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२८८ ! अध्यात्म प्रवचन
एवं आत्मा का एक ऐसा विशुद्ध भाव, जो अभी तक कभी नहीं आया था, उसे अपूर्वकरण, कहते हैं । यद्यपि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि यहाँ पर भी नहीं होती है, किन्तु अपूर्वकरण के प्रभाव से यह आत्मा एक ऐसी भूमिका पर पहुंच जाता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में 'ग्रन्थि-देश' कहते हैं । ग्रन्थि-देश का अर्थ है-आत्मा के राग एवं द्वष की सम्यग् दर्शननिरोधक तीव्रता एवं प्रगाढ़ता की भूमि । अपूर्वकरण में आकर जीव ग्रन्थि-देश का भेदन तो नहीं करता, किन्तु उसकी प्रगाढ़ता को शिथिल बना देता है । आत्मा के सघन एवं प्रगाढ़ राग-द्वेष रूप अविशुद्ध परिणाम को ग्रन्थि कहा जाता है। आत्मा में यह ग्रन्थि आज से नहीं, अनन्त काल से है। बाँस की गाँठ के समान इस गाँठ का भेदन करना भी, सरल एवं आसान काम नहीं है। ग्रन्थि-देश पर पहे. चने के बाद आत्मा फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ता है और वह एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण आत्मा का वह परिणाम है, जहाँ पहुँचकर वह सम्यक् दर्शन को बिना प्राप्त किए नहीं रहता। अनिवृत्तिकरण में पहुँचकर आत्मा राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि का भेदन कर देता है और इस ग्रन्थि का भेदन होते ही, अन्तर्मुहूर्त के अन्दर आत्मा को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाती है। आत्मा को स्वरूप का प्रकाश मिल जाता है।
इन तीनों कारणों को स्पष्ट समझने के लिए, शास्त्रकारों ने एक बड़ा सुन्दर रूपक दिया है और वह रूपक इस प्रकार है। एक बार एक ही ग्राम के रहने वाले तीन मित्र मिल कर धन कमाने के लिए विदेश की ओर चल पड़े। तीनों मित्र थे, तीनों में अत्यन्त प्रेम था
और आप समझते हैं, कि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ किसी प्रकार का द्वैत-भाव नहीं रहता। वे तीनों साथ रहते, और साथ चलते तथा साथ ही खाते-पीते भी थे। एक बार यात्रा करते-करते वे तीनों एक विकट एव विजन वन की पर्वत-घाटी में जा पहुँचे। जैसे ही वे घाटी में कुछ आगे बढ़े कि कुछ दूर उन्हें चार डाकू दिखलाई दिए । उनकी भयंकर आकृति और उनके बलिष्ठ शरीर को देखकर, वे तीनों मित्र भय से काँपने लगे और तीनों के हृदय में एक ही भावना प्रबल हो उठी कि किसी भी तरह अपने प्राणों की रक्षा करें। मनुष्य को धन प्रिय होता है, क्योंकि धन के लिए वह बहुत से कष्ट, परिताप और
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