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३४० । अध्यात्म-प्रवचन
सम्यक् दर्शन की साधना में सबसे पहला औरसब से बड़ा खतरा - शंका | शंका अर्थात् संशय साधक के मन की दुर्बलता है । अपनी साधना में किसी भी प्रकार की शंका का होना, संदेह का रहना शुभ नहीं है । शंका रहते हुए न जीवन का विकास हो पाता है और न अध्यात्म-साधना में सफलता ही मिलती है । जब साधक के मन में अपनी साधना के प्रति किसी भी प्रकार की शका रहती है, तब वह शंका उसके सत्संकल्प में और उसकी स्थिरता-शक्ति में दृढ़ता नहीं आने देती । वह साधक अपनी राह में हर कदम पर ठोकर खा सकता है, जिसके मन में शंका एवं संशय बना हुआ है । शंका एक ऐसा दुर्गा है, जो साधना में दृढ़ता नहीं आने देता । दृढ़ता के बिना साधक, अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए, साधना में अपेक्षित आन्तरिक बल प्राप्त नहीं कर सकता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह आवश्यक है, कि हम शंका और संशय के वातावरण से दूर रहें। मैं यह नहीं कहता कि संशय और शंका एकान्त रूप से बुरी वस्तु है । यदि शंका और संशय न हो तो जिज्ञासा कैसे उत्पन्न होगी ? और जब जिज्ञासा ही नहीं है, तब नवीन ज्ञान का द्वार कैसे खुलेगा ? यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि किसी तत्व को समझने एवं जानने के लिए शंका और तद्नुसार प्रश्न आदि अवश्य किया जाना चाहिए, किन्तु एक बार जब किसी तत्व का सम्यक् समाधान हो जाता है और जब सम्यक् प्रकार से स्वीकृत सिद्धान्त को जीवन में साकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है, उस समय साधना में जो शंका एवं संशय उत्पन्न होता है, वह साधक - जीवन की सबसे भयंकर बुरी स्थिति होती है । उस स्थिति से बचने के लिए ही यहाँ पर शंका रूप दोष से बचने के लिए, साधक को चेतावनी दी गई है । संशय, साधना में एक प्रकार का विष होता है ।
सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों में दूसरा अतिचार है- कांक्षा किसी-किसी ग्रन्थ में कांक्षा के स्थान पर आकांक्षा शब्द का प्रयोग भी किया जाता रहा है । दोनों का एक ही सामान्य अर्थ है - इच्छा और अभिलाषा । परन्तु यहाँ पर कांक्षा शब्द का सामान्य अर्थ अभिप्रेत नहीं है यहाँ पर इसका एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है ॥ air क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जब एक साधक किसी अन्य व्यक्ति की पूजा और प्रतिष्ठा को देखकर, उसके वैभव और विलास को देख कर अपनी साधना के प्रति आस्था
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