंथों एवं पंथ वालों से घृणा की जाए, उनकी निन्दा की जाए, यथावसर विषम स्थिति में उन्हें उचित सहयोग न दिया जाय । यह अलग रहने की बात प्राथमिक श्रेणी के दुर्बल साधकों के लिए है । एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के सम्पर्क में रहने बाला सम्यक् दृष्टि व्यक्ति, यदि दुर्बल विचार वाला है, तो उसके मिथ्या दृष्टि व्यक्ति के चंगुल में फँस जाने की सम्भावना है । इसलिए जब तक विचारों में परिपक्वता न आ जाए, अथवा स्व समय एवं पर समय का दृढ़ परिबोध न हो जाए, तब तक पर पाषण्ड को प्रशंसा और संस्तव से बचना आवश्यक है । इसी अभिप्राय से सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन करते हुए यह कहा गया है, कि अतिचारों को समझो अवश्य, किन्तु उनका आचरण कभी भूल कर भी मत करो । पाप को समझना तो आवश्यक है, किन्तु पाप का आचरण नहीं करना चाहिए । उसका समझना इसलिए आवश्यक है, ताकि हम समय पर उस पाप से बच सकें । जब शास्त्रकार यह कहते हैं, कि पाप को भी समझो और पुण्य को भी समझो, तथा धर्म को भी समझो और अधर्म को भी समझो, तब इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही होता है, कि पाप से बचने के लिए और अधर्म से बचने के लिए पाप और अधर्म को पहचानना आवश्यक है ।
आज के वर्णन में मैंने दो बातों का स्पष्टीकरण किया है - सम्यक्त्व के लक्षण और सम्यक्त्व के अतिचार । किसी भी साथना में
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